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लखनऊ और मुद्रण कला की ऐतिहासिक यात्रा
भारत में मुद्रण कला का इतिहास केवल एक तकनीकी क्रांति नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण की कहानी है। इस कला ने न केवल शिक्षा के प्रचार-प्रसार में क्रांति लाई, बल्कि भाषाओं के विकास, जन-जागरण और सामाजिक सुधार आंदोलनों को भी गति दी। लखनऊ, एक समृद्ध सांस्कृतिक और साहित्यिक परंपरा वाला शहर, इस क्रांति का एक प्रमुख केंद्र बना। यहां से प्रकाशित ग्रंथों और समाचारपत्रों ने उर्दू भाषा को साहित्यिक और बौद्धिक पटल पर स्थापित किया। यह लेख लखनऊ की मुद्रण कला पर केंद्रित है, जिसमें मुंशी नवल किशोर के ऐतिहासिक योगदान, उर्दू प्रकाशन के विकास, मिशनरियों द्वारा भारतीय भाषाओं में मुद्रण के प्रयास और मुद्रण विरासत के संरक्षण की आधुनिक पहलों का विवरण दिया गया है। लेख अंत में अमीर-उद-दौला पुस्तकालय और 'ले प्रेस' जैसे संग्रहालय प्रयासों का उल्लेख करता है, जो लखनऊ की छपाई परंपरा को जीवंत बनाए रखने में सहायक हैं।
लखनऊ में मुद्रण कला की शुरुआत
लखनऊ में मुद्रण कला का आरंभ भारतीय उपमहाद्वीप में अंग्रेजों के प्रभाव और स्थानीय नवाबों के सांस्कृतिक प्रेम का परिणाम था। 18वीं सदी के उत्तरार्ध में जब नवाबी लखनऊ संस्कृति, संगीत, और साहित्य का केंद्र बन रहा था, तब वहाँ छपाई तकनीक धीरे-धीरे प्रवेश कर रही थी। प्रारंभिक दौर में फारसी साहित्य की पुस्तकों की नकल हाथ से होती थी, लेकिन जैसे ही उर्दू भाषा ने आम बोलचाल और साहित्य में स्थान पाया, मुद्रण की आवश्यकता और महत्ता दोनों बढ़ गईं। उस दौर में शिक्षा का प्रसार सीमित था, पर मुद्रणकला ने ज्ञान को जनसामान्य तक पहुँचाने की भूमिका निभाई। लखनऊ का पहला प्रिंटिंग प्रेस नवाबी शासन के संरक्षण में स्थापित हुआ और यहीं से छपाई की दिशा में नया अध्याय शुरू हुआ।

मुंशी नवल किशोर और एशिया का पहला आधुनिक मुद्रणालय
मुंशी नवल किशोर, जिनका जन्म 1836 में हुआ था, ने पत्रकारिता और मुद्रणकला को एक नई ऊंचाई दी। उन्होंने न केवल एक व्यवसायी के रूप में बल्कि एक सांस्कृतिक योद्धा के रूप में कार्य किया। 1858 में स्थापित उनका "नवल किशोर प्रेस" उस समय एशिया का सबसे बड़ा और आधुनिक मुद्रणालय था, जहाँ से विविध भाषाओं में ग्रंथ प्रकाशित होते थे। संस्कृत के शास्त्रीय ग्रंथ, फारसी की कविता, उर्दू की कहानियाँ, हिंदी धार्मिक साहित्य और यहाँ तक कि अरबी व्याकरण तक, सभी कुछ यहाँ से छपता था। उन्होंने मुद्रण में गुणवत्ता, विषय की विविधता और कीमत की सुलभता का अद्भुत संयोजन प्रस्तुत किया। उनकी प्रेरणा से हजारों पांडुलिपियाँ लुप्त होने से बच गईं और भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने का एक मजबूत माध्यम मिला।

