भारत और पाकिस्तान में संवैधानिक रूप से सेना के अधिकारों में कितना अंतर है?

आधुनिक राज्य : 1947 ई. से वर्तमान तक
20-05-2023 09:23 AM
Post Viewership from Post Date to 20- Jun-2023 31st
City Subscribers (FB+App) Website (Direct+Google) Messaging Subscribers Total
1840 616 0 2456
* Please see metrics definition on bottom of this page.
भारत और पाकिस्तान में संवैधानिक रूप से सेना के अधिकारों में कितना अंतर है?

ब्रिटिश शासन के भारत छोड़ने के बाद ही भारत और पाकिस्तान की सेनाओं का उद्भव एक ही ब्रिटिश परंपरा से हुआ था, लेकिन आजादी के बाद के 76 वर्षों में, दोनों देशों की सेनाओं का देश की राजनीति में अलग-अलग स्थान है। स्वतंत्रता के बाद भारत मेंराजनीतिक नेतृत्व द्वारा एक अनियंत्रित सेना से लोकतंत्र के लिए होने वाले संभावित खतरे को कम करने के लिए मजबूत नागरिक निरीक्षण और नीतियों के साथ कड़ी मेहनत की गई, जिसके लिए भारतीय अधिकारियों द्वारा पाकिस्तान की सैन्य नीतियों से भी प्रेरणा ली गई जहां सरकार का तख्तापलट होने पर समन्वय करने की स्थिति में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
अपनी पुस्तक ‘आर्मी एंड नेशन: द मिलिट्री एंड इंडियन डेमोक्रेसी सिंस इंडिपेंडेंस’ (Army and Nation: The Military and Indian Democracy Since Independence) में भारत और दक्षिण एशियाई अध्ययन के प्रवक्ता स्टीवन विल्किंसन (Steven Wilkinson) द्वारा भारतीय सेना के 'तख्तापलट विरोधी' होने के लिए नेहरू युग में अपनाई गई नीतियों को श्रेय दिया गया, जिनमें सैन्य बजट में कटौती करना, संपूर्ण सैन्य शक्ति को एक कमांडर-इन-चीफ में निहित करने के बजाए थल सेना, नौसेना और वायु सेना में विभाजित करना, सैन्य अधिकारियों को चुने हुए नेताओं के अधीन रखना एवं भाषण आदि से रोकना और वरिष्ठ अधिकारियों को कठोर निगरानी में रखना आदि शामिल है। 1970 के दशक तक, भारतीय सशस्त्र बलों को नागरिक प्राधिकरण के अधीन करने की प्रक्रिया भी पूरी कर ली गई थी। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान 1977 तक अपने गठन के 20 साल के अंदर ही, दो सैन्य तख्तापलट देख चुका था जिसके बाद वहां अब तक 6 बार और तख्तापलट हो चुका है । वास्तव में, आजादी के 76 वर्षों में से लगभग आधे समय तक, पाकिस्तान पर उसकी शक्तिशाली सेना का ही शासन रहा है। पाकिस्तान में वर्तमान समय तक राजनीतिक शक्ति लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई इकाइयों के बजाय सेना के पास ही अधिक है। वहां के सैन्य दल को प्रशासनिक कर्मचारियों से अधिक अधिकार प्राप्त हैं, जिस वजह से यदि कोई लोकतांत्रिक इकाई सेना को नियंत्रित करने की कोशिश करती है, तो उसे आकस्मिक रूप से हटा दिया जाता है। अपने गठन के पूरे इतिहास में केवल एक बार 2013 में, पाकिस्तान में पहली बार, एक लोकतांत्रिक सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया और दूसरी चुनी हुई सरकार को सत्ता हस्तांतरित की।
