रामपुरवासियों, सुरंगों की दुनिया से जुड़ी एक सच्चाई जो जानना है ज़रूरी

खदान
29-07-2025 09:32 AM
रामपुरवासियों, सुरंगों की दुनिया से जुड़ी एक सच्चाई जो जानना है ज़रूरी

रामपुर, जो अपनी तहज़ीब, उर्दू अदब और ऐतिहासिक धरोहरों के लिए प्रसिद्ध है, वहां के निवासी आजकल देशभर में हो रही तकनीकी और सामाजिक चर्चाओं से जुड़ना चाहते हैं। नवंबर 2023 में उत्तराखंड की एक सुरंग में 41 श्रमिकों के फंसने की खबर ने पूरे देश को झकझोर दिया। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि उन्हें निकालने के लिए एक पारंपरिक और बेहद खतरनाक तकनीक का इस्तेमाल किया गया — रैट-होल खनन। यह शब्द सुनते ही कई लोगों को मेघालय की खदानों की याद आती है, लेकिन अब यह चर्चा राष्ट्रीय फलक पर है। इस लेख के माध्यम से, रामपुर जैसे संवेदनशील और शिक्षित शहर के नागरिकों के लिए यह जानना ज़रूरी है कि यह तकनीक क्या है, क्यों खतरनाक है, और भविष्य में इसका क्या स्थान हो सकता है।

इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि रैट-होल खनन वास्तव में क्या है और इसे "चूहे का बिल" क्यों कहा जाता है। इसके बाद हम मेघालय राज्य में इस तकनीक के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों का विश्लेषण करेंगे। फिर हम देखेंगे कि कैसे न्यायालयों ने इस पर प्रतिबंध लगाया और फिर वैज्ञानिक तरीके से अनुमति दी। इसके बाद हम बात करेंगे टिकाऊ विकास की दिशा में वैज्ञानिक खनन की प्रगति की, और अंत में चर्चा करेंगे कि अवैध खनन के खिलाफ सरकारी प्रयासों में क्या चूकें रह गई हैं।

क्या है रैट-होल खनन? एक जोखिम भरी पारंपरिक विधि

रैट-होल खनन (Rat Hole mining) एक ऐसी पारंपरिक तकनीक है जो न तो आधुनिक मानकों पर खरी उतरती है, और न ही श्रमिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करती है। इस प्रक्रिया में ज़मीन में बेहद संकरे और गहरे गड्ढे खोदे जाते हैं जो देखने में किसी चूहे के बिल जैसे लगते हैं, इसलिए इसे ‘रैट-होल’ कहा जाता है। इनमें केवल एक इंसान ही घुस सकता है और वही अकेले अंदर जाकर कोयला निकालता है। यह प्रक्रिया न तो ऑक्सीजन सप्लाई सुनिश्चित करती है और न ही इसमें वेंटिलेशन, ढलान सुरक्षा, सीमेंटिंग या गैस रिसाव के प्रति कोई पूर्व चेतावनी प्रणाली होती है। एक मामूली चूक भी ज़िंदगी पर भारी पड़ सकती है। इतना ही नहीं, बाल श्रमिकों और गरीब परिवारों के युवाओं को अक्सर मजबूरी में इस जोखिम भरे कार्य में उतारा जाता है।

इस प्रकार की खनन तकनीकें आधुनिक भारत के लिए न केवल चुनौती हैं, बल्कि हमारे नैतिक मूल्यों की कसौटी भी हैं। यह खनन न सिर्फ श्रमिकों की जान जोखिम में डालती है, बल्कि यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या विकास के नाम पर इंसानी जीवन को दांव पर लगाना जायज़ है? रामपुर जैसे शहरों में, जहाँ शिक्षा और सुरक्षा को गहराई से समझा और महत्व दिया जाता है, वहाँ यह आवश्यक है कि हम ऐसी असुरक्षित प्रणालियों पर खुलकर चर्चा करें और उन्हें बदलने की पहल करें।

मेघालय में रैट-होल खनन: सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव

मेघालय का खनिजों से समृद्ध क्षेत्र, विशेषकर जैन्तिया, खासी और गारो हिल्स, रैट-होल खनन के लिए कुख्यात है। इस प्रक्रिया से वहां के कई स्थानीय आदिवासी समुदायों की जीविका जुड़ी रही है। ये समुदाय अपने पारंपरिक अधिकारों के तहत भूमि और उसके नीचे स्थित कोयले पर स्वामित्व जताते हैं और इसी कारण उन्होंने वर्षों से बिना सरकारी हस्तक्षेप के यह कार्य किया। लेकिन इस तकनीक ने न केवल श्रमिकों की जान को खतरे में डाला है, बल्कि पर्यावरण को भी गंभीर नुकसान पहुँचाया है। नदी जल में एसिडिक प्रदूषण, वनों की कटाई, मृदा क्षरण और स्थानीय जैव विविधता पर असर — ये सब इसके पर्यावरणीय प्रभाव हैं। इसके अलावा, बाल मजदूरी, स्वास्थ्य संकट और सामाजिक शोषण की खबरें भी बार-बार सामने आती रही हैं। समस्या यह नहीं कि लोग अपनी भूमि से लाभ उठाना चाहते हैं, बल्कि यह है कि यह लाभ एक खतरनाक और अस्थायी व्यवस्था पर टिका हुआ है। मेघालय की कई नदियाँ अब जहरीले जल की वाहक बन चुकी हैं, जिससे वहाँ के मछलीपालक और किसान भी प्रभावित हुए हैं। 

