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रामपुरवासियों, आज हम आपको भारत की एक खास मछली के बारे में बताएँगे - करीमीन (Karimeen), जिसे वैज्ञानिक रूप से ग्रीन क्रोमाइड (Green Chromide) कहा जाता है। यह मछली मुख्य रूप से केरल और दक्षिण भारत की नदियों, झीलों और लैगून में पाई जाती है। करीमीन अपनी अनोखी बनावट, हल्के काले स्केल्स और पार्श्व पर हल्की पट्टियों के कारण आसानी से पहचानी जाती है। इसकी स्वादिष्टता और पोषण इसे स्थानीय व्यंजनों में विशेष महत्व देती है। करीमीन केवल भोजन का साधन नहीं है, बल्कि यह दक्षिण भारत की जलजीवन प्रणाली और पाक परंपराओं का भी महत्वपूर्ण प्रतीक है। इसके बारे में जानना इसलिए भी रोचक है क्योंकि यह मछली अपने प्राकृतिक आवास और जीवनशैली में अनूठी है, जो जलस्रोतों और पारिस्थितिकी के संतुलन को दर्शाती है। इस प्रकार, करीमीन के बारे में जानना रामपुरवासियों के लिए नई जानकारी और पाक-संसार की विविधता से जुड़ने का अवसर है।
आज हम करीमीन के बारे में विस्तार से जानेंगे। सबसे पहले समझेंगे कि यह मछली क्या है और कहाँ पाई जाती है। फिर जानेंगे कि केरल की संस्कृति में इसे इतना महत्त्व क्यों मिला। इसके बाद हम देखेंगे कि इसका आवास और आहार कैसा है। आगे बढ़कर इसके आर्थिक महत्व और मछुआरों को होने वाले लाभ पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम उन लोकप्रिय व्यंजनों के बारे में पढ़ेंगे जिनमें करीमीन का स्वाद हर किसी का मन मोह लेता है।
करीमीन मछली की पहचान और भौगोलिक विस्तार
करीमीन एक स्वदेशी और बेहद ख़ास मछली है, जो मुख्य रूप से भारत के दक्षिण-पश्चिमी और पूर्वी तटीय इलाकों में पाई जाती है। इसका वैज्ञानिक नाम एट्रोप्लस सुराटेन्सिस (Etroplus suratensis) है। अलग-अलग राज्यों और देशों में इसके नाम भी बदल जाते हैं - केरल में इसे "करीमीन," गोवा में “कलंदर”, ओडिशा में "कुंडल", और तमिलनाडु में "पप्पा" कहा जाता है। श्रीलंका में भी इसकी अच्छी-ख़ासी आबादी पाई जाती है और सिंगापुर जैसे देशों में भी इसे बसाया गया है। करीमीन की बनावट इसे और भी अलग बनाती है। इसका शरीर अंडाकार आकार का और हल्का चपटा होता है। शरीर पर आठ हल्की अनुप्रस्थ पट्टियाँ और कुछ अनियमित काले धब्बे नज़र आते हैं, जो इसे आसानी से पहचानने योग्य बनाते हैं। इसकी गहरी काली आभा ही कारण है कि मलयालम भाषा में इसे "करीमीन" यानी "काली मछली" कहा जाता है। यह केवल एक मछली नहीं बल्कि प्रकृति का अनोखा तोहफ़ा है, जो अपने अनूठे रंग-रूप और स्वाद के लिए पहचानी जाती है।

