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                                            अक्सर कहा जाता है की "ईश्वर को किसी ने नहीं देखा है!" परंतु यदि ऐसा है तो यह प्रश्न भी
उठता है की, हमारे घरों अथवा मंदिरों में जो ईश्वर की मूर्तियां अथवा छवियां दिखाई देती है,
वह कहां से आई? इसका जवाब बेहद आसान है! दरअसल धार्मिक ग्रंथों और पुराणों में ईश्वर
के विभिन्न रूपों का वर्णन है। उदाहरण के लिए: रावण रचित शिव तांडव स्त्रोत में एक छंद
है "सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः " जिसका अर्थ
होता है: शिव सारे देवलोकों के स्वामियों द्वारा आदरणीय हैं, जो अर्ध-चंद्र से सुशोभित हैं।
इन छंदों को पढ़कर कोई भी यह कल्पना कर सकता है की भगवान शिव के सिर पर आधा
चांद चमकता है। यहां पर उन चित्रकारों की अहम् भूमिका हो जाती है, जो केवल शब्दों में
किये गए चारित्रिक वर्णन को, तस्वीरों अथवा मूर्तियों का रूप दे देते हैं। और इस प्रकार
चित्रकारों द्वारा अनेक पुस्तकों को पढ़कर भगवान की कल्पना की जाती है तथा उन्हें वर्णन
के अनुसार चित्रों में गढ़कर मूर्त रूप दे दिया जाता है। चित्रकारी हमारे समाज की दिशा
निर्धारित करने में अहम् भूमिका निभाती है, यह कई युगों से की जा रही है तथा समय के
साथ अपनी शैली तथा रूप भी बदलती रही है।
यद्यपि भारतीय चित्रकला हजारों वर्षों से फल-फूल रही है, परंतु अंतराष्ट्रीय स्तर पर इसे
लोकप्रिय हुए कुछ ही दशक बीते हैं। माना जाता है कि भारतीय चित्रकला में आधुनिक
भारतीय कला आंदोलन, उन्नीसवीं सदी के अंत में कलकत्ता में शुरू हुआ था। शुरुआत में
भारतीय चित्रकला के नायक माने जाने वाले राजा रवि वर्मा ने तेल पेंट (Oil Painting) और
चित्रफलक पेंटिंग द्वारा पश्चिमी परंपराओं और तकनीकों को अपनी ओर आकर्षित किया।
भारत में तेल और चित्रफलक चित्रकला की शुरुवात अठारहवीं शताब्दी में ही जो गई थी, इस
दौरान कई यूरोपीय चित्रकार जैसे ज़ोफ़नी (Zoffany), केटल(Keitel), होजेस
(Hodges)और विलियम डेनियल (William Daniels),आदि प्रसिद्धि की तलाश में भारत
आए।
विशेष रूप से भारतीय रियासतों में यूरोपीय कलाकार और चित्रकारियां एक प्रमुख आकर्षण
रहीं। भारतीय चित्रकलाओं के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों ने भी एक बड़ा बाजार
उपलब्ध कराया। 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कागज और अभ्रक पर जल रंग की पेंटिंग की
एक विशिष्ट शैली विकसित हुई, जिसमें रोजमर्रा की जिंदगी, रियासतों के राजघराने और
देशी उत्सवों और अनुष्ठानों के दृश्यों को दर्शाया जाने जाने लगा। 
सबसे पहले मुर्शिदाबाद से
शुरू हुई यह चित्रकला शैली धीरे-धीरे ब्रिटिश आधिपत्य के अन्य शहरों में भी विस्तारित हो
गई, कई ब्रिटिश अधिकारी इसे चित्रकला की "हाइब्रिड शैली अथवा विशिष्ट गुणवत्ता वाली
मानते थे।
सन 1857 के बाद, जॉन ग्रिफिथ्स और जॉन लॉकवुड किपलिंग (John Griffiths and John
Lockwood Kipling) एक साथ भारत आए, उन्हें भारत आने वाले बेहतरीन विक्टोरियन
चित्रकारों में से एक माना जाता है। भारत आगमन के पश्चात् ग्रिफ़िथ ने सर जेजे स्कूल
ऑफ़ आर्ट (Sir JJ School of Art) का संचालन किया। वहीं किपलिंग ने जेजे स्कूल ऑफ़
आर्ट और 1878 में लाहौर में स्थापित मेयो स्कूल ऑफ़ आर्ट्स (Mayo School of Arts)
दोनों का नेतृत्व किया। 1848-1906 के बीच भारत के उल्लेखनीय और स्व-शिक्षित
चित्रारकारों में त्रावणकोर रियास के राजा रवि वर्मा एक प्रमुख नाम थे। 1873 में पश्चिम में
