काग़ज़ के नोट और मेरठ की कहानी: भरोसे, बदलाव और भारत की मुद्रा यात्रा

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23-07-2025 09:36 AM
काग़ज़ के नोट और मेरठ की कहानी: भरोसे, बदलाव और भारत की मुद्रा यात्रा

मेरठवासियो, क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी जेब में रखा ₹10 या ₹500 का नोट महज़ काग़ज़ नहीं, बल्कि  सालों के इतिहास, बदलाव और विश्वास का प्रतीक है? हमारा शहर मेरठ, जो सिर्फ़ 1857 की क्रांति के लिए नहीं, बल्कि व्यापारी समुदाय, औद्योगिक गतिविधियों और सेना की छावनी के लिए भी जाना जाता है — ऐसे शहर में आर्थिक बदलावों का असर हमेशा गहराई से महसूस किया गया है। काग़ज़ी मुद्रा की यात्रा न केवल लेन-देन के तरीकों को बदला है, बल्कि समाज में भरोसे और शासन की नीतियों को भी दर्शाती है।

आज के इस लेख में हम पाँच गहराईपूर्ण पहलुओं के माध्यम से जानेंगे कि दुनिया में काग़ज़ी मुद्रा की शुरुआत कैसे हुई, भारत में यह कैसे पहुँची और मेरठ जैसे शहरों के जीवन को इसने कैसे बदला। हम पहले इसकी वैश्विक उत्पत्ति पर नज़र डालेंगे, फिर भारत में हुंडी जैसी प्राचीन व्यवस्थाओं से होते हुए इसकी शुरुआत को समझेंगे। तीसरे हिस्से में हम ब्रिटिश भारत के समय लागू किए गए काग़ज़ी मुद्रा अधिनियम और सरकारी नियंत्रण पर बात करेंगे। उसके बाद आज़ादी के बाद की मुद्रा में भारतीय पहचान की झलक देखेंगे और अंत में जानेंगे कि कैसे आधुनिक तकनीक ने नकली नोटों से लड़ने के लिए हमारी मुद्रा को और मज़बूत बनाया।

काग़ज़ी मुद्रा की वैश्विक उत्पत्ति और विकास की शुरुआती झलक

दुनिया में जब आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ने लगीं, तो लोग भारी-भरकम धातु की मुद्रा लेकर चलने लगे — जिसमें सोना, चांदी या तांबा शामिल था। लेकिन जैसे-जैसे व्यापारिक रूट लंबा और ख़तरनाक होता गया, इन सिक्कों को ले जाना असुविधाजनक और जोखिम भरा साबित होने लगा। चोरी, युद्ध और नुकसान की संभावनाओं के कारण एक ऐसा विकल्प खोजा गया जो हल्का हो, सुरक्षित हो और उसी तरह विश्वसनीय भी। काग़ज़ी मुद्रा की पहली झलक हमें चीन में मिलती है, जहाँ तांग वंश के दौरान प्रारंभिक प्रयोग हुए। लेकिन 11वीं सदी में सांग वंश ने “जियाउज़ी” नामक असली काग़ज़ी मुद्रा का विकास किया। बाद में मंगोल और युआन वंशों ने इसे अपनाया। जब यूरोपीय खोजकर्ता मार्कोपोलो चीन पहुँचे, तो उन्होंने इस मुद्रा का उल्लेख अपने यात्रा वृत्तांतों में किया, जिससे यह विचार यूरोप में फैल गया। 14वीं सदी में इटली और फ्लैंडर्स जैसे व्यापारिक क्षेत्रों में वचन-पत्रों (promissory notes) का उपयोग शुरू हुआ — ये काग़ज़ी माध्यम थे जिनके जरिए बिना धातु लिए ही भुगतान किया जा सकता था। धीरे-धीरे ये व्यक्तिगत से सार्वजनिक उपयोग में आए और 17वीं सदी तक बैंक नोटों का दौर शुरू हो गया। इंग्लैंड ने 1694 में फ्रांस से युद्ध के खर्चों को पूरा करने के लिए स्थायी रूप से बैंक नोटों को जारी किया, जिससे आधुनिक काग़ज़ी मुद्रा की नींव पड़ी।

भारत में काग़ज़ी मुद्रा की शुरुआत और हुंडी व्यवस्था की पृष्ठभूमि

भारत में काग़ज़ी मुद्रा का चलन यूरोपीय प्रभाव के ज़रिए भले ही आया हो, पर यहां लेन-देन की परंपराएं बहुत पुरानी थीं। व्यापारी वर्ग और सूदखोरों के बीच “हुंडी” नामक एक बेहद विश्वसनीय प्रणाली थी, जो लिखित आदेश के रूप में कार्य करती थी। एक व्यक्ति, दूसरे को निर्दिष्ट राशि देने का निर्देश देता और इस पर लेन-देन होता। यह भारत की स्थानीय बैंकिंग व्यवस्था थी, जो चेक या ड्राफ्ट के पहले ही सक्रिय थी। 18वीं सदी के मध्य में जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में सत्ता मजबूत की, तब बंगाल जैसे क्षेत्रों में आर्थिक अस्थिरता और धातु की कमी महसूस होने लगी। ऐसे में दूर-दराज़ के इलाक़ों में कंपनी के कर्मचारियों को भुगतान देने के लिए काग़ज़ी मुद्रा का प्रयोग प्रारंभ हुआ। 1770 में वारेन हेस्टिंग्स द्वारा स्थापित ‘बैंक ऑफ हिंदोस्तान’ और 1784 में ‘बैंक ऑफ बंगाल’ ने बैंक नोट जारी किए, हालांकि ये नोट सरकारी रूप से मान्य नहीं थे — इन्हें सिर्फ़ निजी लेन-देन में उपयोग किया जाता था।

