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रामपुरवासियों, जब-जब मंदिरों में “राधे-कृष्ण” के मधुर भजन गूंजते हैं और कलाकार मंच पर श्रीकृष्ण की लीला का अभिनय करते हैं, तो वातावरण में एक दिव्यता घुल जाती है। हमारे रामपुर की सांस्कृतिक आत्मा हमेशा से संगीत, नृत्य और भक्ति से जुड़ी रही है - यही कारण है कि जब वृंदावन की रासलीला का नाम लिया जाता है, तो उसका भाव रामपुर की तहज़ीब और कलात्मकता से सहज रूप में जुड़ जाता है। यह केवल एक धार्मिक कथा नहीं, बल्कि प्रेम, समर्पण और ईश्वरत्व की जीवित परंपरा है, जिसने सदियों से लोगों के हृदयों में भक्ति का दीप जलाए रखा है।
आज हम इस लेख में समझेंगे कि रासलीला की उत्पत्ति कहाँ से हुई और इसका वास्तविक अर्थ क्या है। फिर, हम जानेंगे कि वृंदावन की पारंपरिक रासलीला किस प्रकार श्रद्धा और कला का संगम बन गई। इसके बाद, हम मणिपुर की रासलीला की अनूठी शैली और उसके आध्यात्मिक नृत्य रूप को देखेंगे। आगे, हम यह भी जानेंगे कि किस प्रकार रासलीला ने भरतनाट्यम, कथक और अन्य शास्त्रीय नृत्यों को प्रभावित किया। अंत में, हम आधुनिक भारत में इसके पुनर्जीवन और वैश्विक पहचान पर चर्चा करेंगे।
वृंदावन से रासलीला का आध्यात्मिक संबंध
वृंदावन का संबंध केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि आत्मिक और भावनात्मक है। यही वह पवित्र स्थल है जहाँ श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास रचकर प्रेम को ईश्वरत्व का रूप दिया। जब यहाँ के मंदिर प्रांगण में रासलीला का मंचन होता है, तो भक्ति का वह भाव पूरे वातावरण में फैल जाता है। सैकड़ों श्रद्धालु दीपक जलाकर “जय राधे कृष्ण” के जयघोष के बीच जब गोपीगीत सुनते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे स्वयं श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि हवा में घुल गई हो। रासलीला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि वह सेतु है जो भक्तों को श्रीकृष्ण की लीला और वृंदावन की पवित्रता से जोड़ता है। यह परंपरा इस बात का जीवंत प्रमाण है कि भक्ति की शक्ति सीमाओं से परे है - जहाँ प्रेम है, वहीं वृंदावन है।
रासलीला की उत्पत्ति और अर्थ
“रासलीला” शब्द स्वयं में आध्यात्मिक अर्थ लिए हुए है। यह दो संस्कृत शब्दों से मिलकर बना है - ‘रस’ जिसका अर्थ है आनंद, प्रेम या दिव्यता का स्वाद, और ‘लीला’ जिसका अर्थ है ईश्वर की खेलमयी क्रिया। इन दोनों के मेल से उत्पन्न यह शब्द “दिव्य प्रेम की लीला” का प्रतीक बन जाता है। भागवत पुराण में वर्णन मिलता है कि जब श्रीकृष्ण ने अपनी बांसुरी बजाई, तो वृंदावन की गोपियाँ अपने घरों और परिवारों को छोड़कर उस ध्वनि की ओर खिंच आईं। यह आकर्षण सांसारिक नहीं, बल्कि आत्मिक था - एक आत्मा का अपने परमात्मा की ओर दौड़ पड़ना। जयदेव के गीत गोविंद और अन्य भक्ति ग्रंथों में रासलीला को प्रेम की पराकाष्ठा बताया गया है, जहाँ शरीर और मन लुप्त होकर केवल भक्ति रह जाती है। यह नृत्य केवल एक कथा का चित्रण नहीं, बल्कि भक्ति योग की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति है - जहाँ प्रेम, त्याग और समर्पण एक साथ विलीन हो जाते हैं।
वृंदावन की पारंपरिक रासलीला – श्रद्धा