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लखनऊ की तक़रीबन सभी इस्लामी धार्मिक इमारतों पर हमे दीवारों पर सुलेखकला के साक्ष्य मिलते हैं। लखनऊ के प्रसिद्ध इमामबाड़ा, मस्जिद, रूमी दरवाज़ा आदि स्थापत्यकला के अप्रतिम नमूनों पर हमे खुबसूरत लिखावट दिखाई देती है। मध्यकाल में और आज भी बहुतसी जगहों पर सुलेखन वास्तुरचना का एक हिस्सा होता है जो मेहराबों के उपर, कंगनी के निचे अथवा अंदरूनी तथा बाहरी भित्ति पर किया जाता है। इमारतों की मुहार/अगवाड़े को अलंकृत करने के लिए सुलेखकला का इस्तेमाल किया जाता है। लखनऊ नवाबों के समय को सुलेखकला का सुवर्णकाल माना जाता है। नवाब असफ़-उद-दौला के समय में इस कला को बहुत बढ़ावा मिला खास कर जब उन्होंने फैजाबाद से बदलकर लखनऊ को राजधानी बनाया। उन्होंने इस कला को बढ़ावा दिया। कुरान की आयतों को कागज़ अथवा पत्थरों पर सुलेखकला के माध्यम से लिखा जाता था। सुलेखकला बहुतायता से दो प्रकार की होती है: तुघ्रा और सुलुस। तुघ्रा अलंकारिक प्रकार की होती है जिसमे शब्दों को विविध फूल, पत्ते, पक्षी और प्राणियों के आकर में बनाया जाता है खासकर के कबूतर और बाघ। अरबी तुघ्रा कोणीय होती है और फ़ारसी गोलाकार। तुघ्रा को शाही कामों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। सुलुस बड़े नक्शी प्रकार की होती है और साधारण कामों के लिए इस्तेमाल की जाती थी। तुघ्रा शैली का सबसे सुन्दर साक्ष्य बड़ा इमामबाड़ा और जामी मस्जिद में देख सकते हैं तथा सुलुस के करबला और ऐश बाग में। जो खंड रहते थे वे तथा कता (4 वाक्यों का पद्य) नक्श और नस्तालिक़ में लिखा जाता था। कता-नवीसी लखनऊ में बहुत विख्यात था और घरों पर इसे लिखना प्रचलन में था। लखनऊ में सुलेखकला की लोकप्रियता हाफिज़ नूरुल्ला खान और क़ाज़ी नेमतुल्ला खान की देन थी। हाफिज़ नुरुल्ला खान के बहुत शिष्य थे। वे खुशनविस हाफिज़ नुरुल्ला खान इस नाम से प्रसिद्ध थे। खुशनविस मतलब सुलेखन करनेवाला और सुलेखकला को खुशनवीसी भी कहा जाता है। प्रस्तुत चित्र हाफिज़ नूरुल्ला खान का है जो लखनऊ राज्य-संग्रहालय में रखा हुआ है। 1. द मेकिंग ऑफ़ अवध कल्चर: मधु त्रिवेदी 2. https://www.tornosindia.com/lucknow-calligraphy/ 3.http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/55804/7/07_chapter%202.pdf