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रामपुर की ऐतिहासिक इमारतें, जर्जर हवेलियाँ और शांत छतरियाँ, कबूतरों की गुटरगूं से हर सुबह और शाम गुलज़ार रहती हैं। चाहे वह किला रामपुर हो या शहर की पुरानी मस्जिदें, यहाँ की हर ईंट में पक्षियों की एक सदी पुरानी उपस्थिति दर्ज है। रामपुर के बुजुर्ग बताते हैं कि पहले इन पक्षियों को दाना देना एक पुण्य माना जाता था, लेकिन आज यही दृश्य शहरी संरचनाओं और कबूतरों के रिश्ते की एक नई कहानी कह रहा है। अब सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों, आधुनिक समय में कबूतरों की आबादी इतनी तेज़ी से बढ़ी है, जबकि बाकी पक्षी जैसे गौरैया या नीलकंठ, या तो कम दिखते हैं या लुप्त हो रहे हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले समझेंगे कि कबूतर आखिर क्यों शहरों में इतनी आसानी से बस जाते हैं और शहरी संरचनाएं उनके लिए आदर्श क्यों हैं। इसके बाद हम उनके ऐतिहासिक महत्व को जानेंगे, कैसे कबूतर कभी युद्धों में संदेशवाहक हुआ करते थे। फिर हम धर्मों में कबूतरों की भूमिका पर बात करेंगे - हिंदू, सिख और इस्लामिक परंपराओं में। चौथे भाग में हम कबूतरबाज़ी जैसे पारंपरिक खेल को समझेंगे और जानेंगे कि रामपुर जैसी जगहों पर यह आज भी कैसे जीवित है। अंत में, हम शहरीकरण के कारण कबूतरों की बढ़ती निर्भरता और इससे जुड़ी स्वास्थ्य और पर्यावरणीय समस्याओं पर चर्चा करेंगे।
शहरों में कबूतरों की अधिकता का कारण: शहरी ढांचे और आदतों से मेल
रामपुर की पुरानी हवेलियाँ, मीनारें और संगमरमर की इमारतें कबूतरों के लिए स्वर्ग के समान हैं। प्राकृतिक रूप से ये पक्षी चट्टानों और कठोर सतहों में घोंसले बनाते थे। और जब शहरों में वही पत्थर, सीमेंट (cement), और कंक्रीट (concrete) से बनी इमारतें सामने आईं, तो ये कबूतर जैसे अपने 'प्राकृतिक घर' में लौट आए। रामपुर की जामा मस्जिद, रज़ा पुस्तकालय, और सैफनी गेट जैसी संरचनाएँ, उनके आराम करने, अंडे देने और रहन-सहन के लिए पूरी तरह उपयुक्त हैं। इन जगहों पर इंसानी हलचल कम और छांव ज़्यादा है – ऐसा माहौल कबूतरों को सहजता से आकर्षित करता है। यही कारण है कि रामपुर जैसे शहरों में कबूतर अब प्राकृतिक से ज़्यादा शहरी पक्षी बन चुके हैं।
कबूतरों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व
रामपुर के राजघराने और नवाबी परंपरा में कबूतरों की उपस्थिति हमेशा से खास रही है। इतिहास में देखें तो, संदेशवाहक के रूप में इनका उपयोग लगभग हर प्रमुख साम्राज्य में हुआ। रामपुर के नवाबों के दरबार में भी एक समय कबूतरों की टोलियाँ पाली जाती थीं, जिनका उपयोग विभिन्न ज़िलों में संदेश भेजने के लिए किया जाता था। इन पक्षियों में इतनी गज़ब की दिशा-संवेदन शक्ति होती है कि वे मीलों दूर जाकर भी अपने मूल स्थान पर लौट सकते हैं। रामपुर के कुछ इतिहासकार बताते हैं कि एक समय यहाँ से बरेली, मुरादाबाद और दिल्ली तक खबरें भेजने के लिए कबूतरों का प्रयोग होता था। उस युग में टेलीफोन (telephone) और डाक व्यवस्था इतनी सुगठित नहीं थी, तब कबूतर ही शाही संवाद का माध्यम थे।
