पेंसिल से ग्रेफीन तक: लखनऊ के बचपन की पहचान ग्रेफाइट का भविष्य की ओर सफर

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पेंसिल से ग्रेफीन तक: लखनऊ के बचपन की पहचान ग्रेफाइट का भविष्य की ओर सफर

लखनऊवासियों,  क्या आपने कभी बचपन की उस पहली पेंसिल को याद किया है। क्या आपको याद है वो बचपन की पहली पेंसिल, जिसे पकड़ते ही आप दुनिया को समझने और उसे अपने शब्दों में ढालने लगे थे? अमीनाबाद, निशातगंज या रकाबगंज की किसी पुरानी स्टेशनरी की दुकान से बड़ी शिद्दत से चुनी गई वो मामूली-सी पेंसिल, जिसकी नुकीली सीसे ने आपके ख्वाबों को आकार दिया। वो पेंसिल सिर्फ एक चीज़ नहीं थी — वो एक शुरुआत थी। वो पहला औज़ार था, जिससे आपने अपने अंदर के विचारों को बाहर लाना सीखा। हममें से कई लोग उसे 'सीसा' कहते रहे, लेकिन असल में उसमें भरा होता था ग्रेफाइट — एक ऐसा खनिज, जो उस समय तो सिर्फ लिखने का ज़रिया लगता था, लेकिन आज की दुनिया में टेक्नोलॉजी का एक आधार बन चुका है। ग्रेफाइट का सफर एक पेंसिल से शुरू होकर अब स्पेस रॉकेट्स, इलेक्ट्रिक कारों की बैटरियों, सोलर पैनलों और हाई-टेक इंडस्ट्रीज़ तक पहुँच चुका है। सोचिए, जो चीज़ कभी आपकी उंगलियों के बीच खेलती थी, वही अब दुनिया के भविष्य को आकार दे रही है।

इस लेख में हम जानेंगे कि ग्रेफाइट क्या है और इसका विज्ञान में क्या महत्व है। हम चर्चा करेंगे कि कैसे यही ग्रेफाइट पेंसिल की नोक से हमारी यादों और रचनात्मकता का हिस्सा बना। फिर हम देखेंगे कि यह कैसे उद्योग, ऊर्जा और परमाणु रिएक्टरों में काम आता है। हम ग्रेफीन जैसे आधुनिक अविष्कारों की भूमिका पर भी नज़र डालेंगे। अंत में भारत में ग्रेफाइट के खनन और वैश्विक आपूर्ति में उसकी स्थिति को समझेंगे।

ग्रेफाइट का परिचय और पेंसिल से जुड़ी भावनात्मक भूमिका

ग्रेफाइट, कार्बन का एक क्रिस्टलीय और रासायनिक रूप से अत्यंत स्थिर रूप है, जिसकी विशेषता इसकी हेक्सागोनल संरचना होती है — एक ऐसी बनावट जो इसे न केवल मजबूत बनाती है, बल्कि इसे विद्युत और ऊष्मा का उत्कृष्ट संवाहक भी बनाती है। हालांकि इसकी वैज्ञानिक खूबियाँ प्रभावशाली हैं, परंतु आम आदमी के लिए ग्रेफाइट सबसे पहले उस पेंसिल में बसता है, जिससे हमने अक्षर जोड़ने और शब्दों की दुनिया में कदम रखा। लखनऊ के किसी मोहल्ले के सरकारी स्कूल में, जब कोई बच्चा पहली बार "अ आ इ ई" लिखता है, तो उसकी उंगलियों में थमी वह पेंसिल सिर्फ एक उपकरण नहीं होती — वह एक शुरुआत होती है, एक भरोसेमंद साथी, जो गिरने पर टूटता नहीं, बल्कि फिर से तेज किया जा सकता है। यही भावनात्मक जुड़ाव ग्रेफाइट को केवल एक खनिज नहीं, बल्कि हमारी स्मृतियों का हिस्सा बनाता है। यह वही साधारण-सा दिखने वाला तत्व है, जो न सिर्फ हमारी शिक्षा की नींव रखता है, बल्कि आज विज्ञान, ऊर्जा और तकनीक की ऊँचाइयों तक जा पहुँचा है।

इतिहास के आईने में ग्रेफाइट: नवपाषाण युग से आधुनिक उद्योगों तक

ग्रेफाइट का इतिहास मानव सभ्यता जितना ही पुराना है। चौथी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की मारिआ संस्कृति ने मिट्टी के बर्तनों को सजाने के लिए पहली बार इसका उपयोग किया था। यह खनिज केवल लेखन या पेंटिंग का माध्यम नहीं रहा, बल्कि इंग्लैंड के बोरोडेल क्षेत्र में 16वीं सदी में मिली ग्रेफाइट की विशाल खान ने इसे औद्योगिक महत्ता दी। यहां इसे पहले चरवाहों ने भेड़ों को चिह्नित करने में इस्तेमाल किया और बाद में तोपों के साँचे बनाने में भी। एलिज़ाबेथ युग में यह युद्ध सामग्री के निर्माण में काम आया। 19वीं सदी तक आते-आते ग्रेफाइट ने औद्योगिक उत्पादों में जैसे स्टोव पॉलिश, पेंट, रिफ्रैक्ट्री सामग्री और शैक्षिक उपकरणों में एक अहम स्थान बना लिया। लखनऊ जैसे शिक्षित और सांस्कृतिक नगरी में ग्रेफाइट का प्रवेश पेंसिलों के रूप में हुआ, जो शिक्षा की नई लहर लेकर आई। यह खनिज धीरे-धीरे एक वैश्विक औद्योगिक आधार बनता गया, लेकिन उसकी जड़ें अब भी उस मिट्टी से जुड़ी हैं जिसमें बच्चों की पहली पेंसिल बनी थी।