उर्दू प्रकाशन का विकास और प्रमुख अखबार
लखनऊ में उर्दू भाषा का साहित्यिक और सामाजिक प्रभाव निरंतर बढ़ रहा था, और मुद्रणकला ने इसे गति दी। 19वीं सदी के मध्य में जब देश में स्वतंत्रता संग्राम की लहरें उठ रही थीं, उसी समय उर्दू अखबारों ने विचारों के संप्रेषण का महत्वपूर्ण दायित्व निभाया। ‘अवध अख़बार’, ‘अख़बार-ए-आम’, ‘तिलिस्म-ए-लखनऊ’ जैसे समाचारपत्रों ने तत्कालीन समाज, राजनीति और संस्कृति पर लेख प्रकाशित किए। ये अखबार जनता की आवाज बने और कई बार ब्रिटिश सरकार की नजरों में देशद्रोही भी कहे गए। उर्दू पत्रकारिता ने तत्कालीन सामाजिक असमानता, धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक दमन के विरुद्ध जनता को जागरूक किया। इन समाचारपत्रों के संपादक शिक्षित, निडर और बौद्धिक दृष्टि से समृद्ध व्यक्ति थे, जिनका उद्देश्य केवल समाचार देना नहीं, बल्कि जनमत निर्माण करना था।
मिशनरियों का योगदान और भारतीय भाषाओं में मुद्रण
भारतीय भाषाओं में मुद्रण की शुरुआत यूरोपीय मिशनरियों के हाथों हुई, जिन्होंने धर्म प्रचार के साथ-साथ शिक्षा को भी अपनाया। 16वीं सदी में गोवा में छपे पहले कैथोलिक कैटेकिज़्म से लेकर सेरामपुर मिशन तक, मिशनरियों ने स्थानीय भाषाओं को सीखकर उनमें बाइबिल, व्याकरण, शब्दकोश और पाठ्यपुस्तकें प्रकाशित कीं। विलियम कैरी ने बंगाली भाषा में पहली बाइबिल का अनुवाद और मुद्रण किया, जबकि रेव. झाइगेनबल्ग ने तमिल में धार्मिक ग्रंथ प्रकाशित किए। इन प्रयासों से भारतीय भाषाओं को लिपिबद्ध स्वरूप मिला और मुद्रण तकनीक में लिपि सुधार तथा टाइप कास्टिंग की दिशा में प्रगति हुई। लखनऊ में भी मिशनरियों की उपस्थिति ने आधुनिक मुद्रण मशीनों और तकनीकों के आगमन को संभव बनाया। हालांकि उनके उद्देश्य धार्मिक थे, लेकिन उन्होंने भारतीय भाषाओं के मुद्रण को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई।

मुद्रण विरासत का संरक्षण और पुनर्संस्थापन के प्रयास
मुद्रण इतिहास की धरोहर को संरक्षित रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है, विशेषकर तब जब डिजिटल युग में प्रिंट का महत्व घटता जा रहा है। लेकिन लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की विरासत को पुनर्जीवित करने के कई सार्थक प्रयास हुए हैं। 1970 में भारत सरकार द्वारा मुंशी नवल किशोर पर डाक टिकट जारी करना उनके योगदान की राष्ट्रीय मान्यता थी। 2015 में रेख़ता फाउंडेशन ने उनके द्वारा छपी सैकड़ों पुस्तकों को स्कैन कर डिजिटलीकृत किया और जनता के लिए ऑनलाइन उपलब्ध कराया। वहीं, उनके वंशजों द्वारा प्रेस की पुरानी इमारत को पुनर्स्थापित कर ‘Le Press’ नाम से नया जीवन दिया गया, जहाँ अब साहित्यिक कार्यक्रम, किताबों की पुनः छपाई और प्रदर्शनी आयोजित की जाती हैं। यह प्रयास न केवल एक ऐतिहासिक स्मृति को संजोता है, बल्कि नई पीढ़ी को इसकी महत्ता से जोड़ने का भी माध्यम है।
अमीर-उद-दौला पुस्तकालय और मुद्रण संग्रहालय
लखनऊ के हज़रतगंज क्षेत्र में स्थित अमीर-उद-दौला सार्वजनिक पुस्तकालय केवल एक वाचनालय नहीं, बल्कि इतिहास और ज्ञान की गवाही देता एक जीवंत स्मारक है। यहाँ हाल ही में एक विशेष कक्ष ‘प्रिंटिंग हेरिटेज गैलरी’ के रूप में विकसित किया गया है, जहाँ मुंशी नवल किशोर के जीवन और कार्यों से संबंधित दुर्लभ वस्तुएं जैसे – उनकी हस्तलिपियाँ, मुद्रण यंत्र, टाइपकास्टिंग ब्लॉक, प्रेस के दस्तावेज़, विज्ञापन, किताबों के पहले संस्करण आदि संग्रहित हैं। यह संग्रहालय मुद्रणकला के तकनीकी पहलुओं को भी समझाता है – जैसे हॉट मेटल प्रिंटिंग, लेटरप्रेस और स्टीरियोटाइपिंग। साथ ही यहां प्रोजेक्टर आधारित इंटरैक्टिव डिस्प्ले, ऑडियो-विजुअल प्रस्तुतियाँ और बच्चों के लिए कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं। यह संग्रहालय लखनऊ की छपाई विरासत को संरक्षित रखने के साथ-साथ नवाचार के साथ जोड़ने का भी सशक्त प्रयास है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/mptu9u4v
https://tinyurl.com/mry6hh79
https://tinyurl.com/8k5pwmp2