सर्दियों की गर्मी या पर्यावरण पर बोझ? जानिए कोयले के लाभ-हानि की पूरी कहानी

नगरीकरण- शहर व शक्ति
26-07-2025 09:25 AM
सर्दियों की गर्मी या पर्यावरण पर बोझ? जानिए कोयले के लाभ-हानि की पूरी कहानी

रामपुर, मुरादाबाद, कानपुर जैसे उत्तर भारत के शहरों और आस-पास के गाँवों में सर्दी के मौसम में अलाव के पास बैठकर कोयले की गर्माहट लेना अब भी एक आम दृश्य है। वहीं, ग्रामीण घरों की रसोई में आज भी कोयले की अंगीठी में रोटी सेंकती माँ या दादी की छवि हमें हमारी जड़ों की याद दिलाती है। लेकिन आज जब दुनिया जलवायु संकट से गुजर रही है और हरित ऊर्जा की ओर बढ़ रही है, तो यह जरूरी हो गया है कि हम कोयले के फायदे और नुकसान दोनों को समझें। क्या यह सदियों पुराना ईंधन आज भी हमारे लिए सही विकल्प है?

इस लेख में हम कोयले की उपयोगिता और उससे जुड़े पर्यावरणीय तथा स्वास्थ्य प्रभावों को गहराई से जानने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम ग्रामीण जीवन में इसके पारंपरिक उपयोग को समझेंगे। फिर, कोयले के वैश्विक भंडार, इसके प्रकार और ऊर्जा दक्षता पर नजर डालेंगे। इसके बाद हम जानेंगे कि यह स्वास्थ्य और पर्यावरण पर कितना गहरा प्रभाव डालता है। लेख में हम एन्थ्रेसाइट (anthracite) कोयले जैसे “स्वच्छ विकल्पों” पर भी बात करेंगे और अंत में वैश्विक ईंधन बदलाव की दिशा में हो रहे प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करेंगे।

ग्रामीण जीवन में कोयले की पारंपरिक भूमिका और व्यापक उपयोग
भारत के गाँवों में कोयले का उपयोग केवल ईंधन भर नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का भी एक अभिन्न हिस्सा रहा है। ठंडी सुबहों में अंगीठी के चारों ओर बैठकर कोयले की गर्मी लेना, लोगों के आपसी संवाद और सामूहिकता को भी बढ़ाता है। कई क्षेत्रों में आज भी कोयले पर बनी रोटियों का स्वाद विशेष माना जाता है। इसके अलावा, कोयले की सहायता से दूध गर्म करना, चाय बनाना या धीमी आँच पर दाल पकाना एक पारंपरिक घरेलू परंपरा बनी हुई है। जिन घरों में बिजली या एलपीजी (LPG) की सुविधा नहीं है, वहाँ कोयला ही जीवनरेखा है। इसके सस्तेपन और लंबी अवधि तक जलने की विशेषता ने इसे गरीब और निम्न आयवर्ग के लिए प्राथमिक विकल्प बना दिया है। कई गरीब परिवारों के लिए कोयला इसलिए भी उपयोगी है क्योंकि वह गीले मौसम में भी आसानी से जल सकता है, जो लकड़ी से संभव नहीं हो पाता। कुछ इलाकों में कोयला बेचने का छोटा व्यवसाय भी होता है, जिससे कई ग्रामीणों को आय का स्रोत प्राप्त होता है। स्कूलों, पंचायत कार्यालयों, दुकानों और चाय की टपरियों तक में सर्दियों में कोयले की अंगीठियाँ देखी जा सकती हैं। इस प्रकार, कोयला केवल ऊर्जा नहीं, बल्कि ग्रामीण जीवन की दिनचर्या का एक आधार है।

कोयले के प्रकार, भंडार और वैश्विक उपयोग का परिप्रेक्ष्य
कोयला प्राकृतिक संसाधनों में सबसे पुराना और व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाला जीवाश्म ईंधन है। इसे इसके कार्बन सामग्री और ऊष्मा उत्पादन क्षमता के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में बाँटा गया है — लिग्नाइट (Lignite), बिटुमिनस (Bituminous), एन्थ्रेसाइट आदि। एन्थ्रेसाइट कोयला सबसे उच्च गुणवत्ता वाला होता है, जिसमें जलने पर सबसे अधिक ऊर्जा मिलती है और प्रदूषण कम होता है। भारत के झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में कोयले के सबसे बड़े भंडार स्थित हैं। वैश्विक स्तर पर अमेरिका, चीन और भारत प्रमुख उत्पादक हैं। चीन में कोयला बिजली उत्पादन के लिए सबसे प्रमुख स्रोत है। वहीं अमेरिका अब वैकल्पिक ऊर्जा की ओर बढ़ चुका है लेकिन वहाँ अब भी भारी उद्योगों में कोयले की मांग बनी हुई है। भारत में थर्मल पावर स्टेशनों के लिए कोयला मुख्य ईंधन है। वर्ष 2024 के आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल बिजली उत्पादन का 52% हिस्सा कोयले पर आधारित है। इसके अतिरिक्त, कुछ देशों में घरेलू उपयोग के लिए स्थानीय स्तर पर भी कोयला उपलब्ध कराया जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोयले का व्यापार और निर्यात भी बड़े पैमाने पर होता है, जिससे इसकी भूमिका केवल घरेलू ही नहीं, वैश्विक ऊर्जा अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण हो जाती है।


