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रामपुर की गलियों में गूंजते शेर-ओ-शायरी के तराने इसकी काव्यात्मक विरासत की झलक पेश करते हैं। यह वह सरज़मीं है, जहां निज़ाम रामपुरी, क़ाएम चाँदपुरी, मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल, जावेद कमाल रामपुरी, क़ाबिल अजमेरी, रसा रामपुरी, शाद आरफ़ी, रशीद रामपुरी, सौलत अली ख़ाँ रामपुरी और सीन शीन आलम जैसे बेहतरीन शायरों ने अपने लफ़्ज़ों से इतिहास को सजाया। नवाब रज़ा अली ख़ान न सिर्फ़ रामपुर के शासक थे, बल्कि ख़ुद भी एक उम्दा कवि और कलाकार थे। मिर्ज़ा ग़ालिब के नवाबों से क़रीबी रिश्ते थे और वे लंबे समय तक रामपुर में रहे। यही वजह थी कि यह इलाक़ा धीरे-धीरे विद्वानों, बुद्धिजीवियों और महान कवियों का केंद्र बन गया।
लेकिन इस समृद्ध शायरी की रवायत में अमीर ख़ुसरो का नाम सबसे पहले गूंजता है। उनकी रचनाएँ रामपुर की हवाओं में आज भी महसूस की जा सकती हैं। वे केवल एक कवि नहीं, बल्कि शब्दों के ऐसे जादूगर थे, जिन्होंने साहित्य को नई ऊँचाइयाँ दीं। फ़ारसी, हिंदवी और अरबी जैसी भाषाओं में उन्होंने प्रेम, भक्ति और जीवन के गहरे भावों को सरल लेकिन प्रभावी अंदाज़ में व्यक्त किया। ग़ज़ल और ख़याल जैसी काव्य शैलियों को जन्म देकर उन्होंने कविता की दुनिया में एक नया अध्याय जोड़ा।
उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ—तुफ़हत-उल-सिग़र, वस्त-उल-हयात, नुह-सिपिह़र और ख़ज़ाइन-उल-फुतूह—आज भी साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा बनी हुई हैं। इसलिए आज के इस लेख में हम जानेंगे कि अमीर ख़ुसरो ने भारतीय फ़ारसी साहित्य को कैसे समृद्ध किया और उनकी कविताओं व गद्य पर उनकी छाप कैसी रही। फिर हम उनकी प्रसिद्ध कृति नुह-सिपिह़र की गहराइयों में उतरेंगे और इसके विषयों व सांस्कृतिक महत्व को समझेंगे। अंत में, हम उनकी प्रमुख पुस्तकों पर एक नज़र डालेंगे और देखेंगे कि उनकी लेखनी आज भी साहित्यिक जगत में कैसे जीवंत बनी हुई है।
1253 में पटियाली (ज़िला कासगंज, उत्तर प्रदेश) की ज़मीन पर अमीर ख़ुसरो नाम का एक ऐसा सितारा जन्मा, जिसने साहित्य और संगीत की दुनिया को नई रोशनी दी। उनके पिता दिल्ली सल्तनत में एक तुर्की अधिकारी थे, जिन्होंने उन्हें धर्मशास्त्र, फ़ारसी भाषा और क़ुरान की गहरी शिक्षा दिलाई, जबकि उनकी माँ हिंदुस्तानी मूल की थीं। इस दोहरी सांस्कृतिक विरासत ने ख़ुसरो को भारतीय लोकभाषाओं और परंपराओं के प्रति गहरा लगाव दिया, जिसने उनकी लेखनी को एक अनूठी पहचान दी।
अमीर ख़ुसरो भारतीय फ़ारसी साहित्य के सबसे प्रभावशाली स्तंभों में से एक माने जाते हैं। उनकी रचनाएँ केवल साहित्यिक धरोहर नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति का अनमोल हिस्सा हैं। वे न केवल एक महान कवि थे, बल्कि एक संगीतकार और विद्वान भी थे, जिन्होंने फ़ारसी साहित्य पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनकी लेखनी ने फ़ारसी भाषा को नई ऊँचाइयाँ दीं और भारतीय उपमहाद्वीप में इसके विकास को गति प्रदान की।
ख़ुसरो की कविताएँ उनकी गहरी सोच, वाक्पटुता और साहित्यिक कौशल की गवाही देती हैं। वे केवल शब्दों के जादूगर नहीं थे, बल्कि उन्होंने फ़ारसी भाषा को नए आयाम दिए, जिसे आने वाली पीढ़ियों ने संजोकर रखा। उनकी रचनाएँ सदियों से गूंज रही हैं! भारतीय फ़ारसी साहित्य को नया स्वरूप देने में उन्होंने क्रांतिकारी भूमिका निभाई।