पाकिस्तान में कमजोर लोकतंत्र के पीछे का कारण उसकी कमजोर नींव थी। विभाजन के बाद पाकिस्तान आर्थिक रूप से और राजनीतिक नेतृत्व की दृष्टि से कमजोर नवनिर्मित राष्ट्र था। एक मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत कर सकती थी, लेकिन मुस्लिम लीग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की तुलना में संगठनात्मक रूप से बहुत कमजोर थी। इसने औपनिवेशिक भारत में एक विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व किया और पाकिस्तान के गठन के बाद पूर्व में कम प्रतिनिधित्व वाले प्रांतों की चिंताओं को न सुनकर अधिक अस्थिरता उत्पन्न की। यह जातीय असंतुलन और मनमानी ही है जिसके कारण पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह हुआ और अंततः भारत के साथ 1971 का युद्ध हुआ। पाकिस्तान में अब तक हुए 6 सफल और कई असफल तख्तापलट संविधान को लागू करने में पाकिस्तान की न्यायपालिका की विफलता को भी उजागर करते हैं। अदालतों को संविधान और शक्तियों के पृथक्करण को बरकरार रखने का संपूर्ण रूप से अधिकार है, लेकिन फिर भी आवश्यकता या अस्तित्व के आधार पर पाकिस्तान में अदालतों द्वारा सैन्य बल को नागरिकों द्वारा चुनी गई सरकार पर नियंत्रण रखने के अधिकार दिए गए हैं। उदाहरण के लिए, 1954 में पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद मुनीर ने सिंध उच्च न्यायालय के फैसले के विपरीत निर्णय लिया और पाकिस्तान के गवर्नर जनरल द्वारा आजादी के बाद की पहली संविधान सभा को भंग करने के फैसले को बरकरार रखा।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में सैन्य दल को अधिक अधिकार न देकर भारत को भी काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ा है, जैसे नागरिक नेतृत्व के कारण ही भारत चीन द्वारा किए गए आक्रमण को रोकने में असमर्थ रहा, क्योंकि नागरिक नेतृत्व द्वारा सैन्य अधिकारियों के साथ मिलकर सेना के पर्याप्त रूप से मजबूत होने और युद्ध के लिए पर्याप्त रूप से तैयार होने की जांच नहीं की गई थी। चीन की नीतियों से खतरों के बारे में कई उच्च पदस्थ सैन्य अधिकारियों की समय-समय पर चेतावनी के बावजूद, प्रधान मंत्री नेहरू, उनके प्रमुख बी.एन. मलिक, रक्षा मंत्री वी. के. कृष्ण मेनन और कई जनरल इस बात से आश्वस्त थे कि चीन से भारत को किसी भी प्रकार का खतरा नहीं था। जबकि वे इस बात पर गलत साबित हुएऔर अक्टूबर 1962 में, भारत पर पहली बार चीनी सैनिकों ने आक्रमण किया और पूर्वोत्तर में भारतीय सेना की इकाइयों को तेजी से हरा दिया, जिससे राजनीतिक नेतृत्व और पूरे देश को काफी जोर का झटका लगा। चीन से मिली इस हार ने भारत को स्वतंत्रता के बाद विकसित नागरिक-सैन्य नियंत्रण रणनीतियों के बारे में गंभीर रूप से विचार करने के लिए मजबूर कर दिया। उस समय देश चीन से खतरे का मुकाबला करने के लिए तेजी से सेना का विस्तार करने के लिए मजबूर हो गया था, इसलिए 1949 में राजनेताओं द्वारा निर्धारित नीतियों के तहत नई अखिल भारतीय इकाइयों के गठन के बजाय अधिकांश पैदल सेना और बख्तरबंद कोर में मौजूदा "सैनिक वर्गों" से बड़ी संख्या में भर्ती करके विस्तार किया गया था। लेकिन काफी सोचने के बाद भी यही फैसला लिया गया कि फैसला लेने का अधिकार सैनिक अफसरों के बजाय राजनीतिक नेतृत्व के पास ही रहे । यदि देखा जाए तो यह फैसला सही ही लिया गया, क्योंकि सदियों से पाकिस्तान में सैनिक अफसरों