
लखनऊ के आसमान में उड़ान भरना अब केवल एक सफ़र ही नहीं, बल्कि एक अनुभव बन चुका है! नवाबी तहज़ीब के इस शहर में, जहां हर चीज़ में बारीकी और नज़ाकत है, वहीं हवाई यात्रा भी एक आम ज़रूरत बन गई है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जब विमान हवा में तैरता है, तो उसकी रफ़्तार और ऊँचाई कैसे मापी जाती है? जिस तरह लखनऊ की मशहूर चिकनकारी में बारीक टांकों की सटीक माप ज़रूरी होती है, ठीक उसी तरह विमान की सुरक्षित उड़ान के लिए पिटोट-स्टेटिक सिस्टम, अल्टीमीटर और जी पी एस जैसे एडवांस उपकरण अहम भूमिका निभाते हैं।
लखनऊ के चौधरी चरण सिंह हवाई अड्डे से उड़ने वाला हर विमान अपनी गति, ऊंचाई और दिशा को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न तकनीकों पर निर्भर करता है। पायलट अपनी उड़ान को सुगम बनाने के लिए जी पी एस (GPS), आर एन ए वी (Area Navigation) और डी एम ई (Distance Measuring Equipment) जैसी आधुनिक नैविगेशन प्रणालियों का इस्तेमाल करते हैं, जो उड़ान को सटीक और सुरक्षित बनाते हैं। इतना ही नहीं, हर हवाई जहाज़ में मौजूद 'ब्लैक बॉक्स' (Black Box) वह महत्वपूर्ण डेटा रिकॉर्ड करता है, जो किसी भी दुर्घटना की स्थिति में जांच के लिए बेहद ज़रूरी होता है। इसलिए आज के इस लेख में हम जानेंगे कि हवाई जहाज़ का "स्पीडोमीटर" यानी पिटोट-स्टेटिक सिस्टम (Pitot-static system) कैसे काम करता है, विमान अपनी ऊँचाई को कैसे मापते हैं और इसके पीछे की तकनीक क्या है। फिर, हम उन आधुनिक नैविगेशन सिस्टम्स की चर्चा करेंगे, जिनका इस्तेमाल पायलट उड़ान को कुशलतापूर्वक संचालित करने के लिए करते हैं। अंत में, हम ब्लैक बॉक्स की भूमिका पर नज़र डालेंगे और समझेंगे कि यह कैसे जहाज़ों की सुरक्षा को सुनिश्चित करता है।
हवाई जहाज़ में स्पीडोमीटर कैसे काम करता है?
हवाई जहाज़ और नावों में स्पीड मापने के लिए "पिटोट ट्यूब" नामक एक साधारण उपकरण का उपयोग किया जाता है। यह उपकरण हवा या पानी की गति को मापने के लिए काम आता है। पिटोट ट्यूब का आविष्कार, हेनरी पिटोट (Henri Pitot) ने 1732 में किया था। पिटोट ट्यूब में एक खुला सिरा होता है, जिसे आमतौर पर हवाई जहाज़ के पंख पर लगाया जाता है। यह सिरा हवा या पानी की दिशा में होता है। इस उपकरण का काम वायु धारा और स्थिर सेंसर के बीच दबाव का अंतर मापना होता है।
जब हवाई जहाज़ खड़ा होता है, तो दोनों ट्यूबों में दबाव बराबर होता है, और स्पीडोमीटर शून्य दिखाता है। लेकिन जब हवाई जहाज़ उड़ान भरता है, तो हवा की गति से पिटोट ट्यूब और स्टैटिक ट्यूब के बीच दबाव में अंतर आने लगता है। यह दबाव अंतर स्पीडोमीटर को गति दिखाने के लिए प्रेरित करता है।
जब हवाई जहाज़ की गति बढ़ती है, तो पिटोट ट्यूब के अंत में दबाव भी बढ़ता है। इस बढ़े हुए दबाव के कारण हवा का दबाव एक लचीले डायाफ्राम पर लगता है, जो यांत्रिक सूचक को चलाता है। इस सूचक को हवा या पानी के प्रवाह के हिसाब से समायोजित किया जाता है। आधुनिक हवाई जहाज़ों में, इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम हवा की गति को और सटीक रूप से मापने के लिए ऊंचाई और हवा के तापमान के हिसाब से भी समायोजन करते हैं। इस प्रकार, पिटोट ट्यूब का सरल सिस्टम हवाई जहाज़ की गति मापने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
विमान ऊंचाई कैसे मापते हैं?
जब कोई विमान उड़ता है, तो उसे यह जानना ज़रूरी होता है कि वह ज़मीन से कितनी ऊंचाई पर उड़ रहा है। इसके लिए पायलट अल्टीमीटर (Altimeter) नाम के एक उपकरण का इस्तेमाल करते हैं। यह उपकरण हवा के दबाव को मापकर ऊंचाई बताता है। आमतौर पर, इसे हेक्टोपास्कल (hPa) या पारे के इंच (inHg) में कैलिब्रेट किया जाता है।
लेकिन सिर्फ़ अल्टीमीटर से ऊंचाई मापना काफी नहीं होता। हमें एक डेटम (datum) यानी एक संदर्भ बिंदु की जरूरत होती है, जिससे ऊंचाई को मापा जाए।
अल्टीमीटर सेटिंग के तीन तरीके
अल्टीमीटर को सेट करने के तीन मुख्य तरीके होते हैं:
कौन किस सेटिंग का इस्तेमाल करता है ?
