
भूस्खलन एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है, जो अचानक पहाड़ों और ढलानों पर घटित होती है और अपने साथ भारी विनाश लेकर आती है। कई बार हम समाचारों या चित्रों में देखते हैं कि लगातार बारिश के बाद पहाड़ खिसक गए, रास्ते और घर मलबे में दब गए, या फिर भूकंप से बड़ी चट्टानें टूटकर नीचे गिर पड़ीं। यह दृश्य केवल डरावना ही नहीं होता, बल्कि इंसानों की ज़िंदगी, जानवरों की सुरक्षा, खेती-बाड़ी, गाँवों की बसावट और पूरे पर्यावरण पर गहरा असर डालता है। भारत जैसे विशाल और विविध भौगोलिक स्वरूप वाले देश में भूस्खलन का खतरा हमेशा बना रहता है। उत्तर में हिमालय की ऊँची पर्वतमालाएँ, पूर्वोत्तर की हरी-भरी पहाड़ियाँ और दक्षिण में पश्चिमी घाट - ये सभी ऐसे क्षेत्र हैं जो भूस्खलन की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील माने जाते हैं। इन इलाकों में जब भूस्खलन होता है तो केवल स्थानीय लोग ही प्रभावित नहीं होते, बल्कि इसका असर पूरे देश पर पड़ता है। सड़क और रेल संपर्क टूटने से परिवहन रुक जाता है, आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हो जाती है और कई बार पर्यटन जैसी स्थानीय अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह ठप पड़ जाती है। भूस्खलन हमें यह एहसास कराता है कि प्रकृति की शक्तियाँ कितनी विशाल और प्रबल हैं। मनुष्य चाहे कितनी भी तरक्की कर ले, वह पूरी तरह इनसे सुरक्षित नहीं रह सकता। इसलिए ज़रूरी है कि हम भूस्खलन को केवल एक आपदा के रूप में न देखें, बल्कि इसे एक गंभीर चुनौती मानकर समझें और इसके बचाव के उपाय समय रहते अपनाएँ।
इस लेख में हम विस्तार से देखेंगे कि भूस्खलन वास्तव में क्या होता है और इसके प्रकार कौन-कौन से हैं। हम यह भी समझेंगे कि इसके पीछे कौन-कौन से प्राकृतिक और मानवीय कारण काम करते हैं। आगे, हम पढ़ेंगे कि भारत में कौन-कौन से क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से सबसे अधिक संवेदनशील हैं और इस आपदा का मानव जीवन और पर्यावरण पर क्या दुष्प्रभाव पड़ता है। इसके बाद हम रोकथाम और तकनीकी उपायों पर चर्चा करेंगे और अंत में जानेंगे कि भारत सरकार और विभिन्न संस्थाएँ इस समस्या से निपटने के लिए कौन-कौन से प्रयास कर रही हैं।
भूस्खलन क्या है और इसके प्रकार
भूस्खलन वह प्रक्रिया है जिसमें पहाड़ी ढलानों पर जमा मिट्टी, चट्टानें और मलबा अचानक खिसककर नीचे की ओर बह आता है। यह एक प्रकार की भू-गति है, जो प्रायः ढलानों की अस्थिरता के कारण होती है। जब मिट्टी और चट्टानों को थामकर रखने वाली प्राकृतिक शक्तियाँ कमजोर पड़ जाती हैं, तब यह घटना घटित होती है। भूस्खलन कई प्रकार के होते हैं। गिराव की स्थिति में चट्टानें सीधी नीचे गिर जाती हैं, जैसे किसी दीवार से पत्थर टूटकर नीचे आ जाए। पलटाव में बड़े पत्थर या चट्टानें आगे की ओर झुककर गिरते हैं। खिसकाव में मिट्टी या चट्टानें सतह के साथ नीचे की ओर सरकती हैं और यह भी दो प्रकार का होता है - घुमावदार खिसकाव, जिसमें ढलान का कोई हिस्सा गोलाई में घूमते हुए नीचे आता है, और सीधा खिसकाव, जिसमें मिट्टी या चट्टानें सीधे रेखीय रूप से खिसक जाती हैं। बहाव की स्थिति और भी भयावह होती है, जब कीचड़, मलबा और चट्टानें पानी के साथ मिलकर तेज़ धारा बनाते हुए सब कुछ अपने रास्ते में बहा ले जाती हैं। छोटे पैमाने पर यह हमें अक्सर समाचारों में देखने को मिलता है, वहीं बड़े स्तर पर यह पूरे गाँव या कस्बे तक को प्रभावित कर देता है। यह विविधता स्पष्ट करती है कि भूस्खलन हर बार एक जैसा नहीं होता, बल्कि इसके कई रूप और स्तर होते हैं।
