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रामपुर जैसे आंतरिक शहरों में रहते हुए हम अक्सर समुद्र की जटिल और सुंदर दुनिया से अनजान रह जाते हैं। लेकिन समुद्र के भीतर भी एक ऐसी अद्भुत जीवन श्रृंखला चलती है, जिसका संतुलन हमारे पूरे ग्रह के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है। उसी समुद्री संसार में एक विलक्षण जीव है, हॉक्सबिल समुद्री कछुआ (Hawksbill Sea Turtle)। यह कछुआ न केवल अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यह समुद्री पारिस्थितिकी में एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। आज जब जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की हानि हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियाँ बन चुकी हैं, तो ऐसे जीवों के बारे में जानना और उन्हें समझना हमारी ज़िम्मेदारी भी बन जाती है।
इस लेख में हम हॉक्सबिल समुद्री कछुओं से जुड़ी छह अहम बातों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि इन कछुओं की पहचान किन अनोखी जैविक विशेषताओं के आधार पर की जाती है और वे बाकी कछुओं से कैसे अलग होते हैं। फिर, हम देखेंगे कि ये समुद्र के भीतर पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में किस तरह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके बाद, हम पढ़ेंगे कि भारत के किन द्वीपों और तटीय इलाकों में हॉक्सबिल कछुए सबसे अधिक पाए जाते हैं और वहाँ ये अपने घोंसले कहाँ बनाते हैं। आगे, हम चर्चा करेंगे कि किस प्रकार के मानवीय हस्तक्षेप और पर्यावरणीय संकट इन कछुओं के जीवन को ख़तरे में डाल रहे हैं। अंत में, हम जानेंगे कि इस संकटग्रस्त प्रजाति को बचाने के लिए भारत और दुनिया भर में कौन-कौन सी संरक्षण पहलें चल रही हैं और इसमें आम लोग किस तरह भागीदार बन सकते हैं।
हॉक्सबिल समुद्री कछुओं की पहचान और जैविक विशेषताएँ
हॉक्सबिल समुद्री कछुए अपने अनोखे और विशिष्ट शारीरिक लक्षणों की वजह से समुद्र में पाए जाने वाले अन्य कछुओं से आसानी से पहचाने जा सकते हैं। इनकी सबसे प्रमुख पहचान होती है इनकी तीखी और नीचे को झुकी हुई चोंच, जो पक्षियों की तरह दिखती है, इसी विशेषता के चलते इनका नाम ‘हॉक्सबिल’ पड़ा है। इनके खोल की बनावट अत्यंत सुंदर होती है जिसमें सुनहरे, भूरे और काले रंगों की ओवरलैपिंग पट्टियाँ (overlapping stripes) होती हैं। इस खोल की चमक और बनावट ही है जो इन्हें दुर्भाग्यवश अवैध व्यापार का शिकार बनाती है। इनकी त्वचा खुरदुरी होती है और शरीर पतला एवं अर्धगोलाकार होता है, जिससे ये संकरे प्रवाल भित्तियों (कोरल रीफ़्स - coral reefs) के बीच से भी आसानी से निकल सकते हैं। व्यस्क हॉक्सबिल आमतौर पर 70 से 90 सेंटीमीटर लंबा और 45 से 70 किलोग्राम वज़नी होता है। इनका जीवनकाल 30 से 50 वर्षों का होता है, और ये समुद्र की सतह पर साँस लेने आते हैं, लेकिन अधिकांश समय वे गहराई में भोजन तलाशते हैं।
हॉक्सबिल कछुओं का समुद्री पारिस्थितिकी में योगदान
हॉक्सबिल कछुए सिर्फ समुद्री जीवों में एक नाम भर नहीं हैं, बल्कि ये समुद्र के संतुलन के लिए एक अत्यंत ज़रूरी कड़ी हैं। वे मुख्यतः समुद्री स्पंज (sponge) खाते हैं, जो प्रवाल भित्तियों पर बहुत तेजी से फैल सकते हैं और उन्हें नुकसान पहुँचा सकते हैं। हॉक्सबिल इन स्पंजों को खाकर प्रवालों को स्थान और प्रकाश उपलब्ध कराते हैं, जिससे प्रवाल भित्तियाँ जीवित और स्वस्थ बनी रहती हैं। इन भित्तियों में असंख्य मछलियाँ, केकड़े, समुद्री घोंघे और अन्य जीव रहते हैं, यानी एक पूरी पारिस्थितिकीय प्रणाली इन पर निर्भर करती है। हॉक्सबिल की उपस्थिति इस संतुलन को बनाए रखती है, और इसी वजह से इन्हें "कीस्टोन प्रजाति" (keystone species) भी कहा जाता है, यानी ऐसी प्रजाति जिसके बिना पूरा पारिस्थितिकी ढाँचा असंतुलित हो सकता है।
