बाल मज़दूरी पर एक नज़र: बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए ज़रूरी बदलाव

सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
12-06-2025 09:12 AM
बाल मज़दूरी पर एक नज़र: बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए ज़रूरी बदलाव

बाल मजदूरी केवल किसी बच्चे से काम करवाना नहीं है, यह उनके बचपन, शिक्षा, मानसिक विकास और आत्मसम्मान की हत्या है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, ऐसा कोई भी काम जो बच्चे के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक या नैतिक विकास को नुकसान पहुंचाता है, उसे बाल श्रम माना जाता है। विश्व बाल मजदूरी विरोधी दिवस के अवसर पर, हमें उस गम्भीर समस्या की ओर ध्यान देना आवश्यक है जो हमारे समाज के सबसे नन्हे और संवेदनशील सदस्यों को प्रभावित करती है। 

इस लेख में हम बाल मजदूरी की परिभाषा और इसके पीछे छिपे सामाजिक व आर्थिक कारणों को समझने का प्रयास करेंगे। हम देखेंगे कि किन-किन खतरनाक उद्योगों में बच्चे काम करते हैं और शिक्षा की उपेक्षा किस प्रकार उन्हें मजदूरी की ओर धकेलती है। इसके साथ ही हम भारतीय कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों की जानकारी प्राप्त करेंगे। लेख में हम यह भी जानेंगे कि नागरिकों और समाज की क्या भूमिका होनी चाहिए ताकि बाल मजदूरी का स्थायी समाधान संभव हो सके।

बाल मजदूरी की परिभाषा और उसका वास्तविक अर्थ

बाल मजदूरी का तात्पर्य है—बच्चों से ऐसा कोई भी कार्य कराना जो उनकी उम्र, क्षमता और मानसिक विकास के प्रतिकूल हो। यह केवल श्रमिक के रूप में कार्यरत बच्चों की बात नहीं है, बल्कि हर वह स्थिति बाल मजदूरी है, जहाँ बच्चों को उनकी इच्छा, स्वास्थ्य या शिक्षा के खिलाफ काम करने के लिए बाध्य किया जाता है। भारत में यह समस्या अधिकतर असंगठित क्षेत्रों में छिपी हुई है, जहाँ बच्चे पारिवारिक व्यवसायों, खेतों, घरेलू नौकरियों, दुकानों या छोटे कारखानों में काम करते हैं। इन कार्यों से बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास रुक जाता है, और वे कम उम्र में ही जीवन की कठोरता से रूबरू हो जाते हैं। इसका वास्तविक अर्थ तब समझ में आता है जब हम इसे बच्चों के बचपन को छीनने वाले अमानवीय कार्य के रूप में देखें। ये बच्चे शिक्षा, खेल और स्वास्थ्य से वंचित रहकर समाज के हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं। बाल मजदूरी केवल एक आर्थिक मजबूरी नहीं बल्कि सामाजिक असंवेदनशीलता का भी परिणाम है। यह समस्या देश की प्रगति की राह में एक गहरा रोड़ा बन चुकी है। हमें यह समझना होगा कि बच्चे मजदूर नहीं, भविष्य के निर्माता हैं। उनका बचपन सुरक्षित और संवारने योग्य होना चाहिए।

बाल मजदूरी के सामाजिक और आर्थिक कारण

बाल मजदूरी की समस्या का मूल कारण गरीबी है। जब माता-पिता के पास अपने परिवार का पेट भरने के पर्याप्त संसाधन नहीं होते, तो वे बच्चों को भी कमाई के स्रोत के रूप में देखने लगते हैं। इसके अलावा अशिक्षा भी एक बड़ा कारण है—जब स्वयं माता-पिता शिक्षित नहीं होते, तो वे शिक्षा के महत्व को नहीं समझते और बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय काम पर भेज देते हैं। सामाजिक ढांचे में बच्चों से काम करवाना कभी-कभी 'सामान्य' मान लिया जाता है, जिससे यह प्रवृत्ति पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। बालिकाओं को तो और भी जल्दी स्कूल से हटाकर घरेलू काम या मजदूरी में लगाया जाता है। कर्ज की वजह से बच्चों को बंधुआ मजदूर बना देना आज भी कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में आम बात है। इसके अलावा सरकार की योजनाओं की जानकारी का अभाव, प्रशासनिक लापरवाही और भ्रष्टाचार भी इस समस्या को बढ़ाते हैं। समाज में व्याप्त वर्गभेद, जातिगत भेदभाव और लैंगिक असमानता बच्चों के अधिकारों की अवहेलना करते हैं। बाल मजदूरी की जड़ें केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और संरचनात्मक स्तर पर भी गहराई तक फैली हैं, जिन्हें समग्र दृष्टिकोण से ही समाप्त किया जा सकता है।

