
मैया मोहि मैं नहीं माखन खायो।
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायो।
अर्थ: इस दोहे में बालकृष्ण अपनी माता यशोदा से कहते हैं कि उन्होंने माखन नहीं खाया है। सुबह होते ही उन्हें गायों के पीछे मधुबन भेज दिया गया था। यह दोहा उनकी बाल लीलाओं और मासूमियत को दर्शाता है। लखनऊ के गोमती नगर, यूसुफ़नगर और अशोक नगर में स्थित भगवान श्री कृष्ण को समर्पित मंदिरों में आपने श्री कृष्ण को समर्पित भजनों को अवश्य सुना होगा। ये मंदिर पूरे दिन संत कवि सूरदास के मधुर भजनों से गुंजायमान रहते हैं, जिनकी धुन से पूरा वातावरण भक्तिमय हो उठता है। संत सूरदास, भक्ति मार्ग के महान संतों में से एक थे! उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से भगवान कृष्ण की लीलाओं, उनके दिव्य प्रेम और आध्यात्मिक शिक्षाओं को अमर बना दिया। हालांकि वह जन्म से ही नेत्रहीन थे, लेकिन उनके हृदय में ईश्वर का ऐसा दिव्य दर्शन समाहित था, जो आज भी करोड़ों भक्तों के लिए प्रेरणा बना हुआ है। सूरदास ने अपना पूरा जीवन श्री कृष्ण की स्तुति में समर्पित कर दिया। उनकी रचनाएँ, विशेष रूप से सूर सागर, में श्री कृष्ण के बाल लीलाओं, रासलीला और उपदेशों का भावपूर्ण चित्रण मिलता है। इन रचनाओं में भक्तों के हृदय में प्रेम और श्रद्धा का संचार करने की अद्भुत शक्ति है।
सूरदास का दर्शन हमें सिखाता है कि सच्ची दृष्टि, आँखों से नहीं बल्कि विश्वास और प्रेम से भरे हृदय से देखी जाती है। उनकी शिक्षाएँ आज भी लोगों को भक्ति, विनम्रता और ईश्वर के प्रति निश्छल प्रेम का मार्ग दिखाती हैं। उनके भजन न सिर्फ़ भक्तों के मन को शांति देते हैं, बल्कि जीवन के गहरे आध्यात्मिक सत्य को भी उजागर करते हैं। इसलिए आज उनकी जयंती के अवसर पर हम इस लेख में उनके जीवन, उनके काव्य दर्शन और भक्ति आंदोलन में उनके अद्वितीय योगदान को समझने का प्रयास करेंगे। साथ ही, हम उनकी रचनाओं में छिपे गहरे आध्यात्मिक संदेशों को भी जानेंगे! ये संदेश न सिर्फ़ भक्तों बल्कि विद्वानों को भी प्रेरित करते हैं।
संत सूरदास सोलहवीं शताब्दी के महान भक्ति कवि थे। उनका जन्म उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र में हुआ, जहाँ भगवान कृष्ण ने अपना बचपन बिताया था। सूरदास जन्म से ही नेत्रहीन थे, लेकिन उनकी आत्मिक दृष्टि अत्यंत दिव्य थी। बचपन में ही उन्होंने संगीत सीखना शुरू कर दिया था। उनकी मधुर आवाज़ और कृष्ण भक्ति ने उन्हें शीघ्र ही प्रसिद्ध कर दिया। सूरदास मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में से एक थे। उनके गुरु महाप्रभु वल्लभाचार्य ने उन्हें कृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी। सूरदास ने ब्रज भाषा में भगवान कृष्ण के प्रति समर्पित भक्ति काव्य की रचना की। उनकी कविताएँ सरल, मधुर और हृदय को छू लेने वाली थीं। वे अपनी रचनाओं को संगीतमय रागों में गाकर प्रस्तुत करते थे, जिससे वे भक्तों के बीच और भी लोकप्रिय हो गए।
