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भारतीय शास्त्रीय कला और सौंदर्यशास्त्र की परंपरा में 'रस' और 'भाव' की अवधारणाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। नाट्यशास्त्र के अनुसार, ये दोनों तत्त्व किसी भी कला के जीवंत अनुभव और दर्शक के मन में उत्पन्न भावनात्मक प्रतिक्रिया का मूल आधार हैं। 'रस' अनुभव है, जबकि 'भाव' उसका उद्गम। इन दो अवधारणाओं के माध्यम से भारतीय कलाओं ने आत्मा और चेतना को छूने वाली गहराई हासिल की है।
पहले, हम 'रस' की परिभाषा, उसके प्रकार और कलाओं में उसकी भूमिका पर ध्यान देंगे। फिर हम 'भाव' की व्याख्या करेंगे और देखेंगे कि कैसे ये भाव 'रस' के निर्माण में सहायक होते हैं। इसके बाद, हम यह समझेंगे कि नाट्यशास्त्र में रस और भाव के संबंध को किस प्रकार संरचित किया गया है। अंत में, हम इन अवधारणाओं के कलात्मक प्रदर्शन और दर्शक अनुभव में प्रभाव की तुलना करेंगे, जिससे स्पष्ट होगा कि भारतीय सौंदर्यशास्त्र में रस-भाव कैसे केंद्रीय तत्त्व हैं।

रस: भारतीय कला का मौलिक तत्व
'रस' का शाब्दिक अर्थ है 'स्वाद' या 'आनंद', लेकिन इसका वास्तविक अर्थ दर्शक के मन में उत्पन्न होने वाले उस भावात्मक स्वाद से जुड़ा है जो किसी कला रूप से उत्पन्न होता है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में रस को कला का मुख्य उद्देश्य माना गया है। रस वह अनुभव है जो किसी नृत्य, संगीत, नाटक या कविता के माध्यम से दर्शक के भीतर जागृत होता है, और यह उसके मानसिक और भावनात्मक अनुभव को समृद्ध करता है।
भरतमुनि ने रसों को आठ प्रमुख श्रेणियों में बांटा है:
इसके अतिरिक्त, शांत रस को भी एक नौवें रस के रूप में जोड़ा गया है, जो शांति, संतुलन और समर्पण का प्रतीक है।

भाव: रस की उत्पत्ति का स्रोत
'भाव' वह मानसिक स्थिति या आंतरिक अवस्था है जो कलाकार के माध्यम से दर्शक में स्थानांतरित होती है और रस के निर्माण में सहायक होती है। भावों को नाट्यशास्त्र में तीन मुख्य श्रेणियों में बाँटा गया है:
इन भावों का प्रभाव सीधे तौर पर रस के अनुभव पर पड़ता है, और ये कलात्मक प्रदर्शन को जीवनदायिनी ऊर्जा प्रदान करते हैं।

नाट्यशास्त्र में रस और भाव का संबंध
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में रस और भाव का संबंध अत्यंत गूढ़ और व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया गया है। नाट्यकला में भावों की अभिव्यक्ति और उनके माध्यम से रस की अनुभूति ही कला का प्रमुख लक्ष्य है। कलाकार की भूमिका केवल अभिनय करना नहीं, बल्कि भावों को इस प्रकार प्रस्तुत करना है कि वे दर्शक के भीतर ठीक उसी प्रकार के अनुभव जगाएँ, जो कलाकार स्वयं महसूस कर रहा है। इस आदान-प्रदान को ही 'रस निष्पत्ति' कहते हैं। यह प्रक्रिया दर्शक की संवेदनशीलता, कलाकार की प्रस्तुति कौशल और विषयवस्तु की गहराई पर आधारित होती है। नाट्यशास्त्र में यह स्पष्ट किया गया है कि रस का निर्माण केवल दर्शक की मानसिकता और कलाकार की प्रस्तुति के बीच के संबंध से होता है।

दर्शक अनुभव में रस-भाव का प्रभाव
कलात्मक प्रस्तुति में रस और भाव दर्शक को केवल दृश्य आनंद नहीं प्रदान करते, बल्कि वह मानसिक और आत्मिक रूप से एक नए अनुभव से गुजरता है। नृत्य में अभिनय, संगीत में राग, और नाटक में संवाद के माध्यम से जब कलाकार भावों को प्रकट करता है, तो दर्शक उन भावों में डूब जाता है। यह रस-भाव का प्रभाव ही है जो दर्शक को कला से जोड़ता है और उसे केवल देखने वाला नहीं, बल्कि उसमें सहभागी बना देता है। भारतीय सौंदर्यशास्त्र में यही सहभागिता कलात्मक उत्कृष्टता की कसौटी है। इसके अलावा, रस और भाव का प्रभाव दर्शक के मानसिक और भौतिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। कलाकार की प्रस्तुति में निहित भाव और रस दर्शक को शांति, सुख और मानसिक संतुलन प्रदान कर सकते हैं, जो भारतीय कला का अद्वितीय योगदान है।
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