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लखनऊवासियो, क्या आपने कभी सोचा है कि जिस देसावरी पान को आप बड़े चाव से खाते हैं, वही पत्ता अब धीरे-धीरे हमारी थालियों से ही नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति से भी ग़ायब होता जा रहा है? उत्तर प्रदेश के महोबा ज़िले की मिट्टी में पला-बढ़ा यह पान, अपने अनोखे स्वाद, मनभावन सुगंध और पारंपरिक औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है। लखनऊ के पान दुकानों से लेकर शादी-ब्याह की रस्मों तक, इस पत्ते की ख़ास जगह रही है। लेकिन अब यही विरासत एक गहरे संकट से जूझ रही है। इसके पीछे छिपे कारणों को जानना हर उस लखनऊवासी के लिए ज़रूरी है, जो न केवल स्वाद का प्रेमी है, बल्कि अपनी सांस्कृतिक पहचान को भी सहेजना चाहता है।
आज हम विस्तार से समझेंगे कि देसावरी पान में ऐसी क्या ख़ासियत है जो इसे बाकी किस्मों से अलग बनाती है। फिर हम जानेंगे कि महोबा में इसकी खेती की मौजूदा स्थिति क्या है और किसान किन चुनौतियों से जूझ रहे हैं। इसके बाद, हम यह जानेंगे कि यह पान आने वाले तीन–चार वर्षों में पूरी तरह कैसे लुप्त हो सकता है। अंत में, हम इस अनोखी फ़सल की अर्थव्यवस्था और इसके भविष्य को बचाने की संभावनाओं पर बात करेंगे।
देसावरी पान की अनोखी विशेषताएँ और इसके उपयोग
देसावरी पान, महोबा की उपजाऊ मिट्टी और बुंदेलखंड की विशिष्ट जलवायु की देन है। यह केवल एक चबाने योग्य पत्ता नहीं, बल्कि पारंपरिक संस्कृति, व्यावसायिक मूल्य और औषधीय महत्त्व का समृद्ध प्रतीक है। इसकी पत्तियाँ आकार में सामान्य पान से बड़ी, मोटाई में संतुलित और बनावट में चिकनी होती हैं। इनमें फ़ाइबर की मात्रा बेहद कम होती है, जिससे यह मुंह में आसानी से घुलता है और चबाने में मुलायम महसूस होता है। इसका स्वाद हल्की कड़वाहट के साथ एक मिठास लिए होता है, जो इसे विशिष्ट बनाता है। देसावरी पान की सबसे बड़ी पहचान इसकी विशिष्ट ख़ुशबू है—जो लखनऊ जैसे शहरों में पानप्रेमियों के बीच अत्यंत लोकप्रिय है। 2021 में इसे भौगोलिक संकेत (Geographical Indication - GI) टैग प्राप्त हुआ, जो न केवल इसकी गुणवत्ता की सरकारी मान्यता है, बल्कि इसे बाज़ार में अलग पहचान भी दिलाता है। इससे पहले तक जो पान सिर्फ़ परंपराओं में ही सीमित था, अब अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में भी पहचान बना रहा है।
इस पत्ते से निकाला गया तेल अत्यधिक मांग में है। इसकी एक किलो कीमत लगभग एक लाख रुपये तक जा सकती है। यह तेल कई प्रकार की आयुर्वेदिक औषधियों, त्वचा की देखभाल की वस्तुओं, मिठाइयों, पान-स्वादित चॉकलेट और आइसक्रीम में उपयोग किया जाता है। इस प्रकार, देसावरी पान न केवल स्वास्थ्यवर्धक है, बल्कि स्वाद के माध्यम से आधुनिक खाद्य उद्योग में भी जगह बना चुका है। खेती की दृष्टि से भी यह अत्यंत लाभकारी फ़सल मानी जाती है। एक बार बोने के बाद यह पौधे लगातार दो से तीन वर्षों तक फल देते हैं, जिससे किसानों को दीर्घकालिक लाभ मिलता है। इसकी मासिक कटाई किसानों को नियमित आमदनी प्रदान करती है। हालांकि, इसकी खेती में देखभाल अत्यंत आवश्यक होती है क्योंकि यह मौसम और तापमान के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती है। फिर भी, जिन किसानों ने इसकी तकनीकी समझ विकसित की है, उनके लिए यह फ़सल आज भी आत्मनिर्भरता का सशक्त माध्यम है।
महोबा में देसावरी पान की खेती की वर्तमान स्थिति और चुनौतियाँ
महोबा में देसावरी पान की खेती का गौरवशाली इतिहास अब एक गहराते संकट में तब्दील होता जा रहा है। पहले जहां इसे “सोने की चिड़िया” माना जाता था, वहीं आज यह फ़सल किसानों की आर्थिक अस्थिरता का कारण बन रही है। इसकी खेती पारंपरिक बरेजा प्रणाली में की जाती है—जो कि सूखे घास के शेड और बांस की छड़ों से तैयार संरचना होती है, जिसमें बेलें सहारे से चढ़ती हैं। यह प्रणाली पत्तियों को मौसम के दुष्प्रभाव से आंशिक सुरक्षा देती है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के मौजूदा दौर में यह अब पर्याप्त नहीं रही। बुंदेलखंड क्षेत्र पहले से ही जल संकट, ग़रीबी और बुनियादी विकास की कमी जैसी समस्याओं से जूझता रहा है। यहाँ के किसान सीमित संसाधनों में इस संवेदनशील फ़सल की देखरेख करते हैं। अधिकांश किसान या तो छोटे भूमिहीन कृषक हैं या पट्टे की ज़मीन पर खेती करते हैं, जिससे वे किसी भी प्रकार की संस्थागत सहायता या सरकारी योजना से वंचित रह जाते हैं। बैंक ऋण, सब्सिडी और बीमा योजनाएँ अक्सर ज़मीनी हकीकत से दूर रहती हैं।
इन समस्याओं के अलावा, अवैध खनन, तेज़ी से होती वनों की कटाई, और पर्यावरणीय असंतुलन ने इस क्षेत्र के जलवायु को अस्थिर बना दिया है। इससे न केवल पत्तियों की गुणवत्ता प्रभावित हुई है, बल्कि किसानों का भरोसा भी डगमगाया है। परिणामस्वरूप, कई किसान पारंपरिक खेती छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। यह स्थिति केवल एक कृषि संकट नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक संकट भी है। क्योंकि यह पत्ता उस सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ा है जिसे पीढ़ियों ने अपने जीवन का हिस्सा बनाया है—चाहे वह लखनऊ की शादियों की रसमें हों, या स्थानीय मेलों में मिठास का पान।
क्यों देसावरी पान तीन–चार साल में पूरी तरह समाप्त हो सकता है?