सूरदास की भक्ति इतनी गहरी थी कि इसे परा-भक्ति कहा गया, अर्थात ऐसी भक्ति, जिसमें भक्त और भगवान के बीच कोई दूरी नहीं रहती। हालाँकि वे नेत्रहीन थे, फिर भी उनकी कविताओं में भगवान कृष्ण के बचपन और बाल लीलाओं का सजीव चित्रण मिलता है। उनकी रचनाओं में वृंदावन की गोपियों और कृष्ण की प्रेममयी छवियाँ अत्यंत भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत की गई हैं।
सूरदास के भजन आज भी भक्तों द्वारा बड़े प्रेम और श्रद्धा से गाए जाते हैं। उनकी रचनाएँ न केवल भगवान के प्रति प्रेम का अनुभव कराती हैं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं को भी स्पर्श करती हैं। उनका काव्य, भक्ति रस में डूबी हुई अमर धरोहर है, जो लोगों को ईश्वर के प्रति प्रेम और आस्था से भर देती है। सूरदास उस भक्ति आंदोलन के प्रकाश स्तंभ माने जाते हैं, जो 800 से 1700 ईस्वी के बीच भारत में फ़ला-फ़ूला। इस आंदोलन का लक्ष्य कृष्ण, विष्णु या शिव जैसे ईश्वर के प्रति प्रेम और पूर्ण समर्पण का प्रचार करना था। सूरदास की रचनाएँ न केवल हिंदू समाज में पूजनीय बनीं, बल्कि सिखों की पवित्र पुस्तक गुरु ग्रंथ साहिब में भी स्थान पाकर उनकी सार्वभौमिक स्वीकार्यता को सिद्ध करती हैं।
सूरदास भले ही नेत्रहीन थे, लेकिन उनकी आंतरिक दृष्टि दिव्य थी। उनकी कविताओं में भौतिकता से परे की आध्यात्मिक झलक मिलती है। उनके शब्दों में वह दिव्यता समाई थी, जिसे सामान्य आँखें नहीं देख सकतीं। सूरदास के लिए कृष्ण केवल एक देवता नहीं, बल्कि प्रेम और करुणा के अवतार थे। उनकी रचनाओं में बाल कृष्ण की चंचलता, मासूमियत और निश्छल प्रेम जीवंत हो उठता है। सूरदास के काव्य में कृष्ण का मानवीय पक्ष प्रमुखता से उभरता है, जिससे भक्त उनसे और अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं। सूरदास हमें सिखाते हैं कि सच्ची दृष्टि आँखों की मोहताज़ नहीं होती। यह तो आत्मा की वह अनुभूति है, जो हर कण में ईश्वर का दर्शन करती है। उनकी रचनाएँ हमें भीतर झाँककर देखने और दिव्यता को महसूस करने की प्रेरणा देती हैं।
सूरदास का दर्शन यही सिखाता है कि भक्ति वह पावन सेतु है, जो मानव को ईश्वर से जोड़ती है, सीमाओं को लांघकर दिव्यता तक पहुँचाती है। उनकी कविताओं में प्रेम, करुणा और समर्पण की शक्ति झलकती है। उनकी रचनाएँ आज भी भक्तों को ईश्वर के प्रति प्रेम और आस्था का मार्ग दिखाती हैं।
आइए अब भारतीय संस्कृति में सूरदास के योगदान को समझने की कोशिश करते हैं:
आइए अब हम सूरदास की शिक्षाओं और जीवन के लिए प्रेरक संदेशों को समझने की कोशिश करते हैं:
सूरदास की शिक्षाएँ हमें सच्चे प्रेम, निश्छल भक्ति और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का मार्ग दिखाती हैं। उन्होंने दिखावे और आडंबर से दूर रहकर, सच्चे मन से भक्ति करने को ही मुक्ति का श्रेष्ठ मार्ग बताया।
संदर्भ
मुख्य चित्र में भगवान श्री कृष्ण और संत सूरदास जी का स्रोत : Wikimedia
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