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रामपुर, जहाँ की हवाओं में उर्दू शायरी की नज़ाकत और संगीत की मिठास घुली होती है, वहाँ श्रृंगार रस का प्रभाव भी चुपचाप, किंतु गहराई से अनुभूत होता है। नवाबी दौर की साहित्यिक गोष्ठियों से लेकर रामपुर रज़ा पुस्तकालय की हस्तलिखित पांडुलिपियों तक, इस शहर ने हमेशा प्रेम, सौंदर्य और भावना की अभिव्यक्ति को विशेष स्थान दिया है। खासकर श्रृंगार रस, जो भारतीय काव्य परंपरा का सबसे नयनाभिराम रस माना गया है, रामपुर की अदबी विरासत में रच-बस गया है। रामपुर, एक ऐसा शहर जहाँ हर गली, हर चौक और हर हवेली अपने अंदर सौंदर्य, संगीत और सलीके की विरासत समेटे हुए है। यहाँ की अदबी महफ़िलें, उर्दू शायरी की नफ़ासत, और शास्त्रीय संगीत की परंपरा ने इस नगर को एक संवेदी पहचान दी है। रामपुर की यही संवेदनशीलता श्रृंगार रस के अनुभव से गहराई से जुड़ी हुई है। श्रृंगार रस सिर्फ़ प्रेम का रस नहीं, बल्कि वह भावना है जो जीवन को कोमल, सुन्दर और आत्मिक बनाती है। नवाबी रामपुर के सांस्कृतिक परिदृश्य में श्रृंगार रस की उपस्थिति हमेशा से रही है - शायरों की कलम में, चित्रकारों की कल्पना में, और रज़ा पुस्तकालय की अमूल्य धरोहरों में।
इस लेख में हम श्रृंगार रस की परिभाषा, उसके भावात्मक आधार, शास्त्रीय कलाओं में उसकी अभिव्यक्ति, नाट्यशास्त्रीय संरचना, चित्रकला में उसका प्रतिबिंब और भारतीय सौंदर्य दर्शन में प्रेम की भूमिका की चर्चा करेंगे, जिससे रामपुरवासियों को भी अपने सांस्कृतिक मूल्यों में छिपे रस की पुन: पहचान हो सके।
श्रृंगार रस की परिभाषा और भावात्मक गहराई
श्रृंगार रस को रसों का राजा कहा जाता है, क्योंकि यह मनुष्य के सबसे कोमल और सार्वभौमिक अनुभव-प्रेम को दर्शाता है। “श्रृंगार” शब्द ही सुशोभन, साज-सज्जा और आकर्षण से जुड़ा है। यह रस रति भाव पर आधारित है, जिसका अर्थ है—किसी मनभावन वस्तु, व्यक्ति या अनुभव के प्रति गहरा लगाव। रामपुर जैसे शहर में, जहाँ मोहब्बत को महज़ भावना नहीं, बल्कि ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्सा माना गया है, वहाँ श्रृंगार रस की गूंज हर कलात्मक परंपरा में महसूस होती है। यहाँ के बुजुर्ग आज भी बताते हैं कि कैसे कभी चौपालों में प्रेम कहानियाँ सुनाई जाती थीं, और हवेलियों के झरोखों से चुपचाप प्रेम पत्र पहुँचाए जाते थे। यह रस सिर्फ़ कविता की पंक्तियों में नहीं, बल्कि आम जनजीवन में भी बहता रहा है - शब्दों, मुस्कानों और चुप्पियों में।
भारतीय कलाओं में श्रृंगार रस का महत्व
भारतीय शास्त्रीय कला परंपराएँ, चाहे वह नृत्य हो, संगीत, चित्रकला या नाट्यकला, श्रृंगार रस को अपनी आत्मा मानती हैं। भरतनाट्यम की मुद्राओं से लेकर कथक के लचकते घूंघट तक, राग यमन की अलाप से लेकर चित्रों में राधा-कृष्ण के सौंदर्य तक, श्रृंगार रस इन कलाओं में गहराई से प्रवाहित होता है।
रामपुर की कला संस्कृति में इस रस का स्थान विशेष रहा है। नवाबी दरबारों में होने वाली संगीत महफ़िलों में जब किसी गायिका की आवाज़ में कोई ठुमरी गूंजती थी, तो केवल संगीत नहीं बजता था- प्रेम, लालसा (longing), सौंदर्य और कोमलता सब कुछ उस धुन में समा जाता था। रामपुर घराने की संगीत शैली भी, विशेषकर खयाल गायन और ठुमरी में, श्रृंगार रस की प्रस्तुति में माहिर रही है। यह रस, कलाकार और श्रोता, दोनों को एक आध्यात्मिक संवाद में जोड़ता है।
संभोग और विप्रलंभ: श्रृंगार रस के दो आधार