जोखिम भरे उद्योग और बाल श्रमिक

भारत में अनेक ऐसे उद्योग हैं जहाँ बच्चों को खतरनाक और अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। बीड़ी निर्माण, आतिशबाज़ी, कालीन बुनाई, ईंट भट्टा, खदान और कांच उद्योग जैसे क्षेत्रों में हजारों बच्चे काम करते हैं, जो उनके जीवन के लिए अत्यंत घातक है। आतिशबाज़ी उद्योग में बच्चों को बारूद जैसे खतरनाक रसायनों के संपर्क में लाया जाता है, जिससे कई बार हादसे होते हैं। खदानों में उन्हें बिना सुरक्षा उपकरणों के भेजा जाता है, जिससे सांस और त्वचा संबंधी गंभीर बीमारियाँ हो जाती हैं। बीड़ी और वस्त्र उद्योगों में बच्चों की आंखों पर अत्यधिक दबाव डाला जाता है, जिससे दृष्टि पर असर पड़ता है। होटल, ढाबा, और वर्कशॉप जैसे स्थानों पर काम करने वाले बच्चों को लंबे घंटे काम करना पड़ता है और उन्हें अक्सर उचित भोजन, आराम या मजदूरी नहीं मिलती। इन क्षेत्रों में बच्चों के लिए कोई सामाजिक सुरक्षा या चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध नहीं होती। इन उद्योगों में बच्चों की मौजूदगी न केवल उनके अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि यह भविष्य की पीढ़ियों को भी कमजोर बनाता है। यह स्थिति हमारे सामाजिक ताने-बाने को भी क्षतिग्रस्त करती है।

शिक्षा की उपेक्षा और विद्यालयों की स्थिति

बाल मजदूरी का सीधा संबंध शिक्षा की उपेक्षा से है। जहाँ विद्यालयों की स्थिति दयनीय होती है, वहाँ बच्चों को स्कूल छोड़कर काम की ओर धकेला जाता है। भारत के कई ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में आज भी विद्यालयों की संख्या कम है, और जो विद्यालय हैं भी, उनमें आवश्यक संसाधनों का घोर अभाव है। कई बार एक ही शिक्षक को पूरे विद्यालय का कार्यभार संभालना पड़ता है। बच्चों को न पाठ्यपुस्तकें मिलती हैं, न ही खेल-कूद की सुविधाएँ। शौचालय, पीने का पानी, बिजली और बैठने की उचित व्यवस्था का अभाव भी उन्हें शिक्षा से विमुख करता है। लड़कियों की शिक्षा तो और भी उपेक्षित होती है, जिससे वे या तो घरेलू कामों में लगी रहती हैं या बाल श्रम में धकेली जाती हैं। जब शिक्षा अनाकर्षक और अनुपलब्ध होती है, तो काम एक स्वाभाविक विकल्प बन जाता है। सरकार की कई योजनाएँ जैसे मिड डे मील, सर्व शिक्षा अभियान, और शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू तो हैं, लेकिन उनका ज़मीनी असर सीमित ही है। यदि हम विद्यालयों की स्थिति सुधारें, गुणवत्तापूर्ण शिक्षक दें और शिक्षा को वास्तव में सुलभ व उपयोगी बनाएं, तभी बाल मजदूरी को रोका जा सकता है।

