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रामपुरवासियों, हमारी तहज़ीब की मिठास और विविधता केवल मुगल और नवाबी दौर की देन नहीं है, बल्कि हज़ारों साल पुरानी उस मानवीय यात्रा की भी है, जिसकी शुरुआत अफ़्रीका की धरती से हुई थी। रामपुर की ज़मीन भले ही सीधे नवपाषाण या पाषाण युग की खुदाइयों से जुड़ी न हो, लेकिन यहाँ रहने वाले हम सबकी रगों में वह इतिहास बहता है, जो कृषि, प्रवासन और सभ्यता की पहली सांसों से जुड़ा हुआ है। जब ज़ाग्रोस (Zagros) के किसान, अफ़्रीकी शिकारी, और दक्षिण-पूर्व एशिया के आदिवासी भारत की ओर आए, तो उन्होंने हमारी संस्कृति, खानपान और शरीर की बनावट तक को प्रभावित किया। यह लेख रामपुर के हर उस नागरिक के लिए है जो अपने अतीत को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझना चाहता है।
इस लेख में सबसे पहले, हम जानेंगे कि भारत की जनसंख्या संरचना किन चार प्रमुख प्राचीन प्रवासों से बनी और इनमें से किसका योगदान सबसे निर्णायक रहा। इसके बाद हम मध्य पूर्व (Middle East) में कृषि की दो स्वतंत्र शुरुआतों पर गौर करेंगे, जहाँ से कृषि ज्ञान का प्रसार हुआ। फिर हम ज़ाग्रोस पर्वतीय क्षेत्र की भूमिका को समझेंगे, जहाँ कृषि के कई नवाचार हुए जो आगे चलकर ऐतिहासिक साबित हुए। चौथे भाग में हम देखेंगे कि कैसे ज़ाग्रोस के कृषकों ने भारत में आकर कृषि का प्रसार किया और इसे एक नई दिशा दी। अंत में, हम हड़प्पा सभ्यता और ज़ाग्रोस प्रवासियों के बीच हुए सांस्कृतिक और तकनीकी मिश्रण के प्रभावों का विश्लेषण करेंगे, जो भारत की प्रारंभिक कृषि और समाज के स्वरूप को आकार देने में सहायक बने।
भारत की जनसंख्या को आकार देने वाले चार प्रमुख प्राचीन प्रवासन
भारत की विविधता, चाहे वह भाषा हो, संस्कृति हो, या शारीरिक विशेषताएँ, किसी एक समुदाय या कालखंड की देन नहीं है, बल्कि यह चार प्रमुख प्रवासों की साझा विरासत है। सबसे पहला प्रवासन लगभग 65,000 वर्ष पहले हुआ, जब आधुनिक मानव अफ़्रीका से निकलकर दक्षिण भारत के तटों पर पहुँचे और फिर पूरे उपमहाद्वीप में फैल गए। इन पहले प्रवासियों को ही 'पहले भारतीय' कहा जाता है, जिनकी आनुवंशिक छाप आज भी सबसे अधिक भारतीयों में मौजूद है। इसके हज़ारों साल बाद, ईरान (Iran) के ज़ाग्रोस पर्वतीय क्षेत्र से कृषक समुदाय भारत पहुँचा। यह दूसरा प्रवासन, लगभग 9,000 से 5,000 साल पहले हुआ और इन लोगों ने गेहूं, जौ जैसी फसलों की खेती भारत में शुरू की। तीसरे प्रवास में दक्षिण-पूर्व एशिया से आए लोग शामिल थे, जिनके वंशज आज भी भारत के पूर्वी और मध्य क्षेत्रों के आदिवासी समुदायों में देखे जा सकते हैं। आख़िरी प्रमुख प्रवासन मध्य एशिया से हुआ, जब 2000 से 1000 ईसा पूर्व के बीच आर्य भारत आए और साथ लाए संस्कृत, वैदिक संस्कृति और एक बिल्कुल नई सामाजिक-धार्मिक दृष्टि। इन चारों प्रवासों ने भारत की वर्तमान जनसंख्या संरचना और संस्कृति की बुनियाद रखी, एक ऐसा मिश्रण जो विश्व में दुर्लभ है।
मध्य पूर्व में कृषि की दो स्वतंत्र शुरुआत
कृषि का विकास किसी एक क्षेत्र या समूह की खोज नहीं थी, बल्कि यह मानव सभ्यता द्वारा एक साथ अलग-अलग जगहों पर विकसित की गई एक जटिल प्रक्रिया थी। मध्य पूर्व के दो भौगोलिक क्षेत्र, दक्षिणी लेवांत (जिसमें आज के इज़राइल (Israel), जॉर्डन (Jordan), सीरिया (Syria) जैसे क्षेत्र आते हैं) और ईरान का ज़ाग्रोस पर्वतीय इलाका, इस कृषि क्रांति के स्वतंत्र और समानांतर केंद्र रहे। दक्षिणी लेवांत में रहने वाले लोग धीरे-धीरे स्थायी बस्तियों में बसने लगे, जंगली अनाज को उगाना सीखा और पालतू जानवर पालने लगे। दूसरी ओर, ज़ाग्रोस क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने खेती और पशुपालन की एक अलग शैली विकसित की, उनके पास अपने बीज, तकनीकें और सामाजिक ढांचे थे। यह कृषि परिवर्तन किसी एक पीढ़ी में नहीं हुआ, बल्कि यह हज़ारों वर्षों तक चलने वाला धीमा लेकिन स्थायी बदलाव था। इन दोनों क्षेत्रों से उपजे कृषि ज्ञान और जीवनशैली ने न सिर्फ़ मध्य पूर्व, बल्कि यूरोप, एशिया और विशेषकर भारत जैसे क्षेत्रों को भी प्रभावित किया।