शहर में कबूतरों को सभी धर्मों में मान्यता प्राप्त है। हिंदू मंदिरों में इन्हें भोजन देना पुण्य माना जाता है; 'अन्नदान' की परंपरा में कबूतरों को दाना चढ़ाना आम दृश्य है। सिख गुरुद्वारों में भी कबूतरों के झुंडों को भोजन कराना एक धार्मिक सेवा मानी जाती है। वहीं इस्लाम में कबूतरों को 'पैगंबर पक्षी' की संज्ञा दी जाती है। मक्का-मदीना की दरगाहों पर इन्हें संरक्षण दिया जाता है और उनके लिए विशेष चारा रखा जाता है। रामपुर के पुरानी ईदगाह क्षेत्र में हर जुमे को लोग कबूतरों को दाना डालते हैं, और इसे इबादत का हिस्सा मानते हैं। यह धार्मिक संवेदना, इन पक्षियों की निरंतर उपस्थिति को पोषित करती है।
कबूतरबाज़ी: मुगल कालीन खेल और रामपुर की विरासत
रामपुर में कबूतरबाज़ी एक समय नवाबी शान का प्रतीक हुआ करती थी। कबूतरों को प्रशिक्षित करने की यह कला मुगल काल में चरम पर थी, और रामपुर के नवाबों ने इसे संरक्षण दिया। प्रशिक्षित कबूतर उड़ते समय विशेष चिह्नों और ध्वनियों पर प्रतिक्रिया देते थे। रामपुर के पुरानी बस्ती इलाक़ों में आज भी कुछ बुज़ुर्गों के पास 'कबूतर उड़ाने' की कहानियाँ और तकनीकें मौजूद हैं। रामपुर में आज भी गर्मियों की शामों में कुछ पुराने मोहल्लों की छतों पर कबूतरों के झुंड उड़ते दिख जाते हैं। यह न केवल एक खेल था, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा का भी प्रतीक था।
शहरीकरण के साथ कबूतरों की बढ़ती निर्भरता
शहरों में, जहाँ पुराने घरों और इमारतों की भरमार है, वहीं बाजारों और मस्जिदों के पास फीडिंग स्टेशन (feeding station) या खुदरा चारे की दुकानें खुल गई हैं। लोग इन्हें दाना डालते हैं, जो धार्मिक आस्था से जुड़ा होने के साथ-साथ एक सामाजिक अभ्यास भी बन चुका है। लेकिन यही आदत कबूतरों को मनुष्यों पर निर्भर बनाती जा रही है। अब ये पक्षी अपना खाना खुद ढूंढ़ने के बजाय, केवल इंसानों के रहमोकरम पर जी रहे हैं। यही कारण है कि इनकी प्राकृतिक प्रवृत्तियों में बदलाव आ रहा है, जो पारिस्थितिक संतुलन के लिए खतरे की घंटी है।
कबूतर और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम
रामपुर की ऐतिहासिक इमारतें – चाहे वह दरबार हॉल (Durbar Hall) हो या हुमायूँ गेट (Humayun Gate) – कबूतरों की बीट यानी मलमूत्र से क्षतिग्रस्त हो रही हैं। उनके मल में मौजूद यूरिक एसिड (uric acid) पत्थरों को धीरे-धीरे घिस देता है। इसके अलावा, कबूतरों का मल बैक्टीरिया ई. कोलाई (Bacteria E. coli) का वाहक बन सकता है, जिससे पानी या खाना दूषित होने की आशंका रहती है। हालांकि वैज्ञानिक रूप से यह साबित नहीं हुआ कि कबूतर हर हाल में बीमारियाँ फैलाते हैं, लेकिन रामपुर जैसे घने बसे शहरों में यह जोखिम निश्चित रूप से बढ़ जाता है। ऐतिहासिक धरोहरों को बचाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए इस विषय पर गंभीर विमर्श ज़रूरी है।
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