जब लखनऊ के निमित ने मधुमक्खियों से रच दी गांवों में आत्मनिर्भरता की मिसाल

तितलियाँ और कीट
14-07-2025 09:20 AM
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जब लखनऊ के निमित ने मधुमक्खियों से रच दी गांवों में आत्मनिर्भरता की मिसाल

लखनऊ की गलियों में जब कोई 'मधुमक्खीवाला' नाम लेता है, तो केवल एक ब्रांड का ज़िक्र नहीं होता, बल्कि एक ऐसी सोच का प्रतीक बन चुका है जिसने पारंपरिक मधुमक्खी पालन को एक नवाचारी और सामाजिक परिवर्तनकारी व्यवसाय बना दिया। उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में मधुमक्खी पालन आज एक ऐसी राह दिखा रहा है जिसमें कम लागत, पर्यावरणीय संतुलन और ग्रामीण सशक्तिकरण – तीनों एक साथ सम्भव हैं। जहाँ एक ओर यह कार्य युवाओं के लिए आजीविका का नया साधन बन रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भारत की हजारों वर्षों पुरानी परंपरा से जुड़ा हुआ है, जिसे अब नए आयाम मिल रहे हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि मधुमक्खी पालन कैसे एक पारंपरिक ज्ञान से उभरकर आज आजीविका, पर्यावरण संतुलन और ग्रामीण विकास का सशक्त माध्यम बन गया है। हम इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, मधुमक्खियों की विशेष क्षमताएँ, भारत में पाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियाँ, आर्थिक संभावनाएँ, और अंत में लखनऊ के निमित सिंह जैसे प्रेरक उदाहरणों के ज़रिए इसके सामाजिक प्रभाव को भी समझेंगे। 

भारत में मधुमक्खी पालन की ऐतिहासिक जड़ें: वेदों से आधुनिकता तक

भारत में मधुमक्खी पालन केवल आधुनिक कृषि तकनीरकों की देन नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें हमारी प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं में गहराई से जुड़ी हुई हैं। ऋग्वेद, अथर्ववेद और उपनिषदों में शहद को "मधु" के रूप में वर्णित किया गया है, जो न केवल भोजन बल्कि औषधि के रूप में भी उपयोग होता था। महाभारत में ‘मधुबन’ का उल्लेख मिलता है जहाँ कृष्ण और राधा का स्नेहिल मिलन होता था — यह स्थान शहद के वन के रूप में जाना जाता था। रामायण में भी 'मधुबन' का जिक्र है, जहां सुग्रीव शहद और फलों की खेती किया करते थे। बौद्ध ग्रंथों जैसे ‘विनयपिटक’ और ‘जातक कथाओं’ में शहद एक मूल्यवान उपहार और औषधि के रूप में वर्णित है। इतना ही नहीं, मध्य प्रदेश के भीमबेटका गुफाओं में मिले मध्यपाषाण काल के शिलाचित्रों में भी शहद संग्रहण की झलक मिलती है, जो यह दर्शाते हैं कि मनुष्य हजारों वर्षों से मधुमक्खियों से जुड़ा हुआ है।

प्राचीन अर्थशास्त्र ग्रंथों जैसे कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में मधुमोम और शहद का व्यापारिक महत्व बताया गया है। भारत की पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली — आयुर्वेद — में भी शहद को "योगवाहि" अर्थात औषधियों के प्रभाव को कई गुना बढ़ाने वाला माध्यम माना गया है। यह स्पष्ट करता है कि शहद केवल एक खाद्य सामग्री नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता का एक सांस्कृतिक और आर्थिक स्तम्भ रहा है।
भारत के कई प्राचीन मंदिरों में शहद को प्रसाद स्वरूप भी चढ़ाया जाता था। यह धार्मिक अनुष्ठानों में पवित्रता का प्रतीक माना जाता रहा है। संस्कृत साहित्य में 'मधुपर्क' नामक परंपरा थी, जिसमें आगंतुकों को शहद का मिश्रण स्वागत में दिया जाता था। इन सभी साक्ष्यों से यह सिद्ध होता है कि शहद भारतीय सभ्यता में केवल स्वाद नहीं, एक गहरी सांस्कृतिक अनुभूति है।