के अधिक अधिकार के कारण सेना के द्वारा ही सारे फैसले लिए जाते हैं, जो जन नागरिकों के लिए भी काफी कठोर साबित हुए हैं। जैसे भारत में धर्म और जाति पर महत्वपूर्ण निर्णय न्यायालय द्वारा लिए जाते हैं, पाकिस्तान में इन निर्णयों के लिए भी सेना आगे आती है। हालांकि, भारत पर चीन के हमले के बाद इस निर्णय पर पूर्ण विचार करने का काफी दबाव बना रहा। किंतु रक्षा मंत्रालय और भारतीय अधिकारियों द्वारा इस प्रकार की चिंताओं का समाधान करने के लिए सही हल निकाले गए। सबसे पहले, सेना के शीर्ष अधिकारियों के लगातार दबाव के बावजूद, मंत्रालय द्वारा 1947 से 1955 तक शुरू की गई कमान और नियंत्रण संरचनाओंके मुख्य तत्वों को बदलने से इनकार कर दिया गया, जैसे कि किसी एक सेना के किसी एक अधिकारी के बजाय तीन सेनाओं के समान रूप से समान सेवा प्रमुख होना और रक्षा मंत्रालय के समानांतर मंत्रालय द्वारा अनुमोदित कई महत्वपूर्ण निर्णय लेना। सरकार द्वारा भी शीर्ष जनरलों और लेफ्टिनेंट जनरलों की जातीयता में विविधता लाना जारी रखा गया और खुफिया सेवाओं के माध्यम से इन अधिकारियों पर नजर रखी गई। जैसे-जैसे समय बीतता गया, सरकार ने बढ़ती सेना के संभावित खतरे के साथ-साथ सिखों और नागाओं जैसे विशेष समूहों की वफादारी के बारे में विशिष्ट चिंताओं से निपटने के लिए कई नए उपाय भी लागू किए। सरकार की नई रणनीति यह थी कि व्यापक भारतीय आबादी को नए अर्धसैनिक बलों के साथ संतुलित किया जाए।
भारत के अर्धसैनिक बल, जिनकी संख्या चीन युद्ध से ठीक पहले 1961 में केवल 29,000 थी, एक दशक बाद बढ़कर 202,000 हो गई, तथा 1980 तक 258,000 और 1990 तक 497,000 से अधिक हो गई। हालांकि, अर्धसैनिक बलों की सेना में नियुक्ति के इस संतुलन का उद्देश्य नियमित सेना के खिलाफ प्रत्यक्ष सैन्य बचाव प्रदान करना नहीं था। देश की राजधानी नई दिल्ली में और उसके आसपास के क्षेत्रों में अर्धसैनिक बलों की नियुक्ति के कारण , जहां उनकी संख्या पैदल सेना से अधिक थी, सेना का एकमात्र नियंत्रण स्थापित नहीं हो सका, हालांकि प्रशिक्षण, उपकरण और क्षमता में, ये अर्धसैनिक बल स्पष्ट रूप से नियमित सेना से काफी कमजोर थे। अर्धसैनिक बलों का अधिक महत्वपूर्ण कार्य एक अप्रत्यक्ष बचाव प्रदान करना था, जिसे राजनीतिक रूप से कमजोर आंतरिक स्थितियों में पुलिस कर्तव्यों के लिए सेना के स्थान पर तैनात किया गया, और इस प्रकार सेना को इन भूमिकाओं से मुक्त किया गया और इसकी संभावना कम हो गई कि यह राजनीति में आ जाएगी।

संदर्भ :-
https://bit.ly/3Mkzzm2
https://bit.ly/3o6tAcn
https://bit.ly/3Mx7cCj

 चित्र संदर्भ
1. वाघा बॉर्डर पर भारत और पाकिस्तानी सेना को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr)
2. आपस में बात करते भारतीय सेना के जवानों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. पाकिस्तानी सेना के ब्रिगेडियर, जनरल अब्दुल रशीद को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)
4. भारतीय सेना के ब्रिगेडियर नवीन सिंह को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)
5. अभिनंदन समारोह में भारतीय सेना के अफसरों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)