श्रृंगार रस केवल प्रेम के मिलन तक सीमित नहीं है। यह उसके वियोग, तड़प, और प्रतीक्षा को भी उतनी ही भावनात्मक गहराई से अभिव्यक्त करता है। इसी कारण इसे दो भागों में बाँटा गया है - संभोग श्रृंगार, जो मिलन में प्रेम है, और विप्रलंभ श्रृंगार, जो जुदाई में प्रेम की अनुभूति है। रामपुर की शायरी और दास्तानगोई परंपरा में इस विभाजन की झलक स्पष्ट मिलती है। यहाँ की महफ़िलों में "इश्क़-ए-मुकम्मल" के साथ-साथ "इश्क़-ए-नाकाम" की दास्तानें भी उतनी ही रुचि से सुनी जाती थीं। एक ओर कोई आशिक़ अपने यार की आँखों की तारीफ करता था, तो दूसरी ओर किसी विरहिणी के गीत में जुदाई की पीड़ा छलकती थी। रामपुर के कई लोकगीत, सूफियाना कलाम और उर्दू ग़ज़लें इस बात की मिसाल हैं कि श्रृंगार रस सिर्फ़ प्रेम की खुशी नहीं, बल्कि उसकी कसक भी पूरी नज़ाकत के साथ दर्शाता है।
नाट्यशास्त्र में श्रृंगार रस की प्रस्तुति और तत्व
श्रृंगार रस की प्रस्तुति केवल विचार या भाव के स्तर पर नहीं होती, बल्कि यह एक पूरी नाटकीय संरचना के ज़रिए दर्शाया जाता है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार, किसी भी रस की उत्पत्ति तीन घटकों से होती है, विभाव (Determinants), अनुभाव (Physical expressions) और संचारी भाव (Transitory states)। रामपुर के पारंपरिक मंचन, जैसे रामलीला, कृष्णलीला या लोक नाट्य प्रस्तुतियाँ, इन सभी तत्वों को श्रृंगार रस के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। नायक और नायिका की मुलाकात, उनकी आँखों की भाषा, प्रेम की प्रतीक्षा, और मिलन के भाव। यह सब कुछ मंच पर इतनी बारीकी से प्रदर्शित होता है कि दर्शक स्वयं उस भावना का हिस्सा बन जाता है। अभिनेताओं की मधुर मुस्कान, कोमल मुद्राएं, सुगंधित फूलों का प्रयोग, रात्रि की पृष्ठभूमि। यह सब श्रृंगार रस की दृश्यात्मक गहराई को बढ़ाते हैं।
भारतीय कला व चित्रकला में श्रृंगार रस की मूर्त व दृश्य अभिव्यक्तियाँ
श्रृंगार रस का सबसे सुंदर रूप उसकी दृश्य कलाओं में देखने को मिलता है। रामपुर की लघुचित्र परंपरा, जो मुगल और राजस्थानी चित्रकला का सुंदर संगम है, श्रृंगार रस का जीता-जागता प्रमाण है। रज़ा पुस्तकालय की पांडुलिपियों में संजोए गए चित्रों में, राधा का कृष्ण के प्रति अनुराग, राजकुमारियों की साज-सज्जा, या बाग़ में बैठे प्रेमियों की नज़रों का संवाद। ये सभी चित्र श्रृंगार रस की चुपचाप बोलती हुई तस्वीरें हैं। इन चित्रों में रंगों का प्रयोग, वस्त्रों की भव्यता, चेहरों की भाव-भंगिमा और प्रकृति की पृष्ठभूमि मिलकर एक ऐसा सौंदर्य रचते हैं जिसमें प्रेम केवल दृश्य नहीं रहता, बल्कि महसूस किया जाता है। यही श्रृंगार रस की शक्ति है, वह शब्दों से परे जाकर भावों को जगा देता है।
श्रृंगार रस और भारतीय सौंदर्यशास्त्र में प्रेम की भूमिका
भारतीय सौंदर्यदर्शन में यह स्पष्ट रूप से माना गया है कि सौंदर्य, प्रेम और आनंद, तीनों एक-दूसरे से जुड़कर आत्मिक अनुभव का निर्माण करते हैं। श्रृंगार रस इन तीनों का मिलन बिंदु है। जब हम किसी सुंदर चीज़ को देखते हैं। चाहे वो कोई कविता हो, कोई चित्र, कोई स्वर या कोई व्यक्ति, तो वह दृश्य हमारे मन में प्रेम और आनंद की भावना जाग्रत करता है। रामपुर की अदबी परंपरा, विशेषकर सूफी साहित्य, इस दृष्टिकोण का श्रेष्ठ उदाहरण है। वहाँ "इश्क़" केवल सांसारिक आकर्षण नहीं, बल्कि ईश्वर से जुड़ने का मार्ग भी है। सूफी संतों की कविताओं में ‘इश्क़े-मज़ाज़ी’ (दुनियावी प्रेम) से ‘इश्क़े-हक़ीकी’ (ईश्वरीय प्रेम) की यात्रा श्रृंगार रस के माध्यम से ही होती है। इस रस का अनुभव व्यक्ति को अपनी सीमाओं से ऊपर उठाकर किसी बड़े सौंदर्यबोध से जोड़ता है। यही कारण है कि श्रृंगार रस को रसों का राजा कहा गया है। क्योंकि वह केवल प्रेम नहीं, बल्कि उस प्रेम से मिलने वाले सौंदर्य और आत्मिक आनंद का प्रतिनिधित्व करता है।
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