क्यों दशहरे का हर रंग, मेरठवासियों को देश की सांस्कृतिक विविधता से जोड़ता है?

विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
02-10-2025 09:08 AM
क्यों दशहरे का हर रंग, मेरठवासियों को देश की सांस्कृतिक विविधता से जोड़ता है?

मेरठवासियों, दशहरा आपके लिए केवल रामलीला ग्राउंड (ground) में रावण दहन देखने का उत्सव भर नहीं है। यह पर्व उस विशाल सांस्कृतिक विरासत का उत्सव है, जिसमें भारत की विविध परंपराएँ, लोक मान्यताएँ और सामाजिक मूल्यों की गहरी परछाइयाँ दिखाई देती हैं। दशहरा एक ऐसा पर्व है, जो हमें याद दिलाता है कि अच्छाई और नैतिकता की राह चाहे कितनी ही कठिन क्यों न हो, उसकी विजय निश्चित है - और यही संदेश हर राज्य, हर शहर और हर समुदाय अपने-अपने तरीकों से व्यक्त करता है। मेरठ के ऐतिहासिक रामलीला मैदानों में जब राम, लक्ष्मण और हनुमान की गाथाएँ मंचित होती हैं, और रावण, कुंभकरण व मेघनाद के विशाल पुतलों को अग्नि के हवाले किया जाता है, तो वह केवल नाट्य नहीं होता - वह हमारी सामूहिक स्मृति का जीवंत प्रदर्शन होता है। लेकिन यही पर्व जब आप कुल्लू की घाटियों में मनता देखेंगे, तो वहाँ रावण दहन की जगह देवी-देवताओं की झांकियाँ निकलती हैं। मैसूर में दशहरे की रातें राजसी रथयात्रा और चामुंडेश्वरी के दिव्य श्रृंगार से जगमग करती हैं, जबकि बंगाल में यह पर्व देवी दुर्गा की शक्ति के रूप में शक्ति-साधना और सांस्कृतिक उत्सव बनकर उभरता है। इसलिए, दशहरा केवल ‘एक दिन’ नहीं है - यह भारत की धार्मिक आस्था, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि चाहे हम मेरठ में हों या मणिपुर में, हमारी परंपराएं भले अलग हों, लेकिन मूल भावना - सत्य की विजय, अधर्म का पराभव और मानव मूल्यों की स्थापना - हर स्थान पर समान रूप से गूंजती है। इस दशहरे, आइए हम केवल रावण का दहन न देखें, बल्कि इस पर्व के पीछे छिपे विशाल भारतीय चिंतन को भी महसूस करें - और गर्व करें कि हम एक ऐसे देश के नागरिक हैं, जहां विविधता में ही हमारी सबसे बड़ी शक्ति बसती है।
इस लेख में हम जानेंगे कि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में दशहरे को किस तरह अनूठे रंगों और परंपराओं के साथ मनाया जाता है। सबसे पहले हम दक्षिण भारत की ओर रुख करेंगे, जहाँ मैसूर और तमिलनाडु में दशहरे का राजसी और पारंपरिक स्वरूप देखने को मिलता है। इसके बाद, हम पूर्वी भारत में चलेंगें, जहाँ बंगाल, त्रिपुरा और उड़ीसा में दुर्गा पूजा के माध्यम से यह पर्व पूरी सामाजिक और सांस्कृतिक गरिमा के साथ मनाया जाता है। फिर हम उत्तर भारत की चर्चा करेंगे, जहाँ दशहरा रामलीला, रावण दहन और धार्मिक नाटकों के रूप में समाज की धार्मिक चेतना से जुड़ा है। अंत में हम पश्चिम व मध्य भारत जैसे गुजरात और छत्तीसगढ़ तथा हिमाचल के कुल्लू जैसे हिमालयी क्षेत्रों में मनाए जाने वाले दशहरे की भिन्न-भिन्न परंपराओं और सामाजिक सरोकारों को भी गहराई से समझेंगे।

