समय - सीमा 261
मानव और उनकी इंद्रियाँ 1054
मानव और उनके आविष्कार 829
भूगोल 241
जीव-जंतु 305
| Post Viewership from Post Date to 10- Oct-2025 (31st) Day | ||||
|---|---|---|---|---|
| City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Messaging Subscribers | Total | |
| 1826 | 88 | 8 | 1922 | |
| * Please see metrics definition on bottom of this page. | ||||
लखनऊवासियो, हमारे प्रदेश में खेती के नए-नए विकल्प खोजने की ज़रूरत अब पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई है। परंपरागत फसलों के साथ-साथ अगर किसान अतिरिक्त आय के स्रोत अपनाएं, तो उनकी आर्थिक स्थिति मज़बूत हो सकती है। इन्हीं विकल्पों में से एक है मिट्टी के केकड़ों की खेती, जो न केवल देश में, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भी बड़ी मांग रखती है। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि भारत में केकड़ा उत्पादन की स्थिति क्या है, मिट्टी के केकड़ों की आर्थिक और बाज़ार महत्ता कितनी है, कौन-कौन सी प्रमुख प्रजातियां पाई जाती हैं, खेती की कौन सी पद्धतियां सबसे प्रभावी हैं, और इसके लिए मिट्टी, पानी तथा पर्यावरण की क्या आवश्यकताएं होती हैं।
हम सबसे पहले भारत में केकड़ा उत्पादन के आंकड़े और प्रमुख राज्यों के योगदान को समझेंगे। इसके बाद मिट्टी के केकड़ों की आर्थिक और बाज़ार महत्ता पर बात करेंगे, जिससे किसानों को इसकी संभावनाएं साफ़ हो जाएंगी। फिर हम प्रमुख प्रजातियों और उनकी विशेषताओं का परिचय देंगे। चौथे भाग में खेती की पद्धतियां और तकनीकें जानेंगे, और अंत में पानी, मिट्टी और पर्यावरण की आवश्यकताओं पर चर्चा करेंगे।
भारत में केकड़ा उत्पादन की स्थिति और योगदान
भारत के तटीय और नदी किनारे के क्षेत्रों में केकड़ा उत्पादन सदियों से स्थानीय आजीविका का एक अहम हिस्सा रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर हर साल लाखों टन केकड़ों का उत्पादन होता है, जिसमें आंध्र प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्य अग्रणी स्थान पर हैं। इन राज्यों में पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक मत्स्य पालन तकनीकों का मेल केकड़ा उत्पादन को निरंतर बढ़ा रहा है। लखनऊ जैसे भीतरी और समुद्र से दूर इलाकों में यह गतिविधि अपेक्षाकृत नई है, लेकिन नियंत्रित जलाशयों, कृत्रिम तालाबों और तकनीकी सहायता से अब यहाँ भी इसका विस्तार संभव हो रहा है। मौसमी पैटर्न (pattern) के हिसाब से देखा जाए तो मानसून के बाद का समय केकड़ों की तेज़ वृद्धि और अच्छी गुणवत्ता के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है, जबकि सर्दियों में उत्पादन और पकने की गति थोड़ी धीमी हो सकती है।

मिट्टी के केकड़ों की आर्थिक और बाज़ार महत्ता
मिट्टी के केकड़े न सिर्फ़ स्वाद और पोषण के लिए मशहूर हैं, बल्कि ये घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में एक उच्च-मूल्यवान जलीय उत्पाद के रूप में पहचाने जाते हैं। भारत में इनकी मांग तटीय राज्यों के साथ-साथ महानगरों के होटलों और रेस्टोरेंट्स (restaurant) में भी तेज़ी से बढ़ रही है। निर्यात की बात करें तो सिंगापुर, मलेशिया, चीन और मध्य-पूर्व के देशों में भारतीय केकड़ों को प्रीमियम (premium) दाम पर खरीदा जाता है। किसानों और मत्स्य-पालकों के लिए यह व्यवसाय कम समय में अच्छा मुनाफा देने वाला विकल्प है, खासकर तब जब वे गुणवत्ता नियंत्रण और सही प्रजातियों पर ध्यान दें। त्योहारी मौसम, पर्यटन सीज़न और निर्यात के उच्च समय में इनकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है, जिससे यह खेती अन्य पारंपरिक मछली पालन की तुलना में अधिक लाभकारी सिद्ध होती है।

