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                                            लखनऊ शहर को अपनी वास्तुकला के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। यहां के अनेक प्रवेश-द्वारों पर उत्कीर्णित किया गया मछली का जोड़ा यहां की वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। यहां प्रवेश करते ही ऐसा प्रतीत होता है जैसे मछलियों का यह जोड़ा आगंतुकों का स्वागत कर रहा हो। मछली सौभाग्य, समृद्धि, उर्वरता और स्त्रीत्व का एक सार्वभौमिक प्रतीक है। इन दोनों मछलियों में से एक को मादा तथा एक को नर के रूप में चिह्नित किया गया है। बौद्ध धर्म में भी मछलियों के इस जोड़े को सुख, स्वतंत्रता, और शांति का प्रतीक माना जाता है।
इन मछलियों की उत्पत्ति निश्चित रूप से माही-मरातीब से हुई, जिसे मुगलों द्वारा अपने सैनिकों के विशेष प्रदर्शन के सम्मान में पुरस्कार स्वरूप दिया जाता था। पहले यह मछली सिर्फ एक थी किंतु जब अवध के राज्यपाल नियुक्त किये जाने के बाद नवाब सआदत खान बुरहान-उल-मुल्क लखनऊ से फर्रुखाबाद जाते समय गंगा नदी को पार करने लगे तो दो मछलियाँ उनकी गोद में जा गिरीं। नवाब ने इसे अच्छा शगुन माना और सौभाग्य की इन दो मछलियों को वापस लखनऊ ले आये और तब से अवध के इतिहास में इन मछलियों का स्वर्ण युग शुरू हुआ।
मछली के इस जोड़े को प्रतीक के रूप में जाना जाने लगा। नवाब वाजिद अली शाह के शासन के दौरान ये मछलियाँ जल परी में बदल गईं और प्रतीक के रूप में इनका उपयोग हर वस्तु, जैसे- कपड़ों, फलों के कटोरों, प्लेटों (Plates), गुलदानों में सजावटी कला के तौर पर किया जाने लगा। यहां तक कि हथियार को भी मछली की आकृति से सजाया गया। ये दो मछलियां उत्तर प्रदेश की राजकीय प्रतीक हैं, जिन्हें आमतौर पर अयोध्या की प्राचीन इमारतों में देखा जा सकता है। माना जाता है कि क्योंकि लखनऊ अवध की पूर्ववर्ती राजधानी थी इसलिए मछलियों के इस प्रतीक को वहीं से लखनऊ लाया गया था। ऐसा कहा जाता है कि यह प्रतीक सबसे पहले कोरियाई शाही परिवार द्वारा बनाया गया था, जो कि हमारे समाज के एकीकृत होने से पहले लखनऊ द्वारा अपना लिया गया। किंतु इसे समझने के लिए अवध और कोरियाई शाही परिवार के बीच सम्बंध को समझना आवश्यक है।
कोरिया के लोगों का ऐसा विश्वास है कि अयोध्या और कोरिया के बीच संबंध आधुनिक नहीं बल्कि प्राचीन हैं। माना जाता है कि 48वीं इस्वी में अयोध्या की राजकुमारी जिन्हें सूरीरत्ना कहा जाता था, कोरिया गयीं जहां उन्होंने राजकुमार किमसूरो से विवाह कर लिया और उनका नाम हियो हवांग ओक हो गया। कोरिया जाने के लिए राजकुमारी ने जल मार्ग का उपयोग किया तथा साथ में अयोध्या से एक पत्थर भी ले गईं, जिसने पानी के उफान को शांत करने और नाव को स्थिर रखने में मदद की। यह पत्थर केवल भारत में ही पाया जाता है, जो इस बात का प्रमाण है कि राजकुमारी कोरिया गयी थीं। चीनी कथाओं के अनुसार अयोध्या के राजा को रात में स्वप्न आया था, जिसमें उन्हें एक संदेश मिला कि राजकुमारी का विवाह कोरिया के राजकुमार किमसूरो से करा दिया जाये। राजकुमारी ने कोरिया में किमसूरो से शादी कर विशाल कारा वंश को जन्म दिया। राजकुमारी जिस पत्थर को अपने साथ ले गयी थीं, उसे राजकुमारी के मरने के बाद उनकी कब्र पर रखा गया था जो आज भी वहां मौजूद है। वैसे तो इस कहानी का कोई साक्ष्य नहीं है लेकिन पुरातत्व अधिकारियों ने कुछ ऐसे सबूत दिए हैं, जो अयोध्या और कोरिया की सभ्यताओं के मेल को दर्शाते हैं। राजा सूरो के शाही मकबरे के द्वार पर भी इन्ही जुड़वा मछली के चिह्न को देखा जा सकता है। यही चिह्न अवध राज्य के प्रतीक के रूप में भी दिखाई देता है। काया साम्राज्य का यह प्रतीक अयोध्या में मिश्रा शाही परिवार के प्रतीक के ही समान है, जिसमें इन दो मछलियों को उत्कीर्णित किया गया है। ये सभी साक्ष्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि कोरिया और अयोध्या के बीच सांस्कृतिक संबंध था।