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रामपुरवासियों, क्या आपने कभी अपने दादा की अलमारी में रखी वह पुरानी घड़ी देखी है, जो हर सुबह ठीक 8 बजे की टिक-टिक से पूरे घर को जगा देती थी? ज़रा सोचिए, जब रामपुर की गलियों में उर्दू शायरी की महक और इत्र की खुशबू तैर रही थी, उसी वक़्त हर कलाई पर जो टिक-टिक चलती थी, वह एचएमटी (HMT)की घड़ी थी। यह घड़ी केवल समय दिखाने का यंत्र नहीं थी, बल्कि शान, सौम्यता और स्वदेशी गौरव का प्रतीक थी। आज जब डिजिटल घड़ियों और स्मार्टवॉच का दौर है, तो एचएमटी की वह सरल टिक-टिक हमारे बीते वक्त की ख़ूबसूरत गूंज बन चुकी है। यह लेख उस विरासत को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश है, जिसे रामपुर जैसे सांस्कृतिक और कलात्मक शहर ने भी बड़े प्रेम से अपनाया था।
इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे एचएमटी घड़ियों की स्थापना हुई और यह आम लोगों की पहचान बनी। हम उनके लोकप्रिय मॉडलों को समझेंगे, तकनीकी नवाचारों की झलक पाएंगे, और टाइटन जैसी कंपनियों के उदय से एचएमटी को हुए नुकसान पर भी बात करेंगे। अंत में, हम यह भी देखेंगे कि आज की पीढ़ी में यह विरासत किस रूप में जीवित है, विशेषकर रामपुर जैसे शहरों में।
एचएमटी घड़ियों की स्थापना और प्रारंभिक लोकप्रियता
एचएमटी (Hindustan Machine Tools) की शुरुआत 1961 में हुई थी, जब भारत सरकार ने जापान की प्रतिष्ठित सिटीजन वॉच कंपनी के साथ मिलकर बेंगलुरु में पहला घड़ी निर्माण संयंत्र स्थापित किया। यह वही समय था जब भारत तकनीकी आत्मनिर्भरता की ओर पहला कदम बढ़ा रहा था। 1963 में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा ‘जनता’ नाम की पहली यांत्रिक घड़ी को लॉन्च किया गया। देखते ही देखते यह घड़ी हर आम भारतीय की कलाई पर दिखने लगी।
रामपुर में, जहां नवाबी तहज़ीब के साथ-साथ परंपराओं का गहरा संबंध रहा है, वहाँ एचएमटी घड़ियों ने बड़ी आसानी से अपना स्थान बना लिया। यह घड़ियाँ शादी-ब्याह, रोज़गार, परीक्षा पास करने जैसे शुभ अवसरों पर गिफ्ट की जाती थीं। आज भी पुरानी दुकानों में एचएमटी के बैनर धूल में लिपटे हुए दिख जाते हैं, लेकिन उनके पीछे छिपी स्मृतियाँ अब भी साफ़ हैं।
'जनता', 'पायलट', 'झलक' जैसे लोकप्रिय मॉडलों की विशेषताएँ
एचएमटी के पास हर वर्ग के लिए अलग मॉडल थे – ‘जनता’ आम आदमी के लिए था – मजबूत, सादा और विश्वसनीय। ‘पायलट’ उन युवाओं के लिए था जो थोड़ा हटकर चाहते थे – इसका डायल बड़ा और भारी होता था। ‘झलक’ महिलाओं के लिए डिज़ाइन किया गया एक सुंदर और पतला मॉडल था, जो महिलाओं की घुटनों तक झूमती साड़ियों और परंपरागत अंदाज़ से मेल खाता था। 'सोना' और 'कोहिनूर' जैसे मॉडल उत्सवों और पारिवारिक उपहारों में बहुत लोकप्रिय थे। बाज़ारों पर एचएमटी की घड़ियाँ इतनी आसानी से मिलती थीं कि ग्राहक सिर्फ अपनी पसंद बताता और दुकानदार उसे तीन-चार मॉडल तुरंत दिखा देता। उन दिनों हर घर में एक न एक एचएमटी ज़रूर होती थी – चाहे पहनने के लिए या वारिस के तौर पर सहेजकर रखने के लिए।
