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लखनऊवासियो, आपने अक्सर देखा होगा कि लोग अपने शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत ध्यान देते हैं - अच्छा खाना, नियमित व्यायाम, डॉक्टर की जाँच आदि - लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के मामले में उतनी गंभीरता नहीं दिखाई जाती। जबकि सच्चाई यह है कि मानसिक स्वास्थ्य भी हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का उतना ही अहम हिस्सा है, जितना कि शारीरिक स्वास्थ्य। अगर मन अस्वस्थ है, तो व्यक्ति न केवल भीतर से टूटता है, बल्कि इसका असर उसके परिवार, रिश्तों, समाज और कार्यस्थल पर भी गहराई से पड़ता है। मानसिक विकार धीरे-धीरे आत्मविश्वास को कम कर देते हैं, तनाव और अवसाद को बढ़ाते हैं और व्यक्ति की कार्यक्षमता और निर्णय क्षमता को भी प्रभावित करते हैं। भारत जैसे देश में यह समस्या और भी गंभीर रूप ले लेती है, क्योंकि यहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ पहले से ही भारी दबाव में हैं। आँकड़े बताते हैं कि हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा किसी न किसी मानसिक विकार से प्रभावित है, लेकिन इसके बावजूद लोग इसके बारे में खुलकर बात करने से हिचकिचाते हैं। इसका एक मुख्य कारण समाज में फैला कलंक और जागरूकता की कमी है। लोग मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं को गंभीर बीमारी के रूप में देखने के बजाय अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं या इसे व्यक्तिगत कमजोरी मानते हैं। इसीलिए हर साल 10 अक्टूबर को पूरी दुनिया में विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (World Mental Health Day) मनाया जाता है। यह दिन हमें याद दिलाने के लिए समर्पित है कि मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल कोई विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्य आवश्यकता है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम न केवल अपने मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखें, बल्कि अपने परिवार और समाज में भी मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाएँ, ताकि एक स्वस्थ, समर्थ और खुशहाल समाज का निर्माण किया जा सके।
आज हम सबसे पहले जानेंगे कि मानसिक स्वास्थ्य क्यों शारीरिक स्वास्थ्य जितना ही ज़रूरी है और भारत में इसकी वर्तमान स्थिति क्या है। फिर हम देखेंगे कि भारतीय कार्यबल किस तरह मानसिक विकारों के बोझ से प्रभावित है और हालिया सर्वेक्षण हमें इसके बारे में क्या बताते हैं। इसके बाद हम मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पारिस्थितिकी तंत्र की चुनौतियों पर चर्चा करेंगे - जागरूकता की कमी, लक्षणों की पहचान में कठिनाई और समाज में फैला कलंक। फिर हम कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के आर्थिक और सामाजिक प्रभावों को समझेंगे। अंत में, हम उन समाधानों और आगे की राह पर नज़र डालेंगे जिनसे मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने और इसे सुरक्षित बनाए रखने में मदद मिल सकती है।
मानसिक स्वास्थ्य का महत्व और भारत में इसकी स्थिति
मानसिक स्वास्थ्य हमारे समग्र स्वास्थ्य का एक अभिन्न और अनिवार्य हिस्सा है। यह केवल हमारी सोच और भावनाओं को ही नहीं, बल्कि हमारे व्यवहार, निर्णय लेने की क्षमता और कामकाज के प्रदर्शन को भी सीधे प्रभावित करता है। अगर शरीर पूरी तरह स्वस्थ हो लेकिन मन अस्वस्थ हो, तो व्यक्ति न तो जीवन का आनंद ले सकता है और न ही किसी क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन कर पाता है। यही वजह है कि मानसिक स्वास्थ्य को शारीरिक स्वास्थ्य के बराबर महत्व दिया जाना चाहिए। विश्व स्तर पर मानसिक विकार आज भी बीमारी के बोझ के प्रमुख कारणों में से एक हैं। भारत की स्थिति और भी चिंताजनक है क्योंकि यहाँ वैश्विक मानसिक विकार बोझ का लगभग 15% हिस्सा पाया जाता है। इसका मतलब है कि हर सातवाँ से आठवाँ व्यक्ति किसी न किसी मानसिक समस्या से जूझ रहा है। आँकड़ों के अनुसार, देश की लगभग 14% आबादी किसी न किसी मानसिक विकार से प्रभावित है, और यह संख्या लगातार बढ़ रही है। 1990 के बाद से मानसिक विकारों का बोझ लगभग दोगुना हो गया है। यह स्थिति स्पष्ट करती है कि मानसिक स्वास्थ्य को नजरअंदाज़ करना केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि समाज और देश के भविष्य के लिए भी बेहद ख़तरनाक साबित हो सकता है।
भारतीय कार्यबल और मानसिक विकारों का बढ़ता बोझ
भारत का कार्यबल, जिसे देश की आर्थिक रीढ़ कहा जाता है, आज मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से गंभीर रूप से प्रभावित है। नौकरी का दबाव, लंबे कार्य घंटे, आर्थिक असुरक्षा और कोविड-19 जैसी परिस्थितियों ने इस बोझ को और बढ़ा दिया है। डेलॉयट (Deloitte) के सर्वेक्षण "कार्यस्थल में मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण" से यह तथ्य सामने आया कि पिछले वर्ष 80% भारतीय कर्मचारियों ने किसी न किसी रूप में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना किया। इनमें से 33% कर्मचारियों ने खराब मानसिक स्वास्थ्य के बावजूद काम करना जारी रखा, जिससे उनका प्रदर्शन प्रभावित हुआ। वहीं 29% लोगों को समय निकालकर काम से दूर रहना पड़ा और 20% कर्मचारियों को अपने मानसिक स्वास्थ्य को संभालने के लिए नौकरी ही छोड़नी पड़ी। यह केवल आँकड़े नहीं हैं, बल्कि इस बात का प्रमाण हैं कि मानसिक स्वास्थ्य की समस्या अब व्यक्तिगत मुद्दा भर नहीं रही, बल्कि एक संगठनात्मक और सामाजिक चुनौती बन चुकी है। जब इतने बड़े पैमाने पर कार्यबल इससे प्रभावित होता है, तो देश की उत्पादकता और अर्थव्यवस्था पर इसका असर होना स्वाभाविक है।