उन्होंने वियना (Vienna) कला प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार जीता।  
वर्मा के चित्रों को 1873 में
शिकागो में आयोजित विश्व के कोलंबियाई प्रदर्शनी में भी भेजा गया था, और उनके काम
को दो स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया था। उनके द्वारा साड़ी पहने महिलाओं के चित्रों
को आज भी बेहद पसंद किया जाता है। साथ ही वर्मा द्वारा निर्मित महाभारत और रामायण
के महाकाव्यों के दृश्यों के चित्रण भी भारत में बेहद पसंद किये गए। राजा रवि वर्मा का
1906 में 58 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें भारतीय कला के इतिहास में सबसे महान
चित्रकारों में से एक माना जाता है।
19वीं शताब्दी में कुछ अन्य महान चित्रकार भी बेहद लोकप्रिय हुए जिनमे से कुछ निम्नवत
हैं:
पेस्टनजी बोमनजी (1851-1938),
महादेव विश्वनाथ धुरंधर (1867-1944),
एएक्स त्रिनाडे (1870-1935),
एमएफ पिथवाला (1872-1937),
सावलाराम लक्ष्मण हल्दनकर (1882-1968)
हेमेन मजूमदार (1894-1948)
एक प्रमुख चित्रकार केजी सुब्रमण्यन (1924–2016) ने समकालीन कला को लोकप्रिय
संस्कृति और लोक कला को शहरी प्रवृत्तियों के साथ जोड़कर नई परंपराओं का आविष्कार
किया। उन्होंने कवि रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित कलकत्ता के बाहर शांतिनिकेतन में
नंदलाल बोस के अधीन अध्ययन किया। कला सिद्धांत और शिक्षण पर उनके लेखन के
माध्यम से उनका प्रभाव दूर-दूर तक फैला।
बीसवीं सदी के बाद से, आधुनिक और समकालीन भारतीय कला को खरीदने में पूरे विश्व की
रुचि बढ़ी है, और कई भारतीय कलाकारों ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर विशेष पहचान हासिल की
है। जैसे-जैसे कला की दुनिया तेजी से वैश्वीकृत हो रही है, अंतरराष्ट्रीय कला मेलों और यात्रा
प्रदर्शनियों के साथ-साथ ऑनलाइन कलाकृति खरीदने की क्षमता के साथ, लोग संयुक्त
राज्य अमेरिका और कनाडा से लेकर बेल्जियम और यूनाइटेड किंगडम तक पूरी दुनिया में
भारतीय कला की माँग भी बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है। 2008 से, भारतीय आधुनिक और
समकालीन कला को बढ़ावा देने के लिए नई दिल्ली में प्रतिवर्ष भारत कला मेला आयोजित
किया जाता है, जिसमें भारतीय कलाकारों द्वारा सैकड़ों पेंटिंग, मूर्तियां, फोटोग्राफी, मिश्रित
मीडिया, प्रिंट, चित्र और वीडियो कला दिखाई जाती है। भारतीय कलाकारों ने अमेरिकी
संग्रहालयों और संस्थानों में भी कला प्रेमियों का ध्यान आकर्षित किया है। कई स्थानीय
गैर-लाभकारी संस्थाएं, जैसे कि आर्टफोरम एसएफ और सोसाइटी फॉर आर्ट एंड कल्चरल
हेरिटेज ऑफ इंडिया (SACHI), पूरी तरह से भारतीय कला के प्रचार के लिए समर्पित हैं।
पिछले कुछ दशकों और कुछ वर्षों के साक्ष्यों को देखते हुए, हम केवल यह अनुमान लगा
सकते हैं कि, भारतीय कला की प्रशंसा और भारतीय कलाकारों द्वारा पेंटिंग खरीदने में रुचि
निरंतर बढ़ती रहेगी।
संदर्भ
https://en.wikipedia.org/wiki/Modern_Indian_painting
https://laasyaart.com/contemporary-indian-art/
https://www.metmuseum.org/toah/hd/mind/hd_mind.html
चित्र संदर्भ
1. भारतीय चित्रकार राजा रवि वर्मा द्वारा शकुंतला पत्रलेखन का एक चित्रण (wikimedia)
2. भारतीय चित्रकार राजा रवि वर्मा द्वारा मोहिनी का एक चित्रण (wikimedia)
3. जल रंग की पेंटिंग का एक चित्रण (flickr)
4. राजा रवि वर्मा को आधुनिक भारतीय कला के इतिहास में सबसे महान चित्रकारों में से एक माना जाता है,जिनका एक चित्रण (wikimedia)
5. चित्रकार केजी सुब्रमण्यन की चित्रकला का एक चित्रण (Art UK)