छोटे विमान, खासकर जो किसी हवाई अड्डे के आसपास उड़ते हैं, वे क्यू एफ़ ई (QFE) का इस्तेमाल करते हैं। इससे पायलट को पता चलता है कि वे ज़मीन से कितनी ऊंचाई पर हैं।
वाणिज्यिक विमान, जैसे यात्री जहाज़, क्यू एन एच (QNH) का उपयोग करते हैं। इससे उनकी ऊंचाई समुद्र तल से मापी जाती है, जो हवाई यातायात नियंत्रण (Air Traffic Control) के लिए ज़्यादा सुविधाजनक होता है।
क्यू एन एच के साथ समस्या क्या है?
जब विमान बहुत ऊंचाई पर उड़ते हैं, तो हवा का दबाव अलग-अलग इलाकों में बदलता रहता है। यह ऊंचाई मापने में गड़बड़ी पैदा कर सकता है। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि दो विमान उड़ रहे हैं। दोनों के अल्टीमीटर 10,000 फीट दिखा रहे हैं, लेकिन एक इलाके में हवा का दबाव 1000 hPa है और दूसरे में 1004 hPa। दबाव में इस मामूली अंतर की वजह से दूसरा विमान असल में पहले वाले से 112 फीट ज़्यादा ऊंचा होगा, जबकि दोनों को 10,000 फीट दिख रहा है!
अगर हर विमान अपने-अपने इलाके के क्यूएनएच पर चलता, तो हर किसी के लिए 10,000 फीट की ऊंचाई अलग-अलग होती। इससे हवाई यातायात नियंत्रण के लिए विमान ट्रैक करना बहुत मुश्किल हो जाता।
इस समस्या से निपटने के लिए क्यूएनएच सेटिंग का उपयोग किया जाता है। इसे फ़्लाइट लेवल (FL) कहा जाता है। उदाहरण के लिए, FL100 का मतलब होता है 10,000 फीट की ऊंचाई, लेकिन यह एक मानक दबाव (1013.25 hPa) पर आधारित होती है।
जब विमान एक निश्चित ऊंचाई से ऊपर जाते हैं, तो वे स्थानीय दबाव की बजाय मानक दबाव का उपयोग करने लगते हैं। इससे सभी विमानों के लिए एक समान ऊंचाई मापने का तरीका बन जाता है और टकराने का खतरा कम हो जाता है।
पायलट विमान को कैसे नैविगेट करते हैं?
जब भी कोई पायलट विमान उड़ाता है, तो उसे सही रास्ते पर बनाए रखने के लिए कई तरह की नैविगेशन तकनीकों का इस्तेमाल करना पड़ता है। पहले के ज़माने में पायलट नक्शे, कंपास और ज़मीन के दृश्य चिन्हों (जैसे पहाड़, नदियाँ) पर निर्भर रहते थे। लेकिन आज की आधुनिक तकनीकों ने नैविगेशन को और आसान और सटीक बना दिया है। अब पायलट जी पी एस, जड़त्वीय नैविगेशन सिस्टम और उड़ान प्रबंधन प्रणाली जैसे एडवांस टूल्स का उपयोग करते हैं।
नैविगेशन का मुख्य उद्देश्य क्या होता है?
विमान को सही दिशा में और सुरक्षित तरीके से ले जाना ही पायलट का मुख्य काम होता है। इसके लिए उन्हें हमेशा यह जानना ज़रूरी होता है कि उनका विमान इस समय कहाँ है और किस दिशा में जा रहा है।
यह जानकारी हासिल करने के लिए वे अलग-अलग उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं, जैसे:
अल्टीमीटर – विमान की ऊँचाई बताता है।
एयरस्पीड इंडिकेटर – विमान की गति दिखाता है।
वर्टिकल स्पीड इंडिकेटर – यह बताता है कि विमान कितनी तेजी से ऊपर या नीचे जा रहा है।
ये उपकरण पायलट को उड़ान के दौरान ज़रूरी जानकारी देते हैं, जिससे वे सही निर्णय ले पाते हैं।
आधुनिक पायलट केवल पुराने तरीकों पर निर्भर नहीं रहते। नई टेक्नोलॉजी ने नैविगेशन को पहले से ज़्यादा आसान और सुरक्षित बना दिया है।
आइए, अब कुछ अहम नैविगेशन सिस्टम के बारे में जानते हैं :
1. जी पी एस नैविगेशन: जी पी एस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) एक उपग्रह-आधारित नैविगेशन सिस्टम है। यह पायलट को सटीक स्थान और दिशा की जानकारी देता है। आज लगभग हर पायलट इस सिस्टम का उपयोग करता है, क्योंकि यह तेज़, विश्वसनीय और बहुत सटीक होता है।
2. आर एन ए वी (RNAV) नैविगेशन: आरएनएवी (एरिया नैविगेशन) एक उन्नत प्रणाली है जो पायलट को तयशुदा हवाई मार्गों पर निर्भर रहने की ज़रूरत को खत्म कर देती है। यह ग्राउंड-आधारित रेडियो सिग्नल या सैटेलाइट डेटा के जरिए विमान को किसी भी वांछित मार्ग पर उड़ाने में मदद करता है।
3. डी एम ई नैविगेशन: डीएमई (डिस्टेंस मेजरिंग इक्विपमेंट) एक रेडियो-आधारित नैविगेशन सिस्टम है। यह पायलट को यह बताता है कि उसका विमान ज़मीन पर स्थित डी एम ई स्टेशन से कितनी दूरी पर है। इससे पायलट को यह तय करने में आसानी होती है कि वे सही रास्ते पर हैं या नहीं।
आइए अब जानते हैं कि हवाई जहाज़ का ब्लैक बॉक्स कैसे जानकारी रिकॉर्ड करता है?