ब्रिटिश काल में काग़ज़ी मुद्रा का औपचारिक विकास और 1861 का अधिनियम

1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए कई नए क़ानून बनाए। इन्हीं में से एक था 1861 का काग़ज़ी मुद्रा अधिनियम (Paper Currency Act)। इस अधिनियम ने भारत में नोट छापने का एकाधिकार केवल भारत सरकार को दे दिया। इससे पहले विभिन्न निजी और प्रेसीडेंसी बैंक अपने-अपने नोट छाप सकते थे, लेकिन इस अधिनियम के बाद वे यह कार्य नहीं कर पाए। 1862 में रानी विक्टोरिया की तस्वीर वाले पहले सरकारी नोट जारी किए गए, जिन्होंने औपनिवेशिक भारत के हर कोने — दिल्ली, कोलकाता, मद्रास और मेरठ तक — मुद्रा की एकरूपता सुनिश्चित की। इस प्रणाली ने पूरे भारत में एक संगठित मुद्रा तंत्र स्थापित किया, जो अंग्रेज़ों के शासन को आर्थिक दृष्टि से सशक्त करता था। 1935 में रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई, जिसने 1936 में पहली बार ₹5 के नोट पर किंग जॉर्ज VI (King George VI) का चित्र जारी किया। धीरे-धीरे ₹10, ₹100, ₹1000 और ₹10,000 के नोट सामने आए, जो भारत के आर्थिक विकास और लेन-देन की नई पहचान बनते गए।

रिज़र्व बैंक की स्थापना और आज़ाद भारत में मुद्रा की सांस्कृतिक पहचान

15 अगस्त 1947 को जब भारत आज़ाद हुआ, तो आर्थिक आज़ादी भी ज़रूरी थी। इसी सोच के साथ भारतीय मुद्रा में अंग्रेज़ी प्रतीकों की जगह भारतीय संस्कृति को महत्व दिया गया। 1949 में एक रुपये के नोट पर सारनाथ का अशोक स्तंभ — हमारा राष्ट्रीय प्रतीक — छापा गया, जो आज भी हर नोट पर गर्व से अंकित है।

1969 में महात्मा गांधी के जन्म शताब्दी वर्ष में उन्हें सेवाग्राम आश्रम के सामने बैठे हुए दर्शाने वाला ₹100 का स्मारक नोट जारी किया गया। 1987 में पहली बार मुस्कुराते हुए गांधीजी की तस्वीर ₹500 के नोट पर आई, और आज भारत की हर मुद्रा पर उनकी उपस्थिति एक स्थायी पहचान बन चुकी है।

1953 से नोटों पर हिंदी भाषा को प्रमुखता दी गई और ‘रुपये’ शब्द के प्रयोग को औपचारिक मान्यता मिली। 1954 में ₹1000, ₹5000 और ₹10,000 के उच्च मूल्यवर्ग के नोट जारी किए गए, जिनमें सांस्कृतिक प्रतीक जैसे तंजावुर मंदिर और गेटवे ऑफ इंडिया दर्शाए गए। हालाँकि 1978 में इन ऊँचे मूल्य वाले नोटों को बंद कर दिया गया, जिससे मुद्रा व्यवस्था में पारदर्शिता और नियंत्रण बना रहे।

नकली नोटों की चुनौती और महात्मा गांधी सीरीज़ की सुरक्षा विशेषताएँ

20वीं सदी के अंतिम दशकों में जब मुद्रण और स्कैनिंग तकनीकें उन्नत हुईं, तो नकली नोटों की समस्या गंभीर होती गई। इससे निपटने के लिए 1996 में रिज़र्व बैंक ने ‘महात्मा गांधी श्रृंखला’ शुरू की, जिसमें नई सुरक्षा तकनीकों को शामिल किया गया। इस श्रृंखला के तहत वॉटरमार्क, माइक्रो-लेटरिंग, सिक्योरिटी थ्रेड और गुप्त छवियों के साथ-साथ इंटैग्लियो छपाई (raised printing) को शामिल किया गया, ताकि दृष्टिबाधित लोग भी मुद्रा को पहचान सकें। इन तकनीकों ने न केवल नकली नोटों की पहचान को आसान बनाया, बल्कि लोगों का भरोसा भी बढ़ाया। मेरठ जैसे आर्थिक रूप से सक्रिय शहर में जहाँ नक़दी का भारी उपयोग होता है, वहाँ यह सुरक्षा व्यवस्था विशेष रूप से महत्वपूर्ण साबित हुई।

संदर्भ-

https://tinyurl.com/45f8jy2t 

https://tinyurl.com/3b34zmxh 

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