ग्रेफाइट के प्रमुख उपयोग: लेखन सामग्री से लेकर परमाणु रिएक्टर तक

ग्रेफाइट जितना सरल दिखता है, उसकी उपयोगिता उतनी ही गहन और विविध है। पेंसिल में कोर के रूप में इसका सबसे आम उपयोग हमें ज्ञात है, परंतु यही तत्व आज भारी मशीनरी और हाई-टेक इंडस्ट्री में अनिवार्य बन चुका है। इसका प्रयोग ग्रीस और स्नेहक के रूप में घर्षण को कम करने के लिए किया जाता है, जिससे वाहन और मशीनें अधिक कुशलतापूर्वक काम कर सकें। पेंट इंडस्ट्री में, दीवारों को सुरक्षित रखने वाले कोटिंग्स में ग्रेफाइट का मिश्रण होता है। रिफ्रैक्ट्री यानी उच्च तापमान सहन करने वाले पदार्थों में भी ग्रेफाइट का प्रयोग स्टील, कांच और फाउंड्री उद्योग में किया जाता है। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि ग्रेफाइट न्यूट्रॉन अवशोषण की अपनी क्षमता के कारण परमाणु रिएक्टरों में भी उपयोग किया जाता है, जहां यह क्रियाओं को स्थिर बनाए रखने में मदद करता है। इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में, यह बैटरियों, इलेक्ट्रोड्स और ब्रश जैसे अवयवों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लिथियम आयन बैटरियों में इसकी मात्रा लिथियम से भी कहीं अधिक होती है — जो यह दर्शाता है कि ग्रेफाइट अब ऊर्जा नवाचार की भी रीढ़ बन चुका है।

ग्राफीन-ग्रेफाइट संबंध

ग्रेफाइट आधारित ग्रेफीन: भविष्य की ऊर्जा और तकनीकी क्रांति का आधार

ग्रेफीन को वैज्ञानिक जगत में ‘सुपर मिनरल’ का दर्जा यूं ही नहीं मिला। यह ग्रेफाइट की मात्र एक परमाणु मोटी परत है, लेकिन इसकी शक्ति, लचीलापन और चालकता इतनी अधिक है कि यह ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स, निर्माण और संचार जैसे क्षेत्रों में क्रांति ला सकता है। मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा खोजे गए ग्रेफीन ने वैश्विक तकनीकी कंपनियों का ध्यान खींचा है। टेस्ला, सैमसंग जैसी अग्रणी कंपनियाँ ग्रेफीन आधारित बैटरियों पर काम कर रही हैं, जो ना केवल अधिक ऊर्जा स्टोर कर सकती हैं, बल्कि तेजी से चार्ज भी होती हैं। भारत में टाटा स्टील ने ग्रेफीन अनुसंधान की दिशा में अग्रसर होते हुए डिजिटल यूनिवर्सिटी केरल के साथ साझेदारी की है — एक ऐसा कदम जो भारत को इस क्षेत्र में वैश्विक नेतृत्व दिला सकता है। लखनऊ जैसे शहर में, जहाँ नवाचार और शिक्षा की परंपरा रही है, युवाओं और शोधकर्ताओं के लिए ग्रेफीन एक नई दिशा हो सकती है — एक ऐसा विषय जिसमें विज्ञान, ऊर्जा और आर्थिक विकास, तीनों की संभावनाएँ समाहित हैं।

भारत में ग्रेफाइट का खनन और उत्पादन परिदृश्य

भारत, ग्रेफाइट खनन में धीरे-धीरे एक सशक्त भूमिका निभा रहा है। झारखंड, ओडिशा और तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसके समृद्ध भंडार पाए जाते हैं। हालांकि वैश्विक उत्पादन में चीन अब तक शीर्ष पर रहा है, परंतु हाल के वर्षों में प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरणीय नियमों के चलते वहां की आपूर्ति में गिरावट आई है — जिससे भारत जैसे देशों के लिए एक नया अवसर खुला है। ब्राजील और मेडागास्कर भी ग्रेफाइट के बड़े उत्पादक हैं, परंतु भारत की भौगोलिक विविधता और खनिज संपन्नता इसे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में नई जगह दिला सकती है। सरकार और निजी कंपनियाँ यदि शोध और विनिर्माण में सही निवेश करें, तो यह क्षेत्र न केवल आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देगा, बल्कि उच्च गुणवत्ता वाले रोजगार भी उत्पन्न करेगा।

 

संदर्भ-

https://tinyurl.com/44cdbsdw