प्रागैतिहासिक धनेश पक्षी आज विलुप्तता के कगार पर

पक्षी
09-01-2018 06:41 PM
प्रागैतिहासिक धनेश पक्षी आज विलुप्तता के कगार पर

धनेश एक पक्षी जब आकाश में उड़ता है और आवाज़ देता है तो मानों ऐसा लगता है कि चील आ गयी हो। इस पक्षी को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानों एक बार फिर से हम डायनासोर के युग में पहुँच गये हों। उड़ने वाले टेरोसोर की तरह दिखनेवाला यह पक्षी पुराकालीन जीव का ही पूर्वज प्रतीत होता है। शारीरिक संरचना से लेकर के आवाज तक कई समानताओं को समेटे यह पक्षी अपनी एक विशिष्ट उपस्थिति समाज में दर्ज करवाता है। यह पक्षी समय के साथ-साथ कई कठिनाइयों का सामना करते-करते आज तक पृथ्वी पर जीवित बचा हुआ है परन्तु मानवों के अंधविश्वास की मानसिकता व इनकी सोच नें आज इस पक्षी को विलुप्तता की कगार पर पहुँचा दिया है। धनेश को मारने के पीछे कुछ कारण व अंधविश्वास जुड़े हैं जैसे कुछ लोगों की मान्यता है कि इससे लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं तथा गठिया रोग के लिये धनेश का तेल रामबाण औषधि है। ऐसी मान्यता के चलते इस अद्भुत् पक्षी की हत्या दिन ब दिन हो रही है। धनेश को संस्कृत में वाघ्रीणस, अंग्रेजी में हार्नबिल तथा हिन्दी में धनेश और बनराव के नामों से पुकारते हैं। इसकी कई किस्में हैं। इसकी करीब सोलह किस्में केवल भारतवर्ष में ही प्राप्य हैं, पर इनमें प्रमुख दो हैं- एक साधारण भूरे रंग का, दूसरा वह जिसके सिर पर एक तुर्रा-सा होता है। तथा जिसे अंग्रेजी में मलाबार पायड हार्नबिल हिन्दी में धानचुरी तथा बंगाल में बगमा धनेश के नाम से पुकारते हैं। साधारण धनेश पंजाब के कुछ हिस्सों को छोड़कर इस देश के बाकी सभी राज्यों में उपलब्ध है। कद में यह प्रायः 60 से.मी. लम्बा और रंग में गाढ़ा भूरा होता है। इसकी पूंछ काफी लम्बी होती है, जिसके छोर पर सफेदी होती है। पेट, जांघ तथा दुम का निचला हिस्सा सफेद होता है। चोंच एवं सर की टोपी काले रंग की होती है। चोंच की बनावट सींग जैसी होने के कारण ही अंग्रेजी में इसे हार्न (सींग) बिल (चोंच) के नाम से पुकारते हैं। अन्य जाति के धनेश जहां वनों में रहना अधिक पसन्द करते हैं, इसे खुले मैदान में, गांव के अड़ोसपड़ोस में तथा बाग-बगीचों में रहना अधिक रुचिकर है। ग्राम्य-वृक्ष के कोटरों में यह बहुधा प्रजनन क्रिया सम्पन्न करता हुआ पाया जाता है। धानचुरी का कद पूरे धनेश से प्राय: 30 सें.मी. बड़ा होता है; सर, गला, पीठ, डैनें तथा दुम के बीच के दो पर काले होते हैं जिसमें हरेपन की झलक आती रहती है। बाकी पर बिल्कुल सफेद होते हैं और ठोड़ी पर एक हल्का पीला धब्बा होता है। मादा की आंखों के चारों ओर एक सफेद कंठी होती है। चोंच सर के निचले हिस्से में पीलापन होता है, तुर्रे के बाकी हिस्सों में कालापन। यह पहाड़ी प्रांत में, वन में रहना अधिक पसन्द करता है। प्रत्येक किस्म के धनेश पक्षी की एक खास विशेषता है जो कि और पक्षियों में नहीं पाई जाती। धनेश कि आंखों के ऊपर भौहें होती हैं। डैनों के नीचे मुलायम पर, जो और पक्षियों में होते हैं धनेश में नहीं होते। सर पर टोपी होती है, धानचुरी की टोपी औरों से बड़ी-प्राय: 20 से.