भारत में हॉक्सबिल कछुओं का वितरण और प्रमुख घोंसला स्थल
भारत के तटीय और द्वीपीय क्षेत्रों में हॉक्सबिल कछुए की उपस्थिति दुर्लभ होती जा रही है, लेकिन फिर भी कुछ चुनिंदा स्थान आज भी इनके घोंसले बनाने के लिए सुरक्षित माने जाते हैं। विशेष रूप से अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, तथा लक्षद्वीप जैसे क्षेत्र हॉक्सबिल के प्रजनन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। ये मादा कछुए प्रजनन काल में रेत में 100 से 150 अंडे देती हैं और फिर चुपचाप समुद्र की ओर लौट जाती हैं। दो महीनों के भीतर जब अंडों से बच्चे निकलते हैं, तो वे रोशनी की दिशा में दौड़ते हुए समुद्र की ओर बढ़ते हैं, यह दृश्य जितना अद्भुत होता है, उतना ही भावनात्मक भी। इन घोंसला स्थलों पर कम मानव हस्तक्षेप, प्राकृतिक समुद्र तट और जैविक विविधता के चलते हॉक्सबिल को एक सुरक्षित वातावरण मिल पाता है। भारत सरकार और विभिन्न गैर-सरकारी संगठन इन स्थानों पर घोंसले की निगरानी और संरक्षण कार्यों में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।हॉक्सबिल कछुओं को होने वाले मानवीय और पारिस्थितिकीय खतरे
दुख की बात यह है कि हॉक्सबिल कछुओं के सामने आज कई गंभीर खतरे हैं, और इन खतरों का सबसे बड़ा कारण है मानव गतिविधियाँ। इनके खोल का अवैध व्यापार, जो कि "टॉरटॉइज़शेल" (Tortoiseshell) नाम से जाना जाता है, इनकी आबादी को सबसे अधिक नुकसान पहुँचा रहा है। इसके अलावा समुद्र में फैला प्लास्टिक कचरा भी एक बड़ा संकट है, कछुए अक्सर प्लास्टिक को जेलीफ़िश (jellyfish) समझकर निगल लेते हैं, जिससे उनकी आंतों में घाव हो जाते हैं और कई बार उनकी मृत्यु तक हो जाती है। मछली पकड़ने के दौरान जाल में फँस जाना एक और आम समस्या है, जिससे वे घायल हो जाते हैं या दम घुटने से मर जाते हैं। तटीय क्षेत्रों में कृत्रिम रोशनी की अधिकता भी नवजात कछुओं को भ्रमित करती है, जिससे वे समुद्र की बजाय सड़कों या बस्तियों की ओर मुड़ जाते हैं और बच नहीं पाते। जलवायु परिवर्तन भी इनके अंडों के तापमान को प्रभावित कर रहा है, जिससे नर और मादा की संख्या में असंतुलन पैदा हो रहा है।
हॉक्सबिल प्रजाति के संरक्षण के लिए चल रही पहलें
हॉक्सबिल कछुए अब “अत्यंत संकटग्रस्त” प्रजातियों की आईयूसीएन (IUCN) सूची में शामिल हैं, जिसका मतलब है कि यदि समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो यह प्रजाति हमेशा के लिए लुप्त हो सकती है। भारत में इन्हें वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-I में रखा गया है, जिससे इन्हें कानूनी रूप से उच्चतम स्तर की सुरक्षा प्राप्त है। इसके तहत न केवल इनका शिकार करना अपराध है, बल्कि इनके अंडों, खोल या किसी भी भाग का व्यापार भी पूरी तरह प्रतिबंधित है। समुद्री तटों की निगरानी, मछुआरों को जागरूक करना, जैव विविधता पार्कों की स्थापना और समुद्र तट पर कृत्रिम रोशनी कम करना जैसे कई छोटे-बड़े प्रयास आज ज़मीनी स्तर पर चल रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय सहयोग भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, जैसे साइट्स (CITES) संधि के तहत हॉक्सबिल के खोल का वैश्विक व्यापार निषिद्ध है। संरक्षण कार्य में स्थानीय समुदायों को शामिल करना, विशेष रूप से मछुआरा समुदायों को भागीदार बनाना, इस संघर्ष की दीर्घकालिक सफलता की कुंजी है।
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