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लखनऊवासियों, जलवायु परिवर्तन अब केवल ग्लेशियर के पिघलने, बारिश के बदलते पैटर्न या बढ़ती गर्मी तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह आपके और आपके परिवार की सेहत पर गहरा असर डाल रहा है। हाल के वैज्ञानिक अध्ययनों ने इस सच्चाई को उजागर किया है कि जलवायु परिवर्तन अब सीधे तौर पर बीमारियों के प्रसार को बढ़ावा दे रहा है। ज़रा सोचिए, जहां पहले मलेरिया या डेंगू जैसे रोग केवल कुछ सीमित इलाकों में पाए जाते थे, वहीं अब ये बीमारियाँ उन क्षेत्रों में भी तेज़ी से फैल रही हैं जहां कभी उनका नाम तक नहीं सुना गया था। यह परिवर्तन प्राकृतिक नहीं, बल्कि हमारी बदलती जलवायु का भयावह परिणाम है — जो लखनऊ जैसे शहरों को भी अपनी चपेट में ले रहा है।
इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे जलवायु परिवर्तन अब केवल पर्यावरण का नहीं, बल्कि मानव स्वास्थ्य का भी गंभीर संकट बनता जा रहा है। हम समझेंगे कि पारिस्थितिक असंतुलन से मच्छरों जैसे कीटों की संख्या कैसे बढ़ रही है और वे नए क्षेत्रों में संक्रामक रोग फैला रहे हैं। फिर, जानवरों के पलायन से बढ़ते क्रॉस-संक्रमण और महामारी के जोखिमों पर चर्चा करेंगे। इसके साथ ही, जलवायु बदलाव से उपजी खाद्य असुरक्षा, कुपोषण और मानसिक स्वास्थ्य संकट को भी समझेंगे। अंत में, वैज्ञानिक शोधों और सूक्ष्मजीवों की भूमिका के ज़रिए यह जानने की कोशिश करेंगे कि यह संकट कितना गहरा हो सकता है।
जलवायु परिवर्तन और मानव स्वास्थ्य के बीच गहरा होता संबंध
हाल के वर्षों में यह स्पष्ट हो गया है कि जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण की समस्या नहीं रह गई है, बल्कि यह सीधे मानव स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है। जैसे-जैसे वैश्विक तापमान बढ़ रहा है, वैसे-वैसे बीमारियों का स्वरूप और उनका प्रभाव भी अधिक जटिल और व्यापक होता जा रहा है। अत्यधिक गर्मी से थकान, डिहाइड्रेशन और हीट स्ट्रोक जैसे तत्काल प्रभावों के साथ-साथ दीर्घकालिक रूप से श्वसन तंत्र और हृदय रोगों का खतरा भी बढ़ रहा है। लखनऊ जैसे शहरों में, जहां गर्मियों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस (celsius) तक पहुंचता है, वहां बच्चों, बुज़ुर्गों और कमज़ोर इम्युनिटी वाले लोगों के लिए यह विशेष चिंता का विषय बन गया है। इसके अतिरिक्त, वातावरण में फैली प्रदूषित गैसें और सूक्ष्म कण, सांस संबंधी समस्याएं जैसे अस्थमा और ब्रोंकाइटिस को और जटिल बना रहे हैं।
इन सबके बीच, तापमान की अचानक वृद्धि, अनियमित वर्षा और प्रदूषकों की मौजूदगी ने थायरॉइड, हॉर्मोन असंतुलन और न्यूरोलॉजिकल (neurological) बीमारियों की घटनाओं में भी इज़ाफ़ा किया है। भारत के कई हिस्सों में, विशेषकर उत्तर भारत के शहरी क्षेत्रों में अस्पतालों की ओपीडी में गर्मी के महीनों में सांस संबंधी और त्वचा संक्रमण की शिकायतें बढ़ गई हैं। यह संकेत है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हमारे स्वास्थ्य प्रणाली पर सीधा और दीर्घकालिक बोझ डाल रहा है।

