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लखनऊवासियों, आज हम एक ऐसे विषय की ओर बढ़ रहे हैं, जो सुनने में गंभीर लगता है, लेकिन जिसकी जड़ें हमारे जीवन, विश्वास और भारतीय दर्शन से गहराई से जुड़ी हुई हैं - वैदिक दर्शन में मृत्यु की अवधारणा। हिंदू दर्शन में, खासकर वेदों के अनुसार, आत्मा को चिरंतन और अमर माना गया है। मृत्यु को वहां समाप्ति नहीं, बल्कि एक अवस्था-परिवर्तन के रूप में देखा गया है, जिसमें आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर को धारण करती है और अस्तित्व की निरंतरता बनी रहती है।
आज के इस लेख में हम सबसे पहले, जानेंगे कि वैदिक दर्शन मृत्यु को कैसे देखता है और क्यों आत्मा को अमर माना जाता है। इसके बाद हम महाभारत में वर्णित राजा परीक्षित की मृत्यु की प्रसिद्ध कथा पढ़ेंगे, जो मृत्यु-दर्शन को समझने में एक गहरी पृष्ठभूमि देती है। हम समझेंगे कि संस्कृत साहित्य में ‘श्लोक’ क्या होता है और इसका हमारे प्राचीन ज्ञान - परंपरा में इतना महत्त्व क्यों है। फिर हम श्लोक की छंद- रचना-गुरु-लघु, गण और लय - को सरल भाषा में जानेंगे। अंत में, हम उस भावुक घटना को पढ़ेंगे जहां क्रौंच पक्षियों के वियोग ने महर्षि वाल्मिकी के हृदय से दुनिया का पहला श्लोक जन्म दिया।
वैदिक दर्शन में मृत्यु की अवधारणा
वैदिक दर्शन के अनुसार “मृत्यु” वह नहीं है जिसे हम सामान्यतः जीवन का अंत समझ लेते हैं, बल्कि यह एक अद्भुत परिवर्तन है - एक शरीर से दूसरे शरीर की ओर आत्मा के यात्रा - क्रम का स्वाभाविक चरण। वेदों में आत्मा को अजर, अमर, अविनाशी और शाश्वत बताया गया है। शरीर को केवल एक वस्त्र कहा गया है, जिसे बदलकर आत्मा आगे बढ़ती रहती है। इसी कारण वेद बतलाते हैं कि मनुष्य शरीर नहीं, बल्कि आत्मिक चेतना है। दुनिया में लोग मृत्यु को दो दृष्टिकोणों से देखते हैं। एक दृष्टिकोण वह है जो शरीर और मस्तिष्क को ही ‘स्वयं’ मानता है - जिसमें मृत्यु का अर्थ होता है पूर्ण अंत, अंधकार या अस्तित्व का शून्य हो जाना। यह विचार अधिकतर नास्तिकों या केवल भौतिक जगत को मानने वालों में मिलता है। दूसरा दृष्टिकोण वैदिक है, जो मृत्यु को केवल जीवन - यात्रा का एक विराम मानता है - जहाँ आत्मा पुराने शरीर से निकलकर अपने कर्मों के आधार पर नए शरीर की तलाश करती है। यह दृष्टिकोण मृत्यु के भय को मिटाता है और मनुष्य को आत्मिक शांति की ओर ले जाता है।
कठोपनिषद में यमराज नचिकेता से कहते हैं — “आत्मा ना जन्म लेती है, ना मरती है। यह अनादि और नित्य है।” यह गहरा संदेश बताता है कि मृत्यु केवल बाहरी स्वरूप का परिवर्तन है, जबकि हमारा वास्तविक स्वरूप - आत्मा - अविनाशी है, और यह कभी नष्ट नहीं होती। इसलिए वैदिक विचारधारा मृत्यु को दुख का नहीं, बल्कि आत्म-यात्रा के अगले अध्याय का द्वार मानती है।

राजा परीक्षित की मृत्यु की पौराणिक कथा
महाभारत में वर्णित राजा परीक्षित की मृत्यु की कथा मृत्यु दर्शन और कर्म-फल को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। परीक्षित, अर्जुन के पौत्र और अभिमन्यु के पुत्र, एक तेजस्वी और धर्मनिष्ठ राजा थे। किंतु जीवन में एक छोटी-सी भूल भी कभी-कभी बड़े परिणाम ला सकती है - और उनके साथ भी यही हुआ।

‘श्लोक’ क्या है? — परिभाषा, संरचना और उपयोग
संस्कृत साहित्य में श्लोक को सबसे महत्वपूर्ण और प्राचीन पद्य-रूप माना गया है। यह न केवल साहित्यिक सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि आध्यात्मिक विचारों के संप्रेषण का मुख्य माध्यम भी है। रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथ लगभग पूर्ण रूप से श्लोकों में ही लिखे गए हैं।
श्लोक मुख्यतः अनुष्टुप छंद में रचा जाता है। इसकी संरचना इस प्रकार है—
लय, संतुलन और भाव - प्रवाह के कारण श्लोक स्मरणीय और मौखिक परंपरा के अनुकूल माना जाता था। इसके दो रूप प्रमुख हैं—
श्लोक केवल काव्य नहीं, बल्कि ज्ञान, उपदेश, भावना और दर्शन को सूक्ष्म रूप में व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है।
श्लोक की छंद–रचना: नियम, गण और तकनीकी संरचना
श्लोक की रचना केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि भाषिक और छंदशास्त्रीय शुद्धता का परिणाम है। इसमें प्रत्येक अक्षर, उसकी मात्रा और गतिक्रम का विशेष महत्व है।
मुख्य छंद-नियम—
इन नियमों के कारण संस्कृत श्लोकों में एक अनूठी संगीतात्मकता उत्पन्न होती है, जो सुनने वाले के मन में सहज रूप से बस जाती है। यही कारण है कि संस्कृत के श्लोक हजारों वर्षों से मौखिक परंपरा में संरक्षित रहे।

पहला श्लोक कैसे बना? — वाल्मिकी और क्रौंच पक्षियों की कथा
पहले श्लोक की उत्पत्ति एक अत्यंत मार्मिक क्षण से जुड़ी है। महर्षि वाल्मिकी एक दिन नदी किनारे घूम रहे थे। तभी उन्होंने एक प्रेमी क्रौंच पक्षी-युगल को देखा। तभी अचानक एक शिकारी ने नर पक्षी को मार डाला। मादा पक्षी का विलाप और अकेलापन देखने योग्य था - उसकी पीड़ा ने वाल्मिकी के हृदय को गहराई से स्पर्श किया। दुख और करुणा के भाव से उभरकर महर्षि के मुख से अनायास ही एक पद्य निकल पड़ा -
“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम् ॥”
इस श्लोक में एक तरफ शिकारी के प्रति कठोरता है, तो दूसरी तरफ वाल्मिकी की संवेदना, करुणा और क्रोध का मिश्रण। यही संस्कृत का पहला श्लोक माना गया-एक ऐसा श्लोक जिसने आगे चलकर रामायण की रचना की नींव रखी।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/5bdamv9f
https://tinyurl.com/4s2xufd4
https://tinyurl.com/4yzm5dnv
https://tinyurl.com/yxnukn84
https://tinyurl.com/yuk2wu65
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