मधुमक्खी की अद्भुत संज्ञानात्मक क्षमताएँ: एक कीट नहीं, एक जैविक चमत्कार

मधुमक्खियाँ केवल शहद बनाने वाली कीट नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत चतुर और संरचित जीव हैं। उनमें निर्णय लेने, समस्याओं को हल करने, और जटिल सूचना साझा करने जैसी क्षमताएँ होती हैं। सबसे चमत्कारी है इनका ‘वैगल डांस’ (Waggle Dance) – यह एक नृत्य शैली है जिसके माध्यम से मधुमक्खियाँ अपने साथियों को किसी फूल या पराग स्रोत की दिशा, दूरी और गुणवत्ता की जानकारी देती हैं। एक शोध के अनुसार, मधुमक्खियाँ मानव चेहरों को पहचान सकती हैं, जो अब तक केवल स्तनधारी प्राणियों में ही देखा गया था। ये संख्या गिनने, पैटर्न समझने और यहां तक कि सीखने एवं नकल करने में भी सक्षम होती हैं। वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि मधुमक्खियाँ गणना, स्थानिक अवलोकन और अनुकरणीय योजना बनाने में दक्ष होती हैं। यहां तक कि कुछ प्रयोगों में यह पाया गया कि मधुमक्खियाँ समस्याओं को हल करने के लिए वैकल्पिक रास्तों की योजना बनाती हैं — जैसे फूल में छेद करके पराग निकालना। इतनी छोटी होने के बावजूद इनका मस्तिष्क इतना जटिल होता है कि यह मनुष्यों के समान संवाद की प्रणाली विकसित कर लेती हैं। यह न केवल जैविक बल्कि नैतिक रूप से भी हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हम इनके अस्तित्व की रक्षा के लिए क्या कर रहे हैं।

भारत में पाई जाने वाली प्रमुख मधुमक्खी प्रजातियाँ और उनका व्यवसायिक महत्व

भारत की विविध जलवायु और भू-आकृतिक विशेषताओं के कारण यहाँ छह प्रमुख प्रजातियाँ व्यावसायिक रूप से पाई जाती हैं:

  1. एपिस डोरसॅटा (Apis Dorsata) – यह 'रॉक बी' कहलाती है। अत्यधिक आक्रामक होती हैं, इन्हें पाला नहीं जा सकता। इनसे जंगलों से ही शहद एकत्र किया जाता है।
  2. एपिस लेबोरियोसा (Apis Laboriosa) – हिमालयी क्षेत्र की यह प्रजाति बड़े आकार की होती है और पर्वतीय शहद के लिए जानी जाती है।
  3. एपिस सेराना इन्डिका (Apis Cerana Indica) – यह भारतीय मूल की घरेलू मधुमक्खी है जिसे कृत्रिम बक्सों में पाला जा सकता है।
  4. एपिस फ्लोरिया (Apis Florea) – यह बौनी मधुमक्खी है, जो कम मात्रा में शहद बनाती है। इनका पालन व्यावसायिक रूप से कम किया जाता है।
  5. एपिस मेलिफेरा (Apis Mellifera) – यह यूरोपीय/इतालवी प्रजाति है जो आधुनिक बक्सा पालन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है।
  6. टेट्रागोनुला इरिडीपेनिस (Tetragonula Iridipennis) – बिना डंक वाली मधुमक्खी, जो कम शहद तो बनाती हैं परंतु परागण में अत्यंत उपयोगी होती हैं।

