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भूलभुलैया प्रकोष्ठों और मार्गों का ऐसा जाल है जो भ्रम में डाल देता है तथा जिसके कारण बहर निकलने का ज्ञान होना मुश्किल होता है। इसका आधुनिक नज़ारा है। भारत में लखनऊ के नवाब वजीर आसफुद्दौला ने 1784 ई0 में इमामबाड़ा नामक इमारत बनवाया जिसमें, भूलभुलैयाँ का एक भारतीय नमूना हैं। लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन से करीब चार किलोमीटर दूर स्थित यह भूलभूलैया पर्यटको के आकर्षण का केन्द्र है। इस भूलभुलैय्या में एक जैसे घुमावदार रास्ता, कलाकारी, नक्काशी और कई शेहरो के लिए यहाँ से निकली सुरंगें जैसी बहतरीन कलाकारी का नमूना इसे ख़ास बनाती हैं। इसके अलावा इस भूलभुलैय्या की सबसे ख़ास बात इसके दीवारों के कान हैं। दरअसल यहाँ की दीवारें सरिया और सीमेंट का इस्तेमाल करके नहीं बनाई गयी हैं बल्कि इन दीवारों को उड़द व चने की दाल, सिंघाड़े का आटा, चूना, गन्ने का रस, गोंद, अंडे की जर्दी, सुर्खी यानि लाल मिट्टी, चाशनी, शहद, जौ का आटा और लखौरी ईट के इस्तेमाल से बनाया गया था। इस दीवार की खासियत ये हैं कि अगर आप किसी कोने में दीवार के फुसफुसा कर कुछ बोल रहे हैं तो उसे इन दीवारों पर कान लगा कर किसी भी कोने में सुना जा सकता हैं। सिर्फ ये ही नहीं, इस इमामबाड़े के मध्य में बने पर्शियल हाल की लम्बाई 165 फीट हैं, जिसके एक कोने में अगर आप माचिस या काग़ज़ से आवाज़ भी निकलते हैं तो दुसरे कोने से आसानी से सुना जा सकता हैं। इसकी वजह इस हाल में बनी काली सफ़ेद खोखली लाइने, जिसके सहारे से ये आवाज़ एक कोने से दुसरे कोने आसानी से सुनाई देती हैं। इतिहास के मुताबिक आसफुद्दौला ने ये इंतज़ाम अपनी फौज में छिपे गुप्तचरों से बचने और पकड़ने के लिए किया था। अगर दुश्मन फ़ौज का कोई व्यक्ति यहाँ तक पहुँचने में सफल भी होता था तो ज्यादा देर तक बाख कर नहीं रह सकता था। और कहा जाता हैं कि जब नवाब आसफुद्दौला को खतरा महसूस होता था तो ये इसमें बनी सुरंग से घोड़े पे सवार होक निकल जाते थे। और इस भूलभूलैय्या की एक खासियत ये भी थी की इमामबाड़े के दरवाजे से आने वाला व्यक्ति दिखाई देता हैं। जिसके सहायता से आने वाले दुश्मन का पता चल जाता था और वही से उसको मौत की घाट उतार देते थे।