भूस्खलन के प्राकृतिक और मानवीय कारण
भूस्खलन केवल प्रकृति की देन नहीं है, बल्कि कई बार मानव गतिविधियाँ भी इसे और खतरनाक बना देती हैं। प्राकृतिक कारणों में सबसे प्रमुख है भारी वर्षा। लगातार बरसात से मिट्टी में पानी भर जाता है और उसकी पकड़ ढीली हो जाती है, जिससे ढलान टूटकर नीचे आने लगता है। भूकंप धरती को हिला देते हैं और ढलानों की स्थिरता को बिगाड़ देते हैं। ज्वालामुखी विस्फोट राख और मलबे का जमाव करके मिट्टी और चट्टानों की परतों को असंतुलित कर देते हैं। दूसरी ओर, मानव की लापरवाहियाँ भी इस आपदा को बढ़ाती हैं। वनों की कटाई सबसे बड़ा उदाहरण है, क्योंकि पेड़ों की जड़ें मिट्टी को बाँधकर रखती हैं। जंगल हटने पर मिट्टी ढीली हो जाती है और हल्की सी वर्षा भी भूस्खलन को जन्म दे देती है। इसके अलावा, खनन, सड़कों का निर्माण और बिना योजना के इमारतें खड़ी करना ढलानों को कमजोर कर देता है। जलवायु परिवर्तन से अनियमित वर्षा और तूफानों की बढ़ती घटनाएँ भी इस संकट को और गंभीर बना रही हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो पानी का दबाव, मिट्टी की मजबूती और ढलान का कोण - इन तीनों का संतुलन बिगड़ना ही भूस्खलन का मूल कारण बनता है।
भारत में भूस्खलन की स्थिति और प्रभावित क्षेत्र
भारत उन देशों में से है जो भूस्खलन की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील हैं। आँकड़े बताते हैं कि हमारे देश का लगभग बारह प्रतिशत से अधिक भूभाग भूस्खलन के खतरे से प्रभावित है, जिसका सीधा अर्थ है कि लाखों लोग लगातार इस आपदा के साए में जी रहे हैं। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र उत्तर-पश्चिमी हिमालय है, जहाँ दो-तिहाई से अधिक भूस्खलन की घटनाएँ घटती हैं। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में हर वर्ष बरसात के समय सैकड़ों छोटे-बड़े भूस्खलन होते हैं। इसके बाद पूर्वोत्तर हिमालय आता है, जहाँ सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड जैसे राज्य इस आपदा से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। इन क्षेत्रों में भूस्खलन केवल गाँवों को ही नहीं, बल्कि सड़क और रेल जैसी जीवनरेखाओं को भी बाधित कर देता है। पश्चिमी घाट भी इस दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील है, जहाँ केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र में भारी वर्षा के दौरान अनेक भूस्खलन होते हैं। वर्ष दो हजार अठारह में केरल का भूस्खलन इसका ताज़ा उदाहरण है। दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश का अराकू क्षेत्र भी इस संकट से अछूता नहीं है। यह सब दर्शाता है कि भारत के लगभग सभी पर्वतीय क्षेत्रों में यह समस्या गहरी जड़ें जमाए हुए है।
भूस्खलन के दुष्परिणाम: मानव और पर्यावरणीय प्रभाव