वर्तमान समय में देसावरी पान की सबसे बड़ी चुनौती जलवायु परिवर्तन है। यह पत्ता अत्यधिक तापमान और असामान्य बारिश के प्रति बेहद संवेदनशील है। 2023 में जब न्यूनतम तापमान 2°C तक गिरा, तब महोबा में करीब 80 प्रतिशत बेलें नष्ट हो गईं, और किसानों को अनुमानतः 1 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान झेलना पड़ा। यह एक चेतावनी है कि अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो यह फ़सल कुछ ही वर्षों में पूर्णतः समाप्त हो सकती है। एक ओर जहां केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना में इसे शामिल किया गया, वहीं ज़मीनी स्तर पर अब तक किसी भी किसान को मुआवज़ा नहीं मिला है। राजनीतिक स्तर पर भी केवल घोषणाएँ हुईं हैं—जैसे कि 2022 में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य द्वारा सहायता का आश्वासन—परंतु उस वादे का कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया।
दूसरी ओर, गुटखे और सुगंधित सुपारी की बढ़ती खपत ने पारंपरिक पान की मांग को बुरी तरह प्रभावित किया है। इससे बाजार में देसावरी पान की कीमतें और बिक्री दोनों गिर गई हैं। इसके अलावा, खेती में प्रयुक्त उपकरणों की लागत बढ़ने से इस फ़सल की लाभप्रदता कम हो गई है। इन तमाम कारणों ने किसानों को हतोत्साहित किया है। 2000 में जहाँ देसावरी पान उगाने वाले किसान लगभग 410 थे, अब उनकी संख्या में 75% की गिरावट आ चुकी है। और यदि मौजूदा रुझान जारी रहे, तो विशेषज्ञों का मानना है कि यह परंपरा तीन से चार साल के भीतर पूरी तरह विलुप्त हो सकती है।
देसावरी पान की खेती का आर्थिक पक्ष और इसके पुनरुद्धार की संभावनाएँ
कभी देसावरी पान महोबा के किसानों के लिए अंतरराष्ट्रीय निर्यात का ज़रिया था। यह पान पाकिस्तान, यूरोप और मध्य एशिया तक जाता था और इससे किसानों को सालाना 8 करोड़ रुपये तक की आय होती थी। लेकिन आज यह आंकड़ा 1.5 करोड़ रुपये से भी नीचे आ चुका है। इसी के साथ, खेती का क्षेत्रफल भी 600 एकड़ से घटकर मात्र 60 एकड़ रह गया है। इस गिरावट का कारण केवल जलवायु या सरकारी उपेक्षा ही नहीं, बल्कि बदलते बाज़ार के रुझान और निर्यात चैनलों की कमी भी है। हालांकि देसावरी पान को बचाने के लिए कुछ प्रयास हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा चलाई जा रही 'पान प्रोत्साहन योजना', जिसमें 50% तक लागत अनुदान देने की व्यवस्था है, एक सकारात्मक कदम है। परंतु यह योजना केवल ज़मीन मालिक किसानों तक सीमित है—जबकि महोबा के अधिकांश किसान पट्टे पर खेती करते हैं और इस सहायता से वंचित रह जाते हैं।
विशेषज्ञों का सुझाव है कि पान को सिर्फ़ एक चबाने योग्य उत्पाद के रूप में नहीं, बल्कि एक विविधतापूर्ण औद्योगिक कच्चा माल मानकर इससे बने उत्पादों को बाज़ार में लाना चाहिए। जैसे—पान का तेल, फ्लेवरिंग एजेंट, हर्बल उत्पाद इत्यादि। इससे किसानों को एक नई बाज़ार संभाव्यता मिलेगी, और परंपरा को भी आधुनिक संदर्भ में जीवित रखा जा सकेगा। यदि सरकार, वैज्ञानिक संस्थान और स्थानीय समुदाय मिलकर प्रयास करें, तो देसावरी पान की खेती न केवल फिर से आर्थिक रूप से मजबूत हो सकती है, बल्कि एक बार फिर से लखनऊ जैसे शहरों की शान भी बन सकती है।
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