स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा हैं, शहरों में मौजूद कचरे के बड़े ढेर

शहरीकरण - नगर/ऊर्जा
22-06-2023 10:15 AM
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स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा हैं, शहरों में मौजूद कचरे के बड़े ढेर

हमारा देश भारत सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के मामले में दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) के मामले में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ एक तेजी से बढ़ता हुआ विकासशील देश है। हमारा देश औद्योगीकरण, शहरीकरण और जनसंख्या विस्फोट में भारी उछाल का सामना कर रहा है, जिससे देश के संसाधनों पर भारी दबाव की स्थिति उत्पन्न हो रही है और अर्थव्यवस्था में गिरावट आ रही है। बढ़ती जनसंख्या और उसकी जरूरतों को पूरी करने के लिए बढ़ते औद्योगीकरण के कारण बड़ी मात्रा में अपशिष्ट उत्पन्न हो रहा है। इससे न केवल अर्थव्यवस्था का स्तर गिरता है, बल्कि हानिकारक उत्सर्जन के माध्यम से पर्यावरण और नागरिकों के स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है। अतः नगरपालिका द्वारा ठोस अपशिष्ट से जुड़ी समस्या के समाधान के लिए संसाधनों के उपयोग और पुनर्प्राप्ति पर लगातार नज़र रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। शहरीकरण के साथ हाल के वर्षों में उत्पन्न कचरे की मात्रा में भारी बदलाव आया है। इससे सरकार, स्थानीय अधिकारियों और शहरी स्थानीय निकायों पर कचरे के संग्रह, प्रसंस्करण और निपटान के प्रबंधन का बोझ भी बढ़ गया है। भारत में उत्पादित कचरे का 90% से अधिक हिस्सा लैंडफिल (Landfill) में पहुंच जाता है। भारतीय शहरों में कचरे के 3 महीने से पुराने 1854 लैंडफिल अर्थात ऐसे स्थल मौजूद हैं, जहां कूड़े के बड़े ढेर लगे हुए हैं। लैंडफिल साइटों पर मौजूद पुराना कचरा जो तीन महीने से अधिक समय तक पड़ा रहता है, उसे ‘लीगेसी डंप साइट’ (Legacy Dump Site) माना जाता है। इनमें से आधे से अधिक (लगभग 1,080), केवल पांच राज्यों में हैं। वित्तीय वर्ष 2020 में महाराष्ट्र में सर्वाधिक 320 लैंडफिल थे। इसके बाद कर्नाटक में 199 लैंडफिल थे। तुलनात्मक रूप से, दिल्ली, नागालैंड, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और चंडीगढ़ में लैंडफिल की मात्रा सबसे कम थी, इनमें से प्रत्येक राज्य में एक लैंडफिल था। यदि हमारे राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें, तो यहां लैंडफिलों की संख्या 91 हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश सबसे अधिक लैंडफिल वाले 5 राज्यों की सूची में नहीं है। लेकिन अगले 5 वर्षों में स्वच्छ भारत अभियान के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए लैंडफिल की इस संख्या को शून्य पर ले जाने की आवश्यकता है। हमारे सभी महानगर जैसे दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, कोलकाता आदि पहले से ही कचरे के बड़े और असहनीय लैंडफिल पहाड़ों के भार से जूझ रहे हैं। इन शहरों में मौजूद कचरे के बड़े ढेर स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा हैं और इनके कारण कई बार लोगों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा है। जौनपुर जैसे शहरों के लिए यह एक सबक है तथा हमें इस प्रकार की स्थिति से बचने के लिए बहुत जागरूक होने की आवश्यकता है। हर भारतीय शहर में इस तरह का कम से कम एक मानव निर्मित कचरे का पहाड़ मौजूद है जहां हमारे घरों और व्यवसायों में उत्पन्न कचरा फेंका जाता है। प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले 150,000 मीट्रिक टन शहरी ठोस कचरे का लगभग 90% हिस्सा ऐसे ही स्थानों पर जाता है। इन स्थानों को डंप यार्ड (Dump yard) या कचरा पहाड़ भी कहा जाता है। ऐसे अनेकों लोग हैं, जो इन जहरीले स्थलों के निकट रहते हैं या कार्य करते हैं। शहरों के लिए बनाए गए ‘स्वच्छ भारत मिशन’ 2021-22 के तहत सरकार द्वारा शहरों की सफाई के लिए 1,41,678 करोड़ रुपये का बजट पेश किया गया, जो यह बताता है कि सरकार शहरों की स्वच्छता के लिए चिंतित है। हालांकि, यह बजट कचरा मुक्त शहरों को प्रोत्साहित तो करता है, लेकिन इसमें उन समुदायों की स्थितियों में सुधार के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं है, जो लैंडफिल के पास रहते हैं। अधिकांश डंप यार्ड जैसे दिल्ली में भलस्वा और मुंबई में देवनारदो तीन दशक से अधिक पुराने हैं और वर्तमान में प्रतिदिन यहां क्रमशः 2,000 और 9,000 मीट्रिक टन ठोस कचरा इकठ्ठा होता है। हालांकि, कुछ क्षेत्रों में