रैट-होल खनन पर लगे प्रतिबंध और न्यायिक हस्तक्षेप

2014 में जब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने रैट-होल खनन पर रोक लगाई, तो इसके पीछे मानवाधिकार और पर्यावरणीय सुरक्षा का सवाल प्रमुख था। इसके बावजूद यह प्रक्रिया छिप-छिपाकर चलती रही, क्योंकि स्थानीय स्वामित्व और भूमि अधिकारों की वजह से नियंत्रण मुश्किल रहा। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस तकनीक पर दोबारा विचार किया और यह माना कि अगर इसे वैज्ञानिक ढंग से नियंत्रित किया जाए तो खनन किया जा सकता है। अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार को मिलकर एक समुचित नीति बनाने का निर्देश दिया। इसमें शर्त यह थी कि श्रमिकों की सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण और निगरानी व्यवस्था को सुनिश्चित किया जाए। यह निर्णय केवल एक तकनीकी मार्गदर्शन नहीं था, बल्कि यह एक संविधानिक विवेक का उदाहरण भी है जहाँ मानव अधिकार, स्थानीय परंपराएँ और पर्यावरणीय संतुलन — तीनों को साथ रखने की कोशिश की गई। रामपुर जैसे स्थान, जहाँ नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समान रूप से समझते हैं, वहाँ यह संदेश विशेष महत्व रखता है कि न्याय केवल दंड नहीं, दिशा भी देता है। हमें आवश्यकता है ऐसी न्यायिक समझ को जनचेतना में बदलने की।

वैज्ञानिक कोयला खनन: टिकाऊ विकास और प्रौद्योगिकी का नया रास्ता

रैट-होल खनन के स्थान पर वैज्ञानिक खनन को अपनाना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत बन गया है। इसमें ऐसे तकनीकी उपाय शामिल हैं जो न केवल कोयले के निष्कर्षण को कुशल बनाते हैं, बल्कि श्रमिकों और पर्यावरण को भी सुरक्षा प्रदान करते हैं। रिमोट सेंसिंग (remote sensing), 3D मॉडलिंग (3D modeling), स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग (structural engineering), और जीपीएस (GPS) आधारित ट्रैकिंग सिस्टम (tracking system) जैसे उपाय आज खनन प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और सुरक्षित बनाते हैं। केंद्र सरकार ने मेघालय में चार वैज्ञानिक खनन परियोजनाओं को अनुमति दी है, जिससे स्थानीय रोजगार, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवाओं को वित्तीय सहायता मिल सके। लेकिन इस बदलाव को केवल नीति में नहीं, संस्कृति में भी उतारने की आवश्यकता है। स्थानीय श्रमिकों को तकनीकी प्रशिक्षण देना, आधुनिक यंत्रों से परिचित कराना और सुरक्षा गियर को अनिवार्य बनाना — यह सब उस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। रामपुर, जहाँ की युवा पीढ़ी तकनीकी कौशल में तेजी से आगे बढ़ रही है, वह इस प्रकार की प्रौद्योगिकी आधारित योजना को प्रेरणा की दृष्टि से देख सकती है।

अवैध खनन और सरकारी नीति की विफलताएँ

हालांकि नीति और कानून की दृष्टि से कई सुधार हुए हैं, फिर भी मेघालय में अवैध खनन का जाल पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाया है। 2022 में गठित एक विशेष समिति ने रिपोर्ट दी कि ईस्ट जैन्तिया हिल्स जैसे इलाकों में अब भी ताज़ा कोयला खुले में डंप किया जा रहा है। राजमार्गों के किनारे वेट ब्रिजों के पास भारी मात्रा में बिना लाइसेंस खनन किया हुआ कोयला देखा गया, जो यह दर्शाता है कि स्थानीय प्रशासन और परिवहन नियंत्रण प्रणाली में गंभीर कमियाँ हैं। यह केवल प्रशासनिक विफलता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक स्वीकृति की भी समस्या है, जहाँ नियमों के उल्लंघन को नजरअंदाज किया जाता है। ज़रूरत है कि निगरानी को सिर्फ़ कैमरों और रिपोर्टों तक सीमित न रखा जाए, बल्कि स्थानीय समुदायों की भागीदारी और जवाबदेही को भी सुनिश्चित किया जाए। रामपुर जैसे शहर, जहाँ नागरिक जागरूकता और जनसहभागिता पर ज़ोर दिया जाता है, वह इस मॉडल को पूरे देश में एक आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।

संदर्भ-

https://tinyurl.com/4sw9cser 

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