भूस्खलन के दुष्परिणाम बेहद गहरे और त्रासदपूर्ण होते हैं। इसका सबसे बड़ा आघात सीधे मानव जीवन पर पड़ता है। अचानक हुई घटना में भारी चट्टानें और मिट्टी इतनी तेज़ी से नीचे आती हैं कि उनके सामने खड़ा कोई भी घर, वाहन या व्यक्ति पलभर में नष्ट हो जाता है। वर्ष दो हजार तेरह की केदारनाथ आपदा इसका भयावह उदाहरण है, जिसमें भूस्खलन और बाढ़ ने मिलकर हजारों लोगों की जान ली और धार्मिक धरोहर तक को नुकसान पहुँचाया। अवसंरचना भी इसकी चपेट में आ जाती है - सड़कें, पुल, रेलमार्ग, बिजली और संचार व्यवस्था पलभर में ढह जाती हैं। दो हजार अठारह का कवलप्पारा भूस्खलन (केरल) ने न केवल गाँवों को उजाड़ा, बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था पर भी गहरा आघात पहुँचाया। भूस्खलन खेती-बाड़ी पर भी सीधा असर डालता है। उपजाऊ खेत मलबे से ढक जाते हैं और किसानों की सालभर की मेहनत मिट्टी में मिल जाती है। पर्यटन स्थलों की सुंदरता नष्ट हो जाती है, जिससे स्थानीय लोगों की आजीविका प्रभावित होती है। पर्यावरणीय दृष्टि से यह पहाड़ों की बनावट बदल देता है और भूमि को बंजर बना देता है। इस प्रकार भूस्खलन का असर इंसान, समाज, अर्थव्यवस्था और प्रकृति - चारों पर समान रूप से पड़ता है।
भूस्खलन की रोकथाम और तकनीकी उपाय
भूस्खलन को पूरी तरह रोक पाना संभव नहीं है, लेकिन इसके खतरों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इसके लिए कई तकनीकी और प्राकृतिक उपाय किए जाते हैं। सबसे अहम है सतही जल निकासी की व्यवस्था, जिससे वर्षा का पानी ढलानों पर जमा न हो और मिट्टी कमजोर न पड़े। इसके साथ ही रोकने वाली दीवारें और मिट्टी को थामने की तकनीकें ढलानों को मजबूती देती हैं। नई इंजीनियरिंग (engineering) विधियाँ भी मिट्टी को बाँधकर ढलानों को स्थिर बनाती हैं। प्राकृतिक उपायों में वनीकरण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जब पहाड़ों पर पेड़ लगाए जाते हैं तो उनकी जड़ें मिट्टी को मजबूती से पकड़ लेती हैं और पानी के बहाव को रोक देती हैं। खनन और पत्थर की खदानों पर नियंत्रण, तथा सड़क निर्माण में पर्यावरण-अनुकूल तरीके अपनाना भी ज़रूरी है। खेती में मौसमी फसलों की बजाय स्थायी फलों के बाग़ लगाना ढलानों की स्थिरता बनाए रखने में मदद करता है। इन सब उपायों से भूस्खलन की गंभीरता को कम किया जा सकता है।
भारत सरकार और संस्थागत प्रयास
भारत सरकार और विभिन्न संस्थाएँ भूस्खलन से निपटने के लिए लगातार प्रयास कर रही हैं। आपदा प्रबंधन अधिनियम दो हजार पाँच के अंतर्गत राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने वर्ष दो हजार नौ में भूस्खलन प्रबंधन के दिशा-निर्देश जारी किए। वर्ष दो हजार उन्नीस में राष्ट्रीय भूस्खलन जोखिम प्रबंधन रणनीति लागू की गई, जिसमें जोखिम मानचित्रण, जन-जागरूकता, प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण पर विशेष बल दिया गया। भूस्खलन जोखिम न्यूनीकरण योजना के अंतर्गत राज्यों को आर्थिक सहायता दी जाती है ताकि वे प्रभावित क्षेत्रों में विशेष योजनाएँ चला सकें। आधुनिक तकनीक का उपयोग कर कृत्रिम बुद्धिमत्ता और सेंसर प्रणाली के आधार पर प्रारंभिक चेतावनी देने वाली व्यवस्था विकसित की गई है, जो संभावित भूस्खलन की पहले से सूचना दे सकती है। इसके अतिरिक्त भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग ने राष्ट्रीय भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्र तैयार किया है, जिसमें अत्यधिक सटीकता के साथ यह बताया गया है कि देश का कौन-सा क्षेत्र किस स्तर पर भूस्खलन के खतरे से प्रभावित है। यह आँकड़े सरकार को योजनाएँ बनाने और संवेदनशील क्षेत्रों में विकास कार्य करते समय सावधानी बरतने में मदद करते हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/5y9nwjzf
https://tinyurl.com/tcyrbw9r
https://tinyurl.com/3669dv5f
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