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शाम-ए-अवध ने ज़ुल्फ़ में गूँधे नहीं हैं फूल। तेरे बग़ैर सुब्ह-ए-बनारस उदास है।।
-राम अवतार गुप्ता मुज़्तर
है शाम-ए-अवध गेसू-ए-दिलदार का परतव। और सुब्ह-ए-बनारस है रुख़-ए-यार का परतव।।
-वाहिद प्रेमी
सूर्य से निकलती पहली लालिमा जो गंगा के जल को छूती हुयी जब बनारस के घाटों को छूती है तो ऐसा प्रतीत होता है मनो जैसे पूरा का पूरा बनारस सूर्य की लालिमा से प्रकाशमान हो गया हो। लेखकों ने यहाँ तक भी लिखा है कि जब बनारस में सूर्य उदय होता है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे बनारस के घाट स्वर्ण के हो गए हों। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई और बनारस की सुबह का अपना ही एक अलग रिश्ता था। वहीँ लखनऊ को शाम-ए-अवध के रूप में देखा जाता है, लखनऊ के नवाबी मिज़ाज के कारण इसे रंगीन और नृत्य आदि से सराबोर प्रस्तुत किया गया है। यहाँ की गलियों में शाम के समय विभिन्न पकवान, तवायफों के नृत्य और हर जगह ख़ुशी का माहौल ऐसा लगता है मानो दुनिया की सारी उदासी लखनऊ आकर फुर्र हो गयी हो। यहाँ के इमामबाड़ा के आगे बैठ शाम का जो दृश्य निखर कर सामने आता है वह मन्त्र मुग्ध कर देने योग्य होता है। यही कारण है कि लखनऊ की शाम को शायरों ने बड़ी तल्लीनी के साथ अपनी शायरियों में स्थान दिया है। कई कहावते भी शाम-ए-अवध और सुबह-ए-बनारस पर आधारित हैं जिनमे से एक है शाम-ए-अवध को निकल जाते हो घर से और लौटते सुबह-ए-बनारस हो।
"कल भी जिसके तज़किरे थे, अंजुमन दर अंजुमन दास्ताँ दर दास्ताँ, शाम-ए-अवध है आज भी"
1. http://lucknow.me/Shaam-e-Awadh.html
2. उत्तर प्रदेश: द लैंड एंड द पीपल, सुबोध नाथ झा