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इत्र की दुनिया जितनी सुगंधित है, उतनी ही जटिल और बहुपरतीय भी। यह केवल एक सौंदर्य प्रसाधन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक प्रतीक रहा है, जिसने सभ्यताओं के विकास के साथ कदम मिलाया है। भारत में, वैदिक युग से ही इत्र और सुगंधित तेलों का प्रयोग होता आ रहा है। 'चरक संहिता' और 'सुश्रुत संहिता' जैसे आयुर्वेदिक ग्रंथों में इत्र का उल्लेख चिकित्सा के एक भाग के रूप में हुआ है। इसके अलावा, राजघरानों में इत्र को सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था। फारसी, तुर्क और अरब व्यापारी जब भारत आए, तो वे अपनी सुगंध निर्माण की तकनीकों को भी साथ लाए। भारत में, विशेषकर उत्तर प्रदेश के कई शहरों जैसे कन्नौज ने इन विधाओं को अपनाकर उन्हें स्थानीय पहचान दी।
इस लेख में हम पहले जानेंगे कि इत्र का वैश्विक इतिहास कितना समृद्ध रहा है और किस प्रकार यह भारतीय परंपराओं का हिस्सा बना। इसके बाद हम विस्तार से समझेंगे कि आधुनिक रासायनिक परफ्यूम्स में कौन-कौन से हानिकारक तत्व पाए जाते हैं और उनके स्वास्थ्य पर क्या-क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं। अंत में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इत्र का भविष्य क्या हो सकता है और हम किस दिशा में बढ़ सकते हैं।
इत्र का प्राचीन इतिहास और वैश्विक परंपराएँ
प्राचीन काल से ही इत्र मानव सभ्यता का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। मिस्र, मेसोपोटामिया, भारत और चीन जैसी प्राचीन सभ्यताओं में सुगंधित तेलों और प्राकृतिक अर्कों का प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों, चिकित्सा और व्यक्तिगत उपयोग के लिए किया जाता था। मिस्रवासी सुगंध को आत्मा की शुद्धि और देवताओं को प्रसन्न करने का माध्यम मानते थे, जबकि मेसोपोटामिया में काष्ठ, फूलों और रेज़िन से सुगंधित पदार्थ बनाए जाते थे। भारत में वेदों में "गंध" का विशेष महत्व बताया गया है और आयुर्वेद में सुगंधित जड़ी-बूटियों का प्रयोग मानसिक और शारीरिक संतुलन के लिए होता था।
विश्व की विभिन्न संस्कृतियों में इत्र का विकास अलग-अलग रूपों में हुआ। रोम और ग्रीस में सुगंध का उपयोग उच्च वर्गों के सौंदर्य और विलासिता के प्रतीक के रूप में होता था। इस्लामी दुनिया में इत्र की कला को विज्ञान की तरह विकसित किया गया—इब्न सिना (अविसेन्ना) ने गुलाबजल का आसवन (distillation) पहली बार किया। मध्यकालीन यूरोप में भी अरब व्यापारियों के ज़रिए इत्र की परंपरा पहुँची और वहाँ से यह पुनर्जागरण काल में एक राजसी संस्कृति का हिस्सा बन गया। इस प्रकार इत्र का इतिहास न केवल सुगंध की खोज है, बल्कि यह मानव संस्कृतियों के बीच संपर्क, आदान-प्रदान और सौंदर्यबोध की गहराई को भी दर्शाता है।फारसी, तुर्क और अरब व्यापारी जब भारत आए, तो वे अपनी सुगंध निर्माण की तकनीकों को भी साथ लाए। भारत में, विशेषकर उत्तर प्रदेश के कई शहरों जैसे कन्नौज और पहले के समय में मेरठ ने इन विधाओं को अपनाकर उन्हें स्थानीय पहचान दी। यह स्पष्ट है कि इत्र केवल सजावटी वस्तु नहीं रहा, बल्कि यह सभ्यताओं के आदान-प्रदान और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का भी माध्यम रहा है।
आधुनिक परफ्यूम में उपयोग होने वाले हानिकारक रसायन
जहाँ प्राचीन काल में इत्र निर्माण में प्राकृतिक तत्वों जैसे फूलों, जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों का उपयोग होता था, वहीं आज के परफ्यूम अधिकतर रासायनिक प्रयोगशालाओं में बनाए जाते हैं। इन परफ्यूम्स में कई ऐसे तत्व मिलाए जाते हैं, जो हमारे शरीर के लिए गंभीर रूप से हानिकारक हो सकते हैं।
इन रसायनों को 'फ्रैग्रेंस' या 'परफ्यूम' जैसे सामान्य शब्दों में लेबल पर छिपा दिया जाता है, जिससे आम उपभोक्ता इनके प्रभावों से अनजान रहता है।
रासायनिक परफ्यूम से होने वाले दुष्प्रभाव
आधुनिक परफ्यूम न केवल त्वचा की सतह पर प्रभाव डालते हैं, बल्कि यह शरीर की आंतरिक प्रणालियों पर भी असर डालते हैं। सबसे आम दुष्प्रभावों में शामिल हैं:
इन सभी दुष्प्रभावों को जानना और समझना जरूरी है ताकि हम जागरूक होकर अपने और अपने परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकें।
इत्र का भविष्य: प्राकृतिक विकल्पों की ओर वापसी
जैसे-जैसे लोग रासायनिक परफ्यूम्स के दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक हो रहे हैं, वैसे-वैसे एक नई लहर उभर रही है—प्राकृतिक और पारंपरिक इत्र की ओर वापसी की। आज के उपभोक्ता केवल सुगंध ही नहीं चाहते, बल्कि वह यह भी जानना चाहता है कि उसकी त्वचा पर जो उत्पाद लग रहा है, वह स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित है या नहीं।
मेरठ सहित कई भारतीय शहरों में अब छोटे स्तर पर कारीगर फिर से पारंपरिक इत्र निर्माण में रुचि ले रहे हैं। गुलाब, चमेली, केवड़ा और चंदन जैसे प्राकृतिक अवयवों से तैयार किए गए इत्र शरीर और मन—दोनों पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इसके अलावा, ये पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते क्योंकि इनमें कोई हानिकारक वाष्पशील रसायन नहीं होते।इसके साथ ही ‘क्रुएल्टी-फ्री’ और ‘विगन’ इत्र की मांग भी बढ़ रही है, जो पशुओं पर परीक्षण किए बिना बनाए जाते हैं और शुद्ध रूप से पौधों से निकाले गए तत्वों पर आधारित होते हैं।यह एक ऐसा समय है जब पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक जागरूकता मिलकर सुगंध की दुनिया को एक सुरक्षित और संवेदनशील दिशा की ओर ले जा सकते हैं।
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