गुरु पूर्णिमा विशेष, भगवान् शिव का दक्षिणामूर्ति रूप दर्शाता है उन्हें परम गुरु के रूप में

विचार I - धर्म (मिथक/अनुष्ठान)
13-07-2022 08:09 AM
Post Viewership from Post Date to 11- Aug-2022 (30th Day)
City Subscribers (FB+App) Website (Direct+Google) Messaging Subscribers Total
12167 44 0 12211
* Please see metrics definition on bottom of this page.
गुरु पूर्णिमा विशेष, भगवान् शिव का दक्षिणामूर्ति रूप दर्शाता है उन्हें परम गुरु के रूप में

गुरु पूर्णिमा (पूर्णिमा) सभी आध्यात्मिक और शैक्षणिक शिक्षकों (गुरुओं) को समर्पित एक परंपरा है। गुरु कर्म योग के आधार पर विकसित या प्रबुद्ध मनुष्य हैं तथा अपने ज्ञान को साझा करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। यह भारत, नेपाल और भूटान में हिंदुओं, जैनियों और बौद्धों द्वारा एक त्योहार के रूप में आध्यात्मिक और शैक्षणिक शिक्षकों को सम्मानित करने के लिए मनाया जाता है। भारत के हिंदू कैलेंडर के अनुसार, त्योहार आषाढ़ के हिंदू महीने में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है।
महात्मा गांधी ने अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीमद राजचंद्र को श्रद्धांजलि देने के लिए त्योहार को पुनर्जीवित किया था। इस दिन को महान ऋषि वेद व्यास के सम्मान में व्यास पूर्णिमा के रूप में भी मनाया जाता है, जिन्होंने महाभारत और वेदों का संकलन किया। भारतीय परंपरा आध्यात्मिक और शैक्षणिक शिक्षकों (गुरुओं)को विशेष सम्मान देती है। भगवान शंकर के कई रहस्य है,बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख कर बैठे हुए भगवान शिव को दक्षिणमूर्ति कहा जाता है, शायद, सभी हिंदू देवताओं में, वह दक्षिण की ओर मुख करके बैठे एकमात्र देव हैं। दक्षिण भारत के कई मंदिरों में बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख किये हुए भगवान शिव की मूर्तियों का पाया जाना आम बात है। शिव का यह रूप दक्षिणमूर्ति कहलाता है। यह रूप शिव को गुरुओं के गुरु के रूप में दर्शाता है। “दक्षिणामूर्ति” को, हिंदू मान्यताओं में परम गुरु, ज्ञान के अवतार के रूप में माना जाता है, जो भगवान शिव का एक अंश है, जो सभी प्रकार के ज्ञान के गुरु हैं। परमगुरु के प्रति समर्पित भगवान परमाशिव का यह अंश परम जागरूकता, समझ और ज्ञान के रूप में उनके व्यक्तित्व को दर्शाता है। यह रूप शिव को योग, संगीत और ज्ञान के शिक्षक के रूप में प्रस्तुत करता है, और शास्त्रों पर प्रतिपादक देता है। शास्त्रों के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति के पास परमगुरु नहीं है, तो वे भगवान दक्षिणामूर्ति को अपना गुरु मान सकते हैं और उनकी पूजा कर सकते हैं।
इनकी ज्ञान मुद्रा की व्याख्या इस प्रकार की जाती है: - उनका निचला दायां हाथ अभय चिन्मुद्रा में है। निचले दायें हाथ का अंगुष्ठ ब्रह्म तत्व का और तर्जनी आत्म तत्व का बोध कराता है। अन्य तीन उंगलियां मनुष्य की तीन जन्मजात अशुद्धियों अहंकार, भ्रम और पिछले जन्मों के बुरे कर्म का संकेत कर रही है, यह माना जाता है कि जब मनुष्य इन अशुद्धियों से खुद को अलग कर लेता है, तो वह ईश्वर तक पहुँच जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार ये तीन उंगलियां जीवन की तीन अवस्थाओं को दर्शाती हैं: जागृति (इंद्रियों और मन के माध्यम से पूरी तरह से जागना), स्वप्न (नींद की स्थिति - जब मन जाग्रत हो) और सुषुप्ति (सच - जब इंद्रियां और मन आत्मा में जाते हैं)। निचले बायें हाथ में भोजपत्र में लिखे गये वेद हैं। उनके ऊपरी दायें में एक माला है जो ज्ञान का प्रतीक है। ऊपरी बायें हाथ में अग्नि है जो अज्ञान के अंधकार को दूर करने वाली रोशनी का प्रतिनिधित्व करती है। दक्षिणामूर्ति भगवान का दायां पांव बायें पांव के नीचे है, उनके चरण के नीचे अपस्मर नामक असुर पड़ा हुआ है, यह विस्मृति और अज्ञानता का प्रतीक है। हालांकि श्री दक्षिणामूर्ति के प्रतीकात्मक वर्णन एक समान नहीं हैं। प्रत्येक प्रमुख ग्रंथ - अम्सुमदभेडा (Amsumadbheda), कर्णगमा (Karanagama), कामिकागामा (Kamikagama), शिल्परत्न (Shilparatna) और अन्य में श्री दक्षिणामूर्ति की विशेषताओं, मुद्राओं और आयुधों का अलग-अलग वर्णन किया गया है। इसके अलावा, उसकी विशेषताओं के कई संस्करण हैं। श्री दक्षिणामूर्ति को शांत, मनभावन चेहरे वाले एक युवा व्यक्ति के रूप में दर्शाया गया है जो हिमालय में एकांत स्थान पर, एक बरगद के पेड़ के नीचे, एक चट्टान या एक ऊंचे मंच पर बाघ की खाल से ढके हुए हैं। श्री दक्षिणामूर्ति हमेशा अकेले (किसी अन्य देवता या पत्नी के साथ नहीं) चित्रित किया जाता है।
दक्षिणामूर्ति को पाँच प्रतीकों (पंच मुद्रा) से अलंकृत किया गया है माथे पर रत्न (मणि); कान के कुंडल, हार (कंठिका), हाथ और पैर पर कंगन, और, करधनी (मेखला)। कहा जाता है कि ये आभूषण प्रतीक हैं: आध्यात्मिक शक्ति, सहनशीलता, उदारता, नैतिक गुण, और ज्ञान। श्री दक्षिणामूर्ति का स्वभाव शांत, शुद्ध, आनंदमय, उज्ज्वल और निर्मल है। उनका रंग एक स्पष्ट क्रिस्टल, या शुद्ध चांदी के सफेद मोती, या चमेली के फूल के सामान सुखदायक उज्ज्वल। उन्हें सोने की तरह चमकते हुए भी वर्णित किया गया है। कुछ ग्रंथों में उनके रंग को दूध या बर्फ-सफेद के समान सफेद रंग के रूप में वर्णित किया गया है, जो स्वयं में लीन हैं। गुरुओं के गुरु भगवान दक्षिणामूर्ति की आराधना में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा विरचित दक्षिणामूर्ति स्तोत्र को गुरु भक्ति के स्तोत्र साहित्य में अद्वितीय स्थान प्राप्त है। गुरु कृपा की प्राप्ति हेतु इसे सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। आदि शंकराचार्य ने दक्षिणामूर्ति की स्तुति में बहुत सारे महान स्तोत्र (प्रार्थना) लिखे हैं, लेकिन यह एक अनोखी प्रार्थना है, जो न केवल एक प्रार्थना है, बल्कि उन सभी दर्शन का सारांश है जो उन्होंने सिखाया है। अपने समय के दौरान भी, इस स्तोत्र को समझना मुश्किल था। इसलिए सुरेश्वराचार्य ने इस स्तोत्र पर मानसोल्लास नामक एक भाष्य लिखा है। बाद में इस भाष्य के ऊपर भी बड़ी संख्या में पुस्तकें और टीकाएँ लिखी गयी हैं।
ॐ मौनव्याख्या प्रकटितपरब्रह्मतत्वंयुवानं।
वर्शिष्ठांतेवसद ऋषिगणै: आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः।।
आचार्येंद्रं करकलित चिन्मुद्रमानंदमूर्तिं।
स्वात्मरामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे।।