भारतीय कानून और संवैधानिक प्रावधान

भारत सरकार ने बाल मजदूरी को रोकने के लिए कई कानूनी उपाय किए हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 24 कहता है कि 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को खतरनाक कार्यों में नियुक्त नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त बाल श्रम (प्रतिबंध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986, और उसका संशोधित रूप 2016 में लागू किया गया, जिसके अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे से किसी भी प्रकार का व्यवसायिक कार्य करवाना पूरी तरह प्रतिबंधित है। 14–18 वर्ष की आयु के किशोरों को केवल सुरक्षित एवं गैर-खतरनाक क्षेत्रों में नियोजित किया जा सकता है। इसके उल्लंघन पर ₹50,000 तक का जुर्माना और 6 महीने से 2 साल तक की सजा का प्रावधान है। बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 यह सुनिश्चित करता है कि 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त हो। इसके साथ ही किशोर न्याय अधिनियम भी बाल कल्याण के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन समस्या यह है कि कानून तो हैं, पर उनका पालन सुनिश्चित करने की प्रणाली कमजोर है। निगरानी एजेंसियों की संख्या कम है, और सामाजिक दबाव के अभाव में शिकायतें भी कम आती हैं। यदि इन कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए, तो बाल मजदूरी पर अंकुश संभव है।

नागरिकों की ज़िम्मेदारी और सामाजिक चेतना

बाल मजदूरी केवल सरकार या कानून की समस्या नहीं है, यह हम सभी की सामाजिक जिम्मेदारी है। जब हम किसी होटल, दुकान या कारखाने में किसी बच्चे को काम करते देखते हैं और चुप रहते हैं, तो हम इस अपराध में भागीदार बन जाते हैं। हमें यह समझने की ज़रूरत है कि एक बच्चे की शिक्षा और बचपन उसकी जन्मसिद्ध अधिकार है, न कि कोई दया का विषय। नागरिकों को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में जागरूकता दिखाएं और ज़रूरत पड़ने पर बाल कल्याण समिति या चाइल्डलाइन 1098 जैसे संसाधनों की मदद लें। स्कूलों और समाज में बाल अधिकारों के बारे में जागरूकता फैलाना अत्यंत आवश्यक है। सोशल मीडिया, सामुदायिक कार्यक्रमों और धार्मिक सभाओं के माध्यम से भी इस संदेश को व्यापक बनाया जा सकता है। मीडिया, शिक्षक, अभिभावक और सामाजिक कार्यकर्ता मिलकर एक ऐसा वातावरण बनाएं जहाँ बाल श्रम को अस्वीकार्य माना जाए। जब तक नागरिक अपनी भूमिका नहीं समझेंगे, तब तक कोई कानून भी प्रभावी नहीं हो सकता। हमें सामूहिक रूप से यह तय करना होगा कि बच्चों का स्थान स्कूल में है, मजदूरी में नहीं।

समाज की भूमिका

समाज का प्रत्येक वर्ग—शिक्षक, मीडिया, धार्मिक नेता, स्थानीय प्रशासन, उद्योगपति और सामान्य नागरिक—बाल मजदूरी के उन्मूलन में अहम भूमिका निभा सकता है। ग्राम पंचायतों और शहरी निकायों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके क्षेत्र में कोई बच्चा मजदूरी में न लगा हो। समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को चाहिए कि वे इस विषय में खुलकर बात करें और बाल श्रम को सामाजिक कलंक घोषित करें। गैर-सरकारी संगठनों की सक्रियता से पुनर्वास और शिक्षा की व्यवस्था बेहतर हो सकती है। सामाजिक समूहों और युवा संगठनों को बाल अधिकारों पर केंद्रित गतिविधियाँ और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए। इसके अतिरिक्त स्कूल छोड़ चुके बच्चों को दोबारा मुख्यधारा में जोड़ने के लिए विशेष प्रयास होने चाहिए। मीडिया को बाल मजदूरी के छिपे हुए मामलों को उजागर करना चाहिए और लोगों को संवेदनशील बनाना चाहिए। समाज को चाहिए कि वह अपने व्यवहार, उपभोग और प्राथमिकताओं की समीक्षा करे—क्या हम किसी ऐसे उत्पाद का समर्थन कर रहे हैं जो बाल श्रम पर आधारित है? जब समाज बच्चों को श्रमिक नहीं, बल्कि सीखने और खेलने-खिलने वाला नागरिक मानेगा, तभी इस कुप्रथा का अंत संभव है।

 

संदर्भ -

https://tinyurl.com/yu9m5y8d 

https://tinyurl.com/5n6ts964 

https://tinyurl.com/59zpfjde 

पिछला / Previous अगला / Next


Definitions of the Post Viewership Metrics

A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.

B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.

C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.

D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.