कुछ बड़े लैंडफिल पर नई और उन्नत अपशिष्ट प्रबंधन तकनीकों को अपनाया गया है, लेकिन कुछ लैंडफिल आज भी समस्याग्रस्त बने हुए हैं क्योंकि दशकों पुराने मिश्रित कचरे के अपघटन से उच्च स्तर का जल और वायु प्रदूषण होता है। ये स्थान कभी शहरों से काफी दूर हुआ करते थे, लेकिन आज इन लैंडफिलों के आसपास बस्तियों की भीड़ लगी हुई है। तीखी गंध, बार-बार लगने वाली आग और प्रदूषित भूजल इन स्थानों को और भी अधिक अस्वास्थ्यकर बनाते हैं। यहां मुख्य रूप से वे लोग रहते हैं, जो कचरा बीनते हैं तथा दैनिक वेतन भोगी हैं। इनका वेतन इतना कम है कि वे अपने इन अनिश्चित आश्रयों को छोड़ नहीं सकते हैं। यहां के दूषित वातावरण का प्रभाव इन लोगों पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। दिल्ली के भलस्वा डंप यार्ड ने प्रतिष्ठित भलस्वा झील का जहां एक बड़ा भाग घेर लिया है, वहीं झील और आसपास के भूजल को दूषित कर दिया है। मुंबई में देवनार डंप यार्ड ने इसके उत्तर और पूर्व में खाड़ियों और मैंग्रोव को दूषित कर दिया है। जवाहर नगर, हैदराबाद में स्थित मलकाराम चेरुवु टैंक, जो पहले एक सिंचाई टैंक था, अब एक जहरीले तालाब में बदल गया है। जिन क्षेत्रों में डंप यार्ड मौजूद हैं, उन क्षेत्रों के निकट स्थित भूजल के नमूनों में जहरीले दूषित पदार्थों की उच्च मात्रा पाई गई है। अर्थात यदि इस भूजल का उपयोग किया जाता है, तो यह स्वास्थ्य के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है। स्वच्छ पानी की अपर्याप्त आपूर्ति, बोतल बंद पानी की उच्च लागत और स्वच्छता की कमी के कारण इन स्थलों पर रहने वाले लोग दूषित भूजल का उपयोग करने के लिए मजबूर हैं, जिससे गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। इन स्थलों में रहने वाले अधिकतर लोग तपेदिक, अस्थमा और गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल विकारों (Gastrointestinal disorders) की उच्च घटनाओं के साथ पुरानी और गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। यहां रहने वाले निवासियों का जीवन काल छोटा हो गया है। लोग बमुश्किल 50 वर्ष तक जीवित रहते हैं और लोगों की औसत आयु मात्र 39 वर्ष हो गई है। यहां के निवासियों की आजीविका इन जहरीले लैंडफिल के साथ जुड़ी हुई है। इसमें कई छोटे बच्चे भी शामिल हैं, जो कूड़ा बीनने वालों के रूप में काम करते हैं और पुनर्चक्रण योग्य सामग्री एकत्रित करते हैं। वे जहरीली हवा में सांस लेते हैं, आग और विस्फोट का जोखिम उठाते हैं और ऐसे मानव निर्मित पहाड़ों के अस्थिर भागों के ढहने पर घायल हो जाते हैं या फिर मारे जाते हैं। हालांकि सरकारी प्राधिकरण इन स्थलों पर रहने वाले लोगों को इन स्थानों से हटाकर डंप साइटों के पास मौजूद बस्तियों को ध्वस्त तो कर देते थे, लेकिन अनियोजित और अनियमित शहरी विकास, सभी के लिए किफायती शहरी आवास की कमी, सुरक्षित आजीविका विकल्पों की कमी और अनुचित ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के मुख्य मुद्दे अनसुलझे रह जाते हैं। जिसके कारण इन लोगों के लिए आजीविका के साथ साथ रहने की समस्या भी उत्पन्न हो जाती है। और वापस इन्हें इन्हीं स्थानों पर रहने और कार्य करने के लिए मजबूर होना पड़ता है । ‘स्वच्छ भारत मिशन- शहरी 2.0’ का उद्देश्य 2026 तक सभी लीगेसी डंप साइटों को साफ करना है। किंतु अपशिष्ट प्रबंधन की समस्या के समाधान के लिए धन की कमी, केंद्र और राज्य सरकार के बीच संचार का अभाव, अपशिष्ट-से-ऊर्जा पुनर्प्राप्ति की विफलता, नियमों और विनियमों का कार्यान्वयन, अपशिष्ट प्रबंधन प्रौद्योगिकी क्षेत्र में जनशक्ति की कमी और पेशेवरों की अपर्याप्त संख्या, नई तकनीकी प्रथाओं के लिए अनुसंधान और विकास का अभाव आदि ऐसे कारक हैं, जिनकी वजह से नगरपालिका के ठोस कूड़े का प्रबंधन काफी कठिन हो गया है। अतः इन मुद्दों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।

संदर्भ:
https://rb.gy/dbc6x
https://rb.gy/xndj7
https://rb.gy/c67th
https://tinyurl.com/4uwcyzn7

चित्र संदर्भ

1. कूड़े के ढेर में खेलते बच्चे और बकरी को संदर्भित करता एक चित्रण (PIXNIO)
2. कूड़े के ढेर को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. कूड़े के ढेर में सामान चुनती युवती को दर्शाता चित्रण (pexels)
4. विशाल लैंडफिल को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. कूड़े से प्लास्टिक अलग करते बच्चे को दर्शाता चित्रण (Pixabay)
6. स्वच्छ सर्वेक्षण के पोस्टर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
7. डंप साइटों की सफाई को दर्शाता एक चित्रण (Wallpaper Flare)