भावार्थ - मैं उस दक्षिणामूर्ति की स्तुति और प्रणाम करता हूं, जो दक्षिण दिशा की ओर मुख करके विराजमान हैं। जिसका मन ब्रह्म पर स्थिर हुआ है , जो उनकी मौन स्थिति से ही ,परम ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या कर देते हैं। जो दिखने में युवा जैसे हैं, लेकिन जो वृद्ध शिष्यों (ऋषि , मुनि) से घिरे हुए है रहते हैं। जीवन्मुक्त शिक्षकों/नेताओं में सबसे बड़ा कौन है, जो अपने हाथ से चिन्मुद्रा को दिखाता है, जो खुशी का व्यक्तिकरण करता है, जो अपने भीतर चरम आनंद की स्थिति में है,और जिसकी मुस्कान अतयंत मनोहर है।
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्याः गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु च्चिन्नसंशयाः ।।

भावार्थ - वट वृक्ष के नीचे गुरु विराजमान हैं, वह सृष्टि के साथ-साथ विस्तारित ब्रह्मांड का भी प्रतीक है, जो स्वयं को पुन: उत्पन्न कर सकता है। आश्चर्य की बात यह है कि वट वृक्ष के नीचे सभी शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं, साथ ही गुरु का व्याख्यान भी मौन भाषा में है, किंतु उसी से शिष्यों के सब संशय मिट गये हैं। कहते हैं कि गुरु बिना ज्ञान नहीं होता। इस स्तोत्र में दक्षिणामूर्ति के गहन व जटिल दर्शन का वर्णन है। इस स्तोत्र को काव्य का सर्वोत्कृष्टतम रूप भी माना गया है। श्री शंकराचार्य की समस्त कृतियों में यह कृति वास्तव में ही एक चैंधियाने वाला रंगीन रत्न है। श्री शंकराचार्य ने न केवल अपने शिष्यों को उपदेश दिए बल्कि इस बात का भी समुचित ध्यान रखा कि उनका ज्ञान उनकी कृतियों के माध्यम से भावी पीढ़ियों तक पहुंच सके।

संदर्भ:
https://bit.ly/3c9AEhK
https://bit.ly/3PnxqG3
https://bit.ly/3P2hXev
https://bit.ly/3yxS5QN

चित्र संदर्भ
1. आदियोगी शिव को दर्शाता एक चित्रण (facebook)
2. दक्षिणमूर्ति, को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. कपालेश्वर मंदिर, चेन्नई को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. राजा रवि वर्मा द्वारा शंकराचार्य के चित्रण को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)