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जैसे हमने पिछले लेख में जाना कि कुरान को अनेकों भाषाओं में लिखा गया है, तो अब यह अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है कि भाषाओँ के मिश्रण और अलग भाषाओं के प्रयोग से किसी भी पुस्तक के अर्थ पर क्या-क्या प्रभाव पड़ेगा। यदि भाषाओँ पर नजर डाली जाए तो उर्दू और फारसी में कुरान को बड़ी संख्या में पढ़ा जाता है। उर्दू और फ़ारसी एक संशोधित पश्तो-अरबी लिपि का इस्तेमाल करती है| अरबी एक यहूदी भाषा है जबकि उर्दू और फारसी इंडो-यूरोपीय भाषाएं हैं| पर्शिया (फारस) में इस्लाम आने के बाद, फ़ारसी भाषा ने अरबी लिपि के एक नए संस्करण को अपनाया; और इस वजह से फ़ारसी लिपि में कुछ और अक्षर भी आ गए। अरबी बोलते वक़्त गले से ध्वनि निकालनी पड़ती है या गले का ज़्यादा इस्तेमाल करना पड़ता है, मगर फ़ारसी बोलते वक़्त गले पे ज़ोर नहीं लगता है| फ़ारसी भाषा में कुछ अक्षरों के आजाने से बहुत बदलाव हुए हैं जैसे -
*स्वाद सीन में बदल गया|
*अयीन लगभग अलिफ़ की तरह सुनाई देने लगा|
*घायन गाफ़ का एक हल्का संस्करण बन गया|
*ज़्वाद, ज़ाल और ज़ौय ज़ायन बन गए|
*तोय ते बन गया|
फ़ारसी और अरबी दोनों ही भाषाएँ इस्लाम द्वारा एकजुट हैं और इसीलिए दिखने में वे काफी एक जैसी होती हैं परन्तु पढ़ते वक़्त अरबी की ध्वनि गले से निकलती है जबकि फारसी की नहीं|
उर्दू एक ऐसी भाषा है जो भारत में मुग़ल साम्राज्य के दौरान शुरू हुई| मुग़ल उस दौरान भारत और अपने क्षेत्रों में हिन्दुस्तानी भाषा का उपयोग करते थे| उर्दू भाषा फ़ारसी और हिन्दुस्तानी संस्कृत के मिश्रण से बनी है, और इसी वजह से उर्दू और फ़ारसी में काफ़ी सामानता है| एक तरह से कहा ja सकता है कि जो व्यक्ति उर्दू पढ़ सकता है वह फारसी और अरबी भी पढ़ सकता है लेकिन अरबी के उच्चारण के समय गले से निकलने वाली आवाज़ों में थोड़ी दिक्कत आ सकती है|