मी. लम्बी होती है। धनेश घोसले नहीं बनाते बल्की पेड़ों के प्राचीन कोटरों में ही मादा अंडे देती है। इसके सम्बन्ध में सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि अंडा देने के समय से जब तक कि बच्चे इस लायक नहीं हो जाते कि वे प्रसूतिगृह से निकल कर अपने पांवों पर खड़े हो सकें मादा पर्दानशीन बनी रहती है। मादा प्रसव काल निकट आते ही वह किसी वृक्ष-कोटर में जा बैठती है तथा उसके मुंह को एक दीवार से बन्द कर लेती है, केवल एक सूराख छोड़ देती है जिससे वह अपनी चोंच बाहर निकाल कर नर के द्वारा लाए हुए खाद्य-पदार्थों को ग्रहण कर सके। मादा को हफ्तों उसी दशा में रहना पड़ता है और नर नित्य प्रति अपनी चोंच में खाने की चीजें कीड़े-मकोड़े, गिरगिट और छिपकली आदि ला-लाकर उसे खिलाया करता है। पर्दे के भीतर ही उसके पुराने पर झड़ पड़ते हैं तथा उनकी जगह नए पर उग आते हैं। अत: जब वह बाहर निकलती है तो उसका सौन्दर्य पहले से कहीं अधिक निखरा हुआ नजर आता है, रूप में कहीं अधिक आकर्षण रहता है। बच्चा बड़ा जब होता है तो उस वक्त मादा अपनी चोंच-रूपी हथौड़ी से वृक्ष-कोटर के द्वार पर आघात करना शुरू करती है। नर भी आ कर जब-तब सहयोग देता है और कुछ काल में वह बाहर निकलती है। नर उसकी प्रतीक्षा में मिलनातुर बाहर बैठा होता है। पर्दे से बाहर आते ही मादा पहले अपनी चोंच खूब साफ करती है तथा नए परों को देर तक फड़फड़ाती है। मादा के प्रसूति अवस्था में उसके खाने-पीने की व्यवस्था का सारा भार नर के ऊपर रहता है और वह जिस कुशलता से इस काम को अंजाम देता है, वह अतिशय प्रशंसनीय है। यही नहीं यह उसके गहरे दाम्पत्य प्रेम का परिचायक भी है। दिन भर में एक नहीं दर्जनों बार नर गले के भीतर खाद्य वस्तुएं रख कर लाता है और उन्हें नरेटी से बाहर निकाल-निकाल कर उसे खिलाता है। नर का आभास पाते ही मादा सूराख के भीतर से अपनी चोंच बाहर निकाल देती है और तब नर गले को पीछे की ओर करके एक झोंका देता है और फिर लाई हुई वस्तु को मुंह के रास्ते निकाल कर उसकी चोंच में रखता है और इस प्रकार अन्दर की सारी चीजों को वह एक-एक कर उसे खिलाता है। इन चीजों में वट, पीपल, नीम आदि के छोटे-छोटे फल तो होते ही हैं, टिड्डी, गिरगिट आदि जीव-जन्तु भी रहते हैं, जिन्हें मादा बड़े चाव से ग्रहण करती है। ये चीजें वह अपने गले की थैली में भर लाता है, पर कभी-कभी उदरस्थ चीजों को भी वह उगल-उगल कर प्रेमिका को खिलाता है। इसके उदर में एक ऐसा पदार्थ होता है जिसके स्पर्श से उदरस्थ वस्तुओं की गोली, झिल्लीदार पतली थैली या बीजकोष तैयार हो जाता है। एक सज्जन का, जिन्होंने पक्षी-जीवन का गम्भीर अध्ययन किया है, का कहना है कि धनेश के हर कौर में दो से चार तक फूलबीज की गोलियां रहती हैं, जिनमें कीड़े-मकोड़े तथा रेंगने वाले जन्तुओं के शरीर के टुकड़े भी रहते हैं। धनेश एक अत्यन्त महत्वपूर्ण व पारिवारिक पक्षी है पर इसकी प्रजाति विलुप्तता के अत्यधिक करीब है जिसका कारण अंधविश्वास, दवा या तेल और वृक्षों की कटाई है। लखनऊ के प्राणी उद्यान के अलाँवा कैंट क्षेत्र में यह पक्षी आज भी दिखाई दे जाता है। यह पक्षी जब उडान भरता है तो वास्तव में एक विशिष्ट प्रकार की ढाल दिखाई देती है। कई लोग इस पक्षी के जान के पीछे मात्र इस लिये पड़ें हैं क्युँकी इसकी चोंच का आइवरी की तरह प्रयोग किया जाता है तथा इससे कुछ प्रकार की साज-सज्जा की वस्तुयें बनायी जाती हैं। 1. भारत के पक्षी: राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह, प्रकाशन विभाग, सूचना व प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, 2013 2. भारत का राष्ट्रीय पक्षी और राज्यों के राज्य पक्षी: परशुराम शुक्ल, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013 3. ईश्वर की आँख: उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2005