केकड़ों की प्रमुख प्रजातियां और उनकी विशेषताएं
भारत में पाए जाने वाले केकड़ों की विविधता इन्हें एक आकर्षक मत्स्य-उद्योग विकल्प बनाती है। स्काइला सेराटा (Scylla serrata) सबसे प्रसिद्ध प्रजाति है, जो बड़े आकार, तेज़ विकास दर और उच्च बाज़ार मूल्य के लिए जानी जाती है। स्काइला ट्रैंक्यूबेरिका (Scylla tranquebarica) का शरीर मजबूत और अनुकूलन क्षमता अच्छी होती है, जिससे यह विभिन्न जल परिस्थितियों में पनप सकती है। लाल पंजे वाले मिट्टी के केकड़े स्थानीय बाज़ारों में अपनी पहचान और विशिष्ट स्वाद के लिए मशहूर हैं, जबकि हरे मिट्टी के केकड़े हल्के खारे पानी में पनपते हैं और उनकी पैदावार तेज़ होती है। हर प्रजाति के लिए भोजन, पानी का तापमान और लवणता के अलग-अलग मानक होते हैं, जिन्हें समझना और पालन करना सफल खेती के लिए ज़रूरी है।
खेती की पद्धतियां और तकनीकें
केकड़ा पालन में मुख्यतः दो पद्धतियां अपनाई जाती हैं, ग्रो-आउट सिस्टम (Grow-out System) और फैटेनिंग सिस्टम (Fattening System)। ग्रो-आउट सिस्टम में छोटे आकार के केकड़ों को पालकर वयस्क और बाज़ार योग्य आकार तक पहुंचाया जाता है, जिसमें कई महीने लग सकते हैं। वहीं, फैटेनिंग सिस्टम अपेक्षाकृत तेज़ है, जिसमें कमज़ोर या दुबले केकड़ों को थोड़े समय (आमतौर पर 4–6 सप्ताह) में उच्च गुणवत्ता और वजन तक पहुंचाया जाता है। तालाब चयन में पानी का प्रवाह, ज्वार-भाटा का असर, और पर्याप्त गहराई का ध्यान रखना चाहिए। तालाब निर्माण के समय किनारों को मजबूत, पानी के रिसाव को रोकने योग्य और साफ-सफाई में आसान बनाया जाता है। नियमित सफाई, पानी की गुणवत्ता की निगरानी और भोजन प्रबंधन इन तकनीकों की सफलता की कुंजी है।

पानी, मिट्टी और पर्यावरणीय आवश्यकताएं
मिट्टी के केकड़ों की अच्छी पैदावार के लिए पर्यावरणीय परिस्थितियां बेहद महत्वपूर्ण हैं। चिकनी और पोषक तत्वों से भरपूर मिट्टी में ये सबसे अच्छा विकास करते हैं। पानी की गुणवत्ता में खारे और मीठे पानी का संतुलन बनाए रखना ज़रूरी है, ताकि इनके प्राकृतिक आवास की नकल की जा सके। आदर्श पीएच (pH) स्तर 7.5–8.5 होना चाहिए और तापमान 25–32°C के बीच रहना चाहिए। ज्वार-भाटा नियंत्रण से पानी में पोषक तत्वों और ऑक्सीजन (oxygen) का स्तर संतुलित रहता है। इसके अलावा, रोगजनकों और परजीवियों से बचाव के लिए समय-समय पर पानी का परीक्षण और जैव-सुरक्षा उपाय अपनाना भी अनिवार्य है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2t3j529r