दक्षिण भारत का दशहरा - मैसूर और तमिलनाडु की राजसी परंपराएं
दक्षिण भारत में दशहरा केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि सांस्कृतिक वैभव और भव्यता की एक जीवंत मिसाल है। मैसूर का दशहरा पूरे भारत में राजसी परंपराओं और शाही आयोजन के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि वाडियार राजवंश के समय से यह परंपरा चली आ रही है। दशमी की रात जब ऐतिहासिक मैसूर महल हज़ारों बल्बों और दीपों की रोशनी में नहाया होता है, तो वह दृश्य मानो इतिहास के किसी पन्ने से निकलकर साक्षात आपके सामने आ जाता है। इस दिन देवी चामुंडेश्वरी की सजी-धजी प्रतिमा को हाथी पर विराजमान कर एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है, जो महल से निकलकर पूरे शहर में भ्रमण करती है। इसके अलावा पारंपरिक संगीत, नृत्य, सैन्य परेड (military parade) और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी इस आयोजन का हिस्सा होते हैं। वहीं दूसरी ओर, तमिलनाडु में दशहरा ‘गोलू’ या ‘बोम्मई कोलू’ नामक परंपरा के साथ मनाया जाता है, जिसमें घरों में लकड़ी और मिट्टी की गुड़ियों को सुसज्जित ढंग से सीढ़ीनुमा ढांचे पर सजाया जाता है। ये गुड़ियाँ पौराणिक कथाओं, धार्मिक घटनाओं और समकालीन समाज की झांकियों को दर्शाती हैं। दशहरे के इन नौ दिनों में घर-घर पूजा होती है, विशेषकर देवी लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की। विवाहित महिलाएं एक-दूसरे के घरों में जाकर कुमकुम, चूड़ियाँ, सुपारी, नारियल आदि उपहार स्वरूप देती हैं। यह न केवल धार्मिक भावना को बल देता है, बल्कि सामाजिक मेलजोल और स्त्रियों के आपसी संबंधों को भी सुदृढ़ करता है।

पूर्व भारत का दशहरा - बंगाल, त्रिपुरा और उड़ीसा में दुर्गा पूजा की भव्यता
पूर्व भारत में दशहरा का अर्थ दुर्गा पूजा है - एक ऐसा आयोजन जो शक्ति की उपासना और सामाजिक सामूहिकता दोनों का उत्सव है। बंगाल, त्रिपुरा और उड़ीसा में यह पर्व महिषासुर मर्दिनी के रूप में देवी दुर्गा की विजय के स्मरण में मनाया जाता है। यहाँ दशहरा ‘विजयादशमी’ कहलाता है, जो दुर्गा पूजा के पांच दिवसीय समारोह का अंतिम दिन होता है। पंडालों की भव्य सजावट, मूर्तियों की कलात्मकता, और पारंपरिक संगीत व नृत्य इन दिनों हर गली और मोहल्ले में जीवन्त हो जाते हैं। देवी की मूर्तियों का विसर्जन एक भावुक क्षण होता है, जब भक्त 'शुभो बिजोया' कहते हुए माँ दुर्गा को विदाई देते हैं। इस क्षेत्र में दशहरा केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक सहभागिता का अद्भुत संगम है। कविता पाठ, नृत्य प्रतियोगिता, पेंटिंग प्रदर्शनी (Painting Exhibition) और पारंपरिक भोजन का वितरण इस पर्व को एक बहुआयामी उत्सव बनाते हैं। महिलाएं विशेष तौर पर ‘सिंदूर खेला’ करती हैं - वे एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं और वैवाहिक सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। यह परंपरा बंगाल की स्त्री-शक्ति की सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है। यहाँ दशहरे की आस्था शक्ति में निहित है, और रावण-दहन जैसी उत्तर भारतीय परंपराएं नहीं होतीं।