कम लागत में बड़ा मुनाफा: मधुमक्खी पालन की व्यावसायिक संभावनाएँ

मधुमक्खी पालन एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें केवल ₹5000 की पूंजी से भी शुरुआत की जा सकती है। इसके लिए न अधिक भूमि की आवश्यकता है और न ही भारी मशीनों की। एक बक्सा, कुछ आधारभूत उपकरण और समय का सही प्रबंधन — यही इसके मुख्य संसाधन हैं। भारत के अधिकांश किसान इस व्यवसाय को अंशकालिक रूप में करते हैं और शहद, मधुमोम, रॉयल जेली जैसे उत्पादों से अच्छा लाभ अर्जित करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह आजीविका के लिए एक सहायक साधन बनता जा रहा है। शहद की कोई निश्चित शेल्फ लाइफ नहीं होती, जिससे भंडारण की चिंता नहीं रहती। इसके अलावा, बाजार में शहद की मांग दिनों-दिन बढ़ रही है, विशेष रूप से ऑर्गेनिक और कच्चे शहद की।

सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं के माध्यम से प्रशिक्षण, बक्से, बीमा और विपणन में सहायता भी दी जा रही है। मधुमक्खी पालन अब केवल कृषि-आधारित उद्योग नहीं रहा, बल्कि यह स्मार्ट उद्यमशीलता की दिशा में भी एक कदम है। यह रोजगार सृजन के साथ-साथ जैवविविधता संरक्षण का भी साधन है।
एक मधुमक्खी बक्सा सालाना औसतन 8–10 किलो शहद दे सकता है, जिसकी बाज़ार में कीमत ₹3000 तक होती है। एक सफल पालक सालाना ₹1–1.5 लाख तक की आय अर्जित कर सकता है। बायो-फर्टिलाइज़र कंपनियाँ अब मधुमोम से बनी टिकाऊ उत्पादों की मांग कर रही हैं। ग्रामीण महिला समूह भी मधुमक्खी पालन को सामूहिक आजीविका के रूप में अपना रहे हैं।

मधुमक्खीवाला ब्रांड के निर्माता निमित सिंह: लखनऊ से राष्ट्रीय प्रेरणा तक का सफर

लखनऊ के निवासी निमित सिंह ने मधुमक्खी पालन को सिर्फ शहद उत्पादन तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे ग्रामीण सशक्तिकरण का माध्यम बना दिया। उन्होंने 2016 में ‘मधुमक्खीवाला’ नाम से ब्रांड की स्थापना की, और आज वह न केवल उत्तर भारत में, बल्कि पूरे देश में इस क्षेत्र के प्रेरणास्रोत माने जाते हैं। निमित ने इस व्यवसाय में प्रवेश करने से पहले दो वर्ष तक देश के अलग-अलग हिस्सों में भ्रमण किया, मधुमक्खी पालकों से मिले और प्रायोगिक अनुभव लिया। आज वे न केवल शहद बेचते हैं, बल्कि मोम-निर्मित दीयों के माध्यम से 250 महिलाओं को स्वावलंबन की राह भी दिखा रहे हैं। उनका चैनपुरवा गाँव, बाराबंकी, महिलाओं के रोजगार का केंद्र बन चुका है — जहाँ पिछले वर्ष दीपावली के दौरान 9 लाख दीये बनाए गए थे। निमित का मॉडल सामाजिक-आर्थिक नवाचार का एक उदाहरण बन चुका है। वे ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षण देकर उन्हें आत्मनिर्भर बना रहे हैं। उनकी दृष्टि है — “यदि मधुमक्खियाँ न हों, तो पृथ्वी पर जीवन असंभव हो जाएगा।” उनकी यह सोच उन्हें एक पर्यावरण योद्धा और सामाजिक उद्यमी दोनों की श्रेणी में ला खड़ा करती है। उनके ब्रांड ने 2023 में ₹80 लाख से अधिक का टर्नओवर हासिल किया। 'मधुमक्खीवाला' अब 120 से अधिक गाँवों में शहद आपूर्ति और प्रशिक्षण केंद्र चला रहा है। निमित ने बच्चों के लिए एक 'बी एजुकेशन' मॉडल भी शुरू किया है जो स्कूलों में पर्यावरण शिक्षा के रूप में उपयोग हो रहा है। उनकी कहानी ग्रामीण भारत के लिए आत्मनिर्भरता की मिसाल बन गई है।

 

संदर्भ-

https://tinyurl.com/26b968vy 

https://tinyurl.com/5n86eyaz 

https://tinyurl.com/n2pc65vm