मानसिक स्वास्थ्य संबंधी पारिस्थितिकी तंत्र की चुनौतियाँ
भारत में मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने की राह में कई गहरी और जटिल चुनौतियाँ हैं। सबसे पहली और बड़ी समस्या है - जागरूकता की कमी। आम लोगों को यह तक स्पष्ट नहीं है कि मानसिक स्वास्थ्य वास्तव में क्या होता है, मानसिक बीमारियाँ किन रूपों में सामने आती हैं और उनका इलाज किस तरह से किया जाता है। दूसरी चुनौती है लक्षणों की पहचान करना। अवसाद, चिंता या तनाव जैसी स्थितियों को अक्सर सामान्य मूड स्विंग (mood swing) या थकान मान लिया जाता है। इस कारण लोग समय रहते उपचार नहीं करा पाते और समस्या गहरी होती जाती है। तीसरी और सबसे बड़ी बाधा है - समाज में फैला कलंक और भेदभाव। मानसिक बीमारी को स्वीकार करना आज भी कई लोगों के लिए कठिन है। अक्सर मरीजों को डर रहता है कि अगर वे अपनी समस्या साझा करेंगे, तो उन्हें "कमज़ोर" या "अयोग्य" न समझा जाए। यह कलंक और सामाजिक दबाव मानसिक स्वास्थ्य विकारों की स्वीकृति और सक्रिय देखभाल की मांग को बुरी तरह बाधित करता है। परिणामस्वरूप, लोग चुपचाप पीड़ा झेलते रहते हैं और स्थिति बिगड़ती जाती है।

कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य की आर्थिक और सामाजिक लागत
मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएँ केवल व्यक्ति के जीवन तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि कार्यस्थल और संगठन के स्तर पर भी भारी असर डालती हैं। जब कर्मचारी तनाव, चिंता या अवसाद जैसी समस्याओं से जूझते हैं, तो उनकी उत्पादकता में गिरावट आती है, ध्यान भटकता है और निर्णय लेने की क्षमता कमजोर हो जाती है। साथ ही, काम से अनुपस्थिति बढ़ जाती है, जो संस्थानों के लिए सीधा नुकसान साबित होती है। डेलॉयट के अध्ययन में यह सामने आया कि खराब मानसिक स्वास्थ्य के कारण भारतीय नियोक्ताओं को हर साल लगभग 14 बिलियन (billion) अमेरिकी डॉलर का नुकसान होता है। यह आंकड़ा दिखाता है कि समस्या कितनी गहरी और व्यापक है। लेकिन आर्थिक नुकसान से परे, इसका असर सामाजिक और पारिवारिक जीवन पर भी पड़ता है। रिश्तों में तनाव बढ़ता है, परिवार के सदस्यों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है और व्यक्ति धीरे-धीरे अलग-थलग पड़ सकता है। इस प्रकार, मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी केवल व्यक्तिगत परेशानी नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक दोनों स्तरों पर गंभीर परिणाम देती है।

मानसिक स्वास्थ्य समाधान और आगे की राह
इस चुनौती से निपटने के लिए हमें कई स्तरों पर ठोस कदम उठाने होंगे। सबसे पहले, संगठनों और कंपनियों के नेताओं को आगे आकर कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी होगी। कार्यस्थल पर एक ऐसा माहौल तैयार करना ज़रूरी है जहाँ लोग बिना झिझक अपनी मानसिक समस्याओं के बारे में बात कर सकें और उन्हें आवश्यक सहयोग और काउंसलिंग (counseling) मिल सके। दूसरा बड़ा कदम है - जागरूकता बढ़ाना। लोगों को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में सही जानकारी और शिक्षा देना ज़रूरी है ताकि वे लक्षणों को पहचान सकें और समय रहते उपचार ले सकें। इसके लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। तीसरा, मानसिक स्वास्थ्य साक्षरता के साथ-साथ नियमित रूप से काउंसलिंग और सपोर्ट सिस्टम (court system) उपलब्ध कराना भी बेहद अहम है। कर्मचारियों को यह महसूस होना चाहिए कि उनका संगठन उनके मानसिक स्वास्थ्य की परवाह करता है। अंत में, हर साल 10 अक्टूबर को मनाया जाने वाला "विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस" हमें यह याद दिलाता है कि मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा और सुधार कोई विकल्प नहीं, बल्कि हर व्यक्ति और संगठन की प्राथमिक ज़िम्मेदारी है। यदि हम इन पहलुओं को गंभीरता से अपनाएँ, तो न केवल व्यक्तिगत जीवन बेहतर होगा, बल्कि समाज और देश की सामूहिक सेहत और उत्पादकता भी मज़बूत होगी।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/3rbxwefr