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उत्तर भारत का दशहरा - रामलीला, रावण वध और धार्मिक नाट्य परंपराएं
उत्तर भारत में दशहरा राम की मर्यादा, नाटक के रस और सामूहिक स्मृति का महोत्सव है। विशेषकर दिल्ली, मेरठ और वाराणसी जैसे शहरों में दशहरे का मतलब है रामलीला मैदान की भीड़, नायक राम का जयघोष और अंत में रावण, कुंभकरण और मेघनाद के विशाल पुतलों का दहन। इन शहरों में रामलीला नौ दिनों तक चलती है, जिसमें गाँव-गाँव के कलाकार भगवान राम के जीवन को मंचित करते हैं। हर रात दर्शक इन लीलाओं को देख, धर्म और नीति की शिक्षा ग्रहण करते हैं। पंजाब में दशहरा शक्ति उपासना और भक्ति के संगम के रूप में मनाया जाता है। यहाँ नवरात्रि के पहले सात दिनों तक लोग उपवास रखते हैं और रात्रि में जगराते का आयोजन करते हैं। अष्टमी को 'कंजक पूजन' होता है, जिसमें नौ कन्याओं को देवी के स्वरूप मानकर भोजन कराया जाता है। यह परंपरा नारी शक्ति के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। इस क्षेत्र में दशहरा सिर्फ रावण वध नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, धर्मपरायणता और सांस्कृतिक एकता का पर्व भी है।

पश्चिम और मध्य भारत में दशहरा - गुजरात, छत्तीसगढ़ और अन्य रंगबिरंगे स्वरूप
पश्चिम भारत, खासकर गुजरात, दशहरे को नवरात्रि के नौ रंगीन रातों के रूप में देखता है। यहाँ गरबा और डांडिया सिर्फ नृत्य नहीं, बल्कि एक धार्मिक साधना का रूप है। लोग पारंपरिक पोशाकें पहनकर देवी की आराधना करते हुए सैकड़ों की संख्या में मैदानों और मंदिरों के प्रांगण में एकत्रित होते हैं। यह परंपरा गुजरात की सांस्कृतिक ऊर्जा, सामूहिकता और स्त्री शक्ति की अभिव्यक्ति है। वहीं मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में दशहरा की परंपराएं सबसे अद्वितीय हैं। यहाँ का बस्तर दशहरा 75 दिनों तक चलता है - यह न केवल भारत, बल्कि विश्व का सबसे लंबा चलने वाला दशहरा उत्सव माना जाता है। इस क्षेत्र में देवी दंतेश्वरी की पूजा की जाती है, और उनकी झांकियाँ निकाली जाती हैं। अनुष्ठान जैसे पाटा जात्रा (लकड़ी की पूजा), डेरी गढ़ाई (कलश की स्थापना), मुरिया दरबार (जनजातीय सम्मेलन) और ओहदी (देवताओं की विदाई) - सभी इस पर्व को स्थानीय जनजातीय आस्था और संस्कृति से जोड़ते हैं। यह पर्व आध्यात्म, प्रकृति और परंपरा का त्रिकोणीय संगम है।

हिमालयी परंपरा - कुल्लू दशहरा की अनोखी धार्मिक व्याख्या
हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में दशहरा एक पूरी तरह से अलग रूप ले लेता है। यहाँ ना तो रावण के पुतले जलाए जाते हैं, ना रामलीला होती है - बल्कि यहाँ भगवान रघुनाथ जी की शोभायात्रा निकाली जाती है। कहते हैं कि 17वीं सदी में राजा जगत सिंह ने रघुनाथ जी को कुल्लू राज्य का अधिष्ठाता देवता घोषित किया था। तभी से ढालपुर मैदान इस उत्सव का केंद्र बना। इस दौरान कुल्लू की हर घाटी, हर गांव से देवी-देवताओं की मूर्तियाँ सज-धज कर जुलूस में लाई जाती हैं। यह ना सिर्फ धार्मिक एकता का प्रतीक है, बल्कि कुल्लू के सामूहिक सामाजिक जीवन की गहराई को भी दर्शाता है। दशहरे की समाप्ति ‘लंका दहन’ के प्रतीक रूप में होती है, जहां झाड़ियों में आग लगाई जाती है - यह प्रतीकात्मक लंका है। कुल्लू दशहरा सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक उत्सव, धार्मिक श्रद्धा और लोक परंपरा का संगम है - जो यह सिखाता है कि हर पर्व की गहराई उसके सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ में ही निहित होती है।

संदर्भ-
https://short-link.me/1deyI 

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