कोयले के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभाव: एक अदृश्य खतरा
कोयला जलने से निकलने वाले उत्सर्जनों में कई प्रकार के खतरनाक रसायन होते हैं, जिनमें कार्सिनोजेनिक (carcinogenic) पदार्थ, पारा (mercury), आर्सेनिक (arsenic), सीसा, सेलेनियम (selenium)और सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) प्रमुख हैं। ये पदार्थ मानव शरीर में जाकर साँस की बीमारियाँ, हृदय रोग और कैंसर जैसी घातक समस्याएँ उत्पन्न कर सकते हैं। विशेष रूप से महिलाएँ और छोटे बच्चे, जो रसोई में अधिक समय बिताते हैं, इसके प्रभाव में जल्दी आ जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, विश्वभर में लाखों लोग घरेलू कोयले के धुएँ के कारण इनडोर एयर पॉल्यूशन (indoor air pollution) का शिकार होते हैं। कोयला जलने से कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) का उत्सर्जन भी अत्यधिक होता है, जो ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) के स्तर को बढ़ाकर ग्लोबल वार्मिंग (global warming) को गति देता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, बीते 150 वर्षों में CO₂ का स्तर 265 PPM से बढ़कर 400+ PPM तक पहुँच चुका है — और इसका एक प्रमुख कारण कोयले का उपयोग ही है। यह न केवल जलवायु परिवर्तन का कारण बनता है, बल्कि इससे प्राकृतिक आपदाओं, फसल की असफलता और जल संकट जैसी समस्याएं भी जुड़ी हैं। जंगलों और ग्लेशियरों (glaciers) पर भी इसका सीधा असर देखा गया है। इतना ही नहीं, कोयले की खदानों और खनन क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिक भी अक्सर सांस संबंधी रोगों और त्वचा संक्रमणों से पीड़ित होते हैं। कुल मिलाकर, कोयले का दुष्प्रभाव केवल व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं रहता, यह पूरे पर्यावरण और समाज को प्रभावित करता है।

एन्थ्रेसाइट कोयला: कोयले का स्वच्छ विकल्प या भ्रम?
एन्थ्रेसाइट कोयला अन्य कोयलों की तुलना में अधिक परिष्कृत और स्वच्छ माना जाता है। इसमें स्थिर कार्बन (carbon) की मात्रा अधिक होती है, जिससे यह जलते समय अधिक ऊष्मा देता है और धुआं बहुत कम निकलता है। इसके जलने से कणीय उत्सर्जन (Particulate Matter) भी काफी कम होता है, जिससे इनडोर वायु गुणवत्ता (indoor air quality) बेहतर बनी रहती है। यह विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में लोकप्रिय है, जहाँ लोग पर्यावरणीय स्वास्थ्य के प्रति अधिक सजग हैं। इसका उपयोग छोटे हीटिंग सिस्टम (heating system), भट्ठियों और घरेलू अंगीठियों में किया जाता है। हालांकि, एन्थ्रेसाइट कोयले को "स्वच्छ" कहना एक सीमित अवधारणा है, क्योंकि यह भी अंततः एक जीवाश्म ईंधन ही है और इसमें CO₂ उत्सर्जन तो होता ही है। कुछ पर्यावरणविदों का मानना है कि इसे "कम नुकसानदेह" तो कहा जा सकता है, पर "स्वस्थ विकल्प" नहीं। इसके अलावा, यह अन्य कोयलों की तुलना में महंगा होता है, जिससे गरीब वर्ग के लिए इसकी सुलभता सीमित रहती है। कुछ क्षेत्रों में इसकी उपलब्धता भी समस्या बनी हुई है, जिससे इसकी आपूर्ति असंतुलित हो सकती है। यही कारण है कि सरकारें अब एन्थ्रेसाइट को केवल एक अंतरिम समाधान मान रही हैं, और दीर्घकालिक लक्ष्य के रूप में स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ रही हैं।

ऊर्जा संक्रमण और कोयले से दूर जाने की वैश्विक प्रवृत्ति
विकसित और विकासशील देशों में अब कोयले से दूर जाने की एक वैश्विक प्रवृत्ति तेजी से उभर रही है, जिसे फ्यूल स्विचिंग (Fuel Switching) के रूप में जाना जाता है। इसके तहत पारंपरिक कोयले से हटकर लोग एलपीजी, बायोगैस (biogas), बिजली और सौर ऊर्जा जैसे वैकल्पिक ईंधनों की ओर बढ़ रहे हैं। वर्ष 1990 के बाद से आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) देशों में आवासीय कोयले की खपत में 70% तक की गिरावट दर्ज की गई है। भारत में भी उज्ज्वला योजना जैसी सरकारी पहलों ने ग्रामीण महिलाओं को एलपीजी से जोड़ा है, जिससे कोयले पर निर्भरता घटी है। संयुक्त राष्ट्र और आईईए (IEA) जैसी संस्थाएँ भी देशों को ऊर्जा संक्रमण की दिशा में नीतिगत सहायता प्रदान कर रही हैं। वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने के लिए पेरिस समझौते जैसे प्रयास हो रहे हैं, जिनका लक्ष्य 2050 तक शुद्ध-शून्य (Net Zero) उत्सर्जन प्राप्त करना है। तकनीकी स्तर पर भी अब स्वच्छ ऊर्जा संसाधनों की कीमतें कम हो रही हैं, जिससे आम लोग भी इनका उपयोग कर पा रहे हैं। स्कूलों, अस्पतालों और शहरी रसोईघरों में अब सौर हीटर और इंडक्शन कुकिंग (induction cooking) जैसी विधियाँ लोकप्रिय हो रही हैं। यह बदलाव न केवल पर्यावरण के लिए हितकारी है, बल्कि दीर्घकालिक आर्थिक दृष्टिकोण से भी टिकाऊ है। सरकारों, उद्योगों और समाज को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि कोयले से दूर जाने का यह परिवर्तन समावेशी और न्यायसंगत हो।

संदर्भ -

https://tinyurl.com/43k2j247 

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