अमीर ख़ुसरो केवल कवि नहीं थे, वे कविता, संगीत, रहस्यवाद और विद्वत्ता का संगम थे। उनका प्रभाव दक्षिण एशिया की सांस्कृतिक विरासत पर अमिट है। तेरहवीं सदी के इस महान साहित्यकार की विरासत आज भी न केवल जीवंत है, बल्कि भारतीय कला, साहित्य और संगीत को दिशा देने का काम कर रही है।
आइए अब विभिन्न क्षेत्रों में अमीर ख़ुसरो के बहुमूल्य योगदान पर एक नज़र डालते हैं:
इस ग्रंथ को एक विश्वकोश की तरह देखा जाता है, जिसमें उस समय के भारत का व्यापक चित्रण मिलता है। इसमें अमीर ख़ुसरो ने पक्षियों, जानवरों, फूलों, पेड़ों, लोगों, संस्कृति, धर्म, भाषाओं और रीति-रिवाजों के बारे में विस्तार से लिखा है। उनके सूफ़ी दृष्टिकोण ने उन्हें भारत के हर पहलू को गहराई से समझने और सराहने की प्रेरणा दी। यही कारण है कि उन्होंने हिंदू रीति-रिवाजों और परंपराओं की भी सराहना की।
इस किताब का अंग्रेज़ी अनुवाद आर. नाथ और फ़ैज़ 'ग्वालियरी' ने किया है, जिसका शीर्षक "इंडिया ऐज़ सीन बाय अमीर ख़ुसरो (India as Seen by Amir Khusro)" है।
अमीर ख़ुसरो की ये रचनाएँ न केवल ऐतिहासिक महत्व रखती हैं, बल्कि उनके साहित्यिक कौशल को भी दर्शाती हैं। उनकी लेखनी ने भारतीय उपमहाद्वीप के साहित्य और इतिहास को समृद्ध किया। लफ्ज़ों और सुरों के जादूगर, अमीर ख़ुसरो, पहले ऐसे कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों को अपनी शायरी में खुलकर अपनाया। वे केवल एक लेखक नहीं, बल्कि भाषाओं के संगम के प्रतीक थे! हिंदी, हिंदवी और फ़ारसी में उन्होंने समान अधिकार से लेखन किया। खड़ी बोली के जन्मदाता माने जाने वाले ख़ुसरो की पहेलियाँ और मुकरी आज भी लोकप्रिय हैं। उन्होंने न केवल भारतीय संस्कृति को समृद्ध किया, बल्कि उससे प्रेरणा भी ली।
एक बार अपने आध्यात्मिक गुरु, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को प्रसन्न करने के लिए अमीर ख़ुसरो ने ‘सकल बन’ नामक एक कृति की रचना की थी! आज ‘सकल बन’ सिर्फ़ एक गीत नहीं, बल्कि भक्ति और भावनाओं की अमूल्य विरासत माना जाता है।
कहते हैं, जब हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया अपने भतीजे ख्वाजा तकीउद्दीन नूह के निधन के शोक में डूबे थे, तो उनके अनुयायी उन्हें मुस्कुराते देखने के लिए व्याकुल थे। इसी दौरान, ख़ुसरो ने बसंत पंचमी पर हिंदू महिलाओं को पीले वस्त्र धारण कर, सरसों के फूल चढ़ाते देखा। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि यह भगवान को प्रसन्न करने की एक परंपरा है, तो उन्होंने भी वही किया! वह भी पीले वस्त्र पहने, फूल लिए और ‘सकल बन’ गाते हुए अपने गुरु के सामने पहुंचे। यह देख हज़रत मुस्कुरा उठे। तभी से दरगाह में बसंत पंचमी मनाने की परंपरा शुरू हुई, जहाँ भक्त आज भी पीले वस्त्र पहनकर कव्वाली गाते हैं।
आज, ‘सकल बन’ एक बार फिर संजय लीला भंसाली की ‘हीरामंडी’ में एक गीत के रूप में जीवंत हुआ है। यह गीत केवल धुनों का मेल नहीं, बल्कि दो संस्कृतियों के संगम, धार्मिक सहिष्णुता और कालातीत कला का प्रतीक है। अमीर ख़ुसरो की विरासत उनकी कविताओं, संगीत और सूफ़ी प्रेम में जीवित है, जो आने वाली पीढ़ियों को जोड़ती रहेगी।
संदर्भ
मुख्य चित्र में अमीर ख़ुसरों की तस्वीर का स्रोत : Wikimedia, Pick-Pik
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