चिकनकारी का वास्तविक अर्थ कपड़ो कि सुई से कढाई को कहा जाता है। यह कला भारत के प्राचीनतम कपड़ा सिलने कि कलाओं मे से एक है।
इसका प्राचीनतम काल ३सरी शती ई. पू. माना जा सकता है। कुछ तथ्यों व वर्णित लेखो के अनुसार मेगस्थनीज के लिखे दस्तावेजों मे भारत मे होने वाले सुई के फूलदार सिलाई का विवरण मिलता है। अजंता कि भित्तिचित्रों मे भी चिकनकारी के साक्ष्य मिलते हैं।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय के अनुसार “राजा हर्ष को सफ़ेद मुस्लिन कपड़े पसंद थे जिनपर कुछ बनावटों कि कढाई कि गयी हो और धागे का रंग भी सफ़ेद ही हो"। हर्ष का समय काल ७ वीं ईसवी है। इन साक्ष्यों के अनुसार भारत मे चिकनकारी का प्रचालन बहोत पहले से था परन्तु मुग़ल काल मे इस कला का विकास अभूतपूर्व रूप से हुआ।
मुग़लकालीन दस्तावेजों को आधार बनाया जाये तो यह पता चलता है कि इस कला का सर्वप्रथम नूरजहाँ ने प्रयोग किया था तथा उसी समय से इस कला का विकास एवं विस्तार हुआ। लखनऊ मे चिकनकारी के उद्योग का आधार बनाया गया तथा यहाँ चिकनकारी को एक महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त हुआ। यह कला यहाँ पर विस्तृत व पूर्ण रूप से रच व बस गयी।
आज वर्तमान समय मे यह कला विश्व भर मे प्रसिद्ध है। चिकनकारी उद्योग आज करीब ८०००० लोगों को रोजगार मुहैया करा रहा है। लखनवीं चिकन कि आज विश्व भर के बाजारों मे बहोत बड़ी मांग है।
1. एशियन एम्ब्रायडरी: जसलीन धमीजा