पारिस्थितिक असंतुलन और रोग फैलाने वाले कीटों की बढ़ती भूमिका
जलवायु परिवर्तन ने पूरे पारिस्थितिक तंत्र को असंतुलित कर दिया है। पहले जहां शिकारी और शिकार प्रजातियों के बीच एक संतुलन बना हुआ था, अब वह बिगड़ गया है। नतीजतन, रोग फैलाने वाले कीट जैसे मच्छर, टिक्स (ticks) और फ्लीज़ (flea) की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। इनकी संख्या बढ़ने का एक बड़ा कारण यह भी है कि अब उनके प्राकृतिक दुश्मन, जैसे मेंढक और चमगादड़, कम होते जा रहे हैं।
लखनऊ क्षेत्र में हाल ही में डेंगू और मलेरिया के मामलों में जो बढ़ोतरी देखी गई है, वह इसी असंतुलन की देन है। जब ये कीट नए भौगोलिक क्षेत्रों में फैलते हैं, तो वहां की मानव आबादी के पास उनके खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती। इससे संक्रमण का प्रसार तेज़ी से होता है और चिकित्सा प्रणाली पर दबाव बढ़ता है। विशेषज्ञों का मानना है कि मानसून चक्र में आई अनियमितता ने मच्छरों के प्रजनन काल को लंबा कर दिया है, जिससे इनकी आबादी नियंत्रित नहीं हो पा रही है। कई नए अध्ययन यह भी दिखा रहे हैं कि कीटों ने अपने जीवन चक्र और व्यवहार में जलवायु के अनुरूप परिवर्तन कर लिया है। साथ ही, कीटनाशकों के लगातार प्रयोग से उनमें प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित हो रही है। ये सभी कारक मिलकर जलवायु परिवर्तन को बीमारियों का मुख्य उत्प्रेरक बना रहे हैं।

प्रजातियों का पलायन, क्रॉस-संक्रमण और नई महामारियों का खतरा
जलवायु परिवर्तन के कारण जानवरों को भी अपने पारंपरिक आवासों से पलायन करना पड़ रहा है। वे जब नए क्षेत्रों में प्रवेश करते हैं, तो अपने साथ ऐसे रोगजनक तत्व भी लाते हैं जो वहां की स्थानीय आबादी के लिए नए होते हैं। इससे "क्रॉस-स्पीशीज़ ट्रांसमिशन" यानी एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में रोग का प्रसार होता है।
इस तरह के क्रॉस-संक्रमण ने इतिहास में भी बड़ी महामारियों को जन्म दिया है — उदाहरण के लिए एचआईवी (HIV),सार्स (SARS) और कोविड-19 (COVID-19) जैसी बीमारियाँ। लखनऊ जैसे क्षेत्रों में, जहां पशुपालन और मानव बस्तियां एक-दूसरे के क़रीब हैं, वहां यह खतरा और भी बढ़ जाता है।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि जैसे-जैसे वन क्षेत्र सिमटते जा रहे हैं, जंगली जानवरों और इंसानों के बीच संपर्क बढ़ रहा है, जिससे रोगों के फैलने का जोखिम भी कई गुना हो गया है। पशुओं के माध्यम से फैलने वाली बीमारियों (ज़ूनोटिक डिज़ीज़) की संख्या पिछले दो दशकों में दोगुनी हो चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में खुले में चराई, जल स्रोतों की साझेदारी, और जंगलों की कटाई इस संक्रमण चक्र को और तेज़ी से फैला रही है।

खाद्य असुरक्षा, कुपोषण और मानसिक स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन का असर
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव फसलों पर भी भारी पड़ रहा है। अत्यधिक गर्मी, असमय बारिश या लंबे सूखे के कारण खेती प्रभावित होती है, जिससे खाद्य उत्पादन घटता है। उपज की यह कमी सीधे तौर पर भोजन की उपलब्धता और गुणवत्ता को प्रभावित करती है। इसका परिणाम है—कुपोषण, विशेषकर बच्चों और गर्भवती महिलाओं में। कुपोषण न केवल शारीरिक कमजोरी लाता है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डालता है। यह अवसाद, चिंता और यहां तक कि आत्महत्या जैसे गंभीर परिणामों का कारण बन सकता है। लखनऊ जैसे शहरी और अर्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में जहां बड़ी संख्या में किसान और कृषि आधारित आबादी रहती है, वहां यह समस्या और गहराती जा रही है।
इसके अतिरिक्त, भोजन की कमी से जन्म लेने वाली सामाजिक असमानताएं और आर्थिक तनाव भी लोगों के मानसिक संतुलन को प्रभावित कर रहे हैं। छोटे किसानों में कर्ज़, फसल बीमा न मिलना और फसल बर्बादी की चिंता ने आत्महत्या के मामलों को भी बढ़ाया है। साथ ही, बच्चों में एनिमिया, विटामिन की कमी और शारीरिक विकास में रुकावट जैसे लक्षण व्यापक रूप से देखे जा रहे हैं।
संदर्भ-