एचएमटी का तकनीकी नवाचार और विनिर्माण विस्तार
एचएमटी केवल एक उत्पादक नहीं, बल्कि तकनीकी नवाचार का प्रतीक था। भारत की पहली ब्रेल घड़ी, क्वार्ट्ज घड़ी, डे-डेट ऑटोमैटिक घड़ी – सभी इसी कंपनी ने बनाई। एचएमटी की घड़ियाँ 100% भारत में बनी होती थीं और उनकी गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दिया जाता था। एक घड़ी बनने में दर्जनों परीक्षण होते थे – जल परीक्षण, धूल परीक्षण, स्प्रिंग तनाव, और भी बहुत कुछ।
बेंगलुरु के बाद एचएमटी ने श्रीनगर, रानीबाग, तुमकुर और दिल्ली में नई इकाइयाँ स्थापित कीं। 1980 के दशक तक कंपनी हर साल करीब 70 लाख घड़ियाँ बना रही थी। यह एक प्रेरणादायक उदाहरण था कि सरकारी उपक्रम भी विश्वस्तरीय गुणवत्ता और तकनीक में अग्रणी हो सकते हैं। इस नवाचार ने देश में एक तकनीकी आत्मनिर्भरता की भावना को जन्म दिया, जो आज ‘मेक इन इंडिया’ के रूप में पुनर्जीवित हो रही है।
बाज़ार में प्रतिस्पर्धा, टाइटन का आगमन और एचएमटी का पतन
1987 में टाटा समूह और टिडको (TIDCO )के संयुक्त प्रयास से जब टाइटन ने भारतीय बाज़ार में प्रवेश किया, तब एचएमटी को हल्का प्रतिस्पर्धी माना गया। लेकिन टाइटन ने बाज़ार की नब्ज को समझा – युवा डिज़ाइनों, पतली घड़ियों और आकर्षक विज्ञापनों के ज़रिए उसने एचएमटी की लोकप्रियता को पीछे छोड़ दिया।
एचएमटी ने तकनीकी रूप से क्वार्ट्ज घड़ियाँ पहले ही बना ली थीं, लेकिन उनके डिज़ाइन पुराने लगते थे और कीमतें भी अपेक्षाकृत अधिक थीं। सरकार ने जब क्वार्ट्ज कंपोनेंट्स पर आयात शिथिल किया, तो विदेशी ब्रांडों की घड़ियाँ भी बाज़ार में आ गईं। एचएमटी इन सब बदलावों के अनुरूप खुद को ढाल नहीं सका। अंततः, 2016 में सरकार ने इसके अंतिम संयंत्र को बंद करने का फैसला लिया।
भारतीय घड़ी संस्कृति में एचएमटी का ऐतिहासिक महत्व और वर्तमान स्थिति
आज एचएमटी भले ही बाज़ार से लुप्त हो गई हो, लेकिन इसका प्रभाव आज भी ज़िंदा है – संग्रहकर्ताओं की अलमारियों में, ऑनलाइन नीलामियों में और उन पुरानी अलमारियों में जहाँ एक एचएमटी 'जनता' अभी भी चुपचाप समय के साथ चल रही है। रामपुर में ऐसे कई घर हैं, जहाँ दादा की घड़ी को पोते ने मरम्मत करवा कर पहना है – यह केवल एक विरासत नहीं, एक भावनात्मक कड़ी है। आज सोशल मीडिया पर एचएमटी फैन क्लब सक्रिय हैं, जहाँ पुराने मॉडल के बारे में जानकारी साझा की जाती है और उनकी मरम्मत की तकनीकें सिखाई जाती हैं। यह केवल घड़ी का नहीं, बल्कि भारत की आत्मनिर्भरता, शिल्प कौशल और सांस्कृतिक गरिमा का प्रतीक बन चुका है।
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