ज़ाग्रोस क्षेत्र: कृषि नवाचार का स्रोत
ईरान का ज़ाग्रोस पर्वतीय क्षेत्र केवल भौगोलिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं था, बल्कि यह नवपाषाण युग के कृषि नवाचारों का एक शक्तिशाली केंद्र भी था। यहाँ के लोग, जिन्हें आज हम 'ईरानी कृषकों' के नाम से जानते हैं, खेती की तकनीकों, उपकरणों और सामाजिक ढांचे के मामले में अग्रणी थे। एम्मर (Emmer) गेहूं और जौ जैसी फसलें, जिनका उल्लेख आज भी प्राचीन कृषि ग्रंथों में मिलता है, वहीं से भारत में आईं। इसके साथ ही, इन किसानों ने बकरी, गाय और सूअर जैसे पशुओं को भी पालतू बनाना शुरू किया, जो आगे चलकर भारतीय कृषि व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बने। ज़ाग्रोस क्षेत्र ओब्सीडियन (obsidian) जैसे दुर्लभ पत्थरों के व्यापार का केंद्र भी था, जिससे कृषि उपकरण बनते थे। यह तकनीकी और सांस्कृतिक समृद्धि जब भारत पहुंची, तो यहां की ज़मीनों को नई उपजाऊ शक्ति मिली और स्थायी बस्तियाँ अस्तित्व में आईं। ज़ाग्रोस की यह विरासत आज भी भारतीय कृषि की आत्मा में बसती है।
ज़ाग्रोस कृषकों द्वारा भारत में कृषि का प्रसार
जब ज़ाग्रोस के कृषक भारत पहुँचे, तो उन्होंने अपने साथ केवल बीज और उपकरण नहीं लाए, बल्कि जीवन के प्रति एक पूरी नई सोच लेकर आए। उन्होंने भारत के भूगोल और पारिस्थितिकी को समझते हुए यहाँ खेती की शुरुआत की। यह वही दौर था जब भारत में खानाबदोश जीवन से स्थायी बस्तियों की ओर परिवर्तन शुरू हुआ। गेहूं, जौ और मसूर जैसी फसलें भारत के भोजन में शामिल होने लगीं और साथ ही भेड़-बकरी जैसे पशुओं का पालन भी आरंभ हुआ। इस बदलाव ने न केवल भारत की अर्थव्यवस्था को बदला, बल्कि सामाजिक ढांचे, भूमि स्वामित्व, धार्मिक विश्वासों और सांस्कृतिक रीति-रिवाज़ों पर भी गहरा प्रभाव डाला। शहर, जो आज अपनी कृषि परंपराओं और खाद्य विविधता पर गर्व करते हैं, उसी ऐतिहासिक विरासत के आधुनिक रूप हैं, जो इन ज़ाग्रोस कृषकों ने कभी बोई थी।
हड़प्पा सभ्यता और ज़ाग्रोस मिश्रण का प्रभाव
भारतीय उपमहाद्वीप की पहली महान सभ्यता - हड़प्पा - किसी एक समुदाय का योगदान नहीं थी, बल्कि यह ‘पहले भारतीयों’ और ज़ाग्रोस क्षेत्र से आए कृषकों के जैविक और सांस्कृतिक मिश्रण का सुंदर और व्यवस्थित परिणाम थी। डीएनए (DNA) अनुसंधान इस बात की पुष्टि करते हैं कि हड़प्पा के लोग एक मिश्रित आनुवंशिक समूह थे, जिन्होंने दोनों समुदायों की श्रेष्ठताएँ अपनाईं। हड़प्पा की सुव्यवस्थित कृषि प्रणाली, अनाज भंडारण के गोदाम, उन्नत सिंचाई नेटवर्क (network) और पशुपालन की योजनाएं ज़ाग्रोस के नवाचारों का प्रतिफल थीं, जबकि उनके सामाजिक व्यवहार, पर्यावरणीय संतुलन और दीर्घकालिक टिकाऊ बस्तियाँ ‘पहले भारतीयों’ की पारंपरिक समझ का परिचायक थीं। यही समन्वय आज भी भारत की विविध संस्कृति और सामूहिकता में दिखाई देता है। शहरों में दिखने वाला आपसी सौहार्द, मिश्रित परंपराएँ और सहअस्तित्व की भावना, सब उसी ऐतिहासिक मेल का आधुनिक प्रतिबिंब हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/ye2aea3c
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