जब भी किसी विमान दुर्घटना की जांच होती है, तो “ब्लैक बॉक्स” सबसे ज़रूरी चीज होती है! यह डिवाइस विमान की उड़ान से जुड़ी हर अहम जानकारी को रिकॉर्ड करता है, जिससे दुर्घटना के कारणों को समझने में मदद मिलती है। लेकिन ब्लैक बॉक्स आखिर काम कैसे करता है? आइए, इसे आसान भाषा में समझते हैं।
1) फ़्लाइट डेटा रिकॉर्डर (FDR) क्या करता है ?
एफ़एफ़ डी आर, यानी फ़्लाइट डेटा रिकॉर्डर (Flight Data Recorder), विमान की कई अहम प्रणालियों से डेटा इकट्ठा करता है। यह उड़ान नियंत्रण, नैविगेशन सिस्टम और इंजन के प्रदर्शन से जुड़ी जानकारी रिकॉर्ड करता है। इस डेटा को एक सॉलिड-स्टेट मेमोरी डिवाइस में स्टोर किया जाता है, जिसे दुर्घटना के झटकों और आग के उच्च तापमान को सहने के लिए खास तौर पर बनाया गया है।
एफ़एफ़ डी आर की मदद से विमान की गति, ऊंचाई और उड़ान पथ को फिर से ट्रैक किया जा सकता है। इससे जांचकर्ताओं को यह समझने में मदद मिलती है कि दुर्घटना से पहले विमान में क्या हो रहा था।
2) कॉकपिट वॉइस रिकॉर्डर (CVR) कैसे काम करता है?
ब्लैक बॉक्स का दूसरा अहम हिस्सा है सी वी आर, जिसे कॉकपिट वॉइस रिकॉर्डर (Cockpit Voice Recorder) भी कहा जाता है। यह कॉकपिट में होने वाली हर आवाज़ को रिकॉर्ड करता है, जिसमें पायलटों की बातचीत, अलार्म, रेडियो संचार और बैकग्राउंड की अन्य आवाज़ें शामिल होती हैं।
ये ऑडियो रिकॉर्डिंग्स दुर्घटना की जांच में बेहद ज़रूरी होती हैं। अगर पायलटों ने किसी तकनीकी खराबी की चर्चा की हो या कोई संदिग्ध आवाज़ सुनी गई हो, तो इससे दुर्घटना के कारणों को समझने में आसानी होती है।
3) ब्लैक बॉक्स को विमान के टेल सेक्शन में क्यों लगाया जाता है?
अक्सर ब्लैक बॉक्स को विमान के पिछले हिस्से (टेल सेक्शन) में लगाया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि किसी भी दुर्घटना में विमान का यह हिस्सा सबसे ज़्यादा सुरक्षित रहने की संभावना रखता है।
ब्लैक बॉक्स को बहुत मजबूत बनाया जाता है। यह भारी टक्कर, तेज गर्मी और गहरे पानी में दबाव सहने के लिए तैयार किया जाता है। यहां तक कि अगर विमान समुद्र में गिर जाए, तब भी यह डिवाइस डेटा को सुरक्षित रखता है।
4) दुर्घटना के बाद ब्लैक बॉक्स का क्या होता है ?
किसी भी दुर्घटना के बाद ब्लैक बॉक्स को ढूंढना प्राथमिकता होती है। इसे मिलते ही जांच दल इस डिवाइस का डेटा निकालता है और फिर उसकी गहराई से जांच करता है।
एफ़एफ़ डी आर और सी वी आर से मिली जानकारी को विमान के रखरखाव रिकॉर्ड, मौसम की स्थिति और रडार डेटा के साथ मिलाकर विश्लेषण किया जाता है। इससे जांचकर्ता यह पता लगा सकते हैं कि दुर्घटना का असली कारण क्या था।
संदर्भ
मुख्य चित्र में बोइंग 737-4Q8 कॉकपिट का स्रोत : Wikimedia
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