केरल की संस्कृति और राज्य मछली के रूप में करीमीन का महत्व
केरल में करीमीन सिर्फ़ एक भोजन नहीं बल्कि सांस्कृतिक पहचान है। इस मछली की लोकप्रियता इतनी अधिक है कि वर्ष 2010 में सरकार ने इसे केरल की राज्य मछली घोषित कर दिया। यही नहीं, उसी साल को "करीमीन का वर्ष" भी मनाया गया ताकि लोग इसके संरक्षण और उत्पादन के महत्व को समझ सकें।
करीमीन ने केरल की सांस्कृतिक छवि को और भी चमकाया है। पर्यटक जब केरल की यात्रा करते हैं तो वे बैकवॉटर (backwater) और हाउसबोट्स (houseboats) का मज़ा लेने के साथ-साथ करीमीन के स्वाद का आनंद लेना कभी नहीं भूलते। यही वजह है कि लगभग हर होटल और रेस्तराँ के मेन्यू में करीमीन के व्यंजन शीर्ष पर मिलते हैं। यह मछली आज केरल की मेज़बानी और मेहमाननवाज़ी का प्रतीक बन चुकी है।
करीमीन का आवास, जीवनशैली और आहार
करीमीन मछली अपनी जीवनशैली में बेहद अनुकूलनीय मानी जाती है। यह न केवल नदियों और तालाबों में बल्कि झीलों, लैगून और आर्द्रभूमि क्षेत्रों में भी पाई जाती है। यह ताजे और खारे दोनों तरह के पानी में जीवित रह सकती है, जिससे इसकी प्रजाति को विशेष मजबूती मिलती है। केरल की अष्टमुडी झील और वेम्बनाड झील इसके प्राकृतिक और प्रजनन स्थलों में सबसे प्रमुख मानी जाती हैं। करीमीन का भोजन भी दिलचस्प है। यह मुख्य रूप से शैवाल, छोटे कीड़े-मकोड़े और पौधों के अवशेष पर निर्भर रहती है। इसका मजबूत और हल्का मोटा शरीर इसे पानी में आसानी से तैरने और भोजन ढूँढने में मदद करता है। औसतन यह 20 सेंटीमीटर तक लंबी हो सकती है, हालांकि कभी-कभी इससे बड़ी भी देखने को मिल जाती है। इसकी आकर्षक धारियाँ और धब्बे इसे अन्य मछलियों से अलग पहचान देते हैं।

आर्थिक और मछुआरों के लिए महत्त्व
करीमीन मछली केवल स्वादिष्ट भोजन का ज़रिया नहीं है, बल्कि यह केरल के हज़ारों मछुआरों के जीवन का सहारा भी है। वर्तमान में इसके उत्पादन की वार्षिक दर लगभग 2000 टन है, जिसे सरकार मछली पालन और जलीय कृषि को बढ़ावा देकर 5000 टन तक पहुँचाने की कोशिश कर रही है। इससे न केवल स्थानीय मछुआरों की आय में वृद्धि होगी, बल्कि क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था भी मज़बूत होगी। इसके संरक्षण के लिए सरकार ने कुछ कड़े नियम भी बनाए हैं। जैसे, 10 सेंटीमीटर से छोटी करीमीन को पकड़ना पूरी तरह प्रतिबंधित है। ऐसा इसलिए ताकि मछलियों की संतति सुरक्षित रहे और भविष्य में उनकी संख्या कम न हो। अगर कोई मछुआरा इन नियमों का उल्लंघन करता है, तो उसे जुर्माना, लाइसेंस रद्द होने और अन्य दंड का सामना करना पड़ सकता है। इन नियमों से सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती है कि मछली पकड़ने और पालन करने की परंपरा आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित रहे।

करीमीन से बने लोकप्रिय व्यंजन और उनका सांस्कृतिक आकर्षण
केरल की पाक परंपरा में करीमीन का विशेष स्थान है। करीमीन पोलीचथु इसका सबसे प्रसिद्ध व्यंजन है। इसमें मछली को मसालेदार मिश्रण में मेरिनेट (marinate) किया जाता है, फिर केले के पत्ते में लपेटकर धीमी आँच पर पकाया जाता है। इस अनोखी शैली से मछली का स्वाद और सुगंध दोनों कई गुना बढ़ जाते हैं। इसके अलावा करीमीन फ्राई और करीमीन मौली भी लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं। करीमीन फ्राई में मछली को हल्के मसालों के साथ कुरकुरा तला जाता है, जबकि करीमीन मौली नारियल के दूध और मसालों की हल्की ग्रेवी में पकाई जाती है, जो स्वाद में बेहद कोमल और रसीली होती है। यह व्यंजन सिर्फ़ स्थानीय लोगों को ही नहीं बल्कि पर्यटकों को भी बेहद आकर्षित करते हैं। यही कारण है कि केरल आने वाले लोग इन व्यंजनों का स्वाद लिए बिना अपनी यात्रा अधूरी मानते हैं। त्योहारों, शादियों और विशेष अवसरों पर भी करीमीन के व्यंजन भोजन की शान बढ़ाते हैं।
संदर्भ-
https://bit.ly/3Kmsrnp
https://bit.ly/3fp60Q4
https://bit.ly/3GzOnsU
https://bit.ly/31Y4BNl
https://bit.ly/3I8yV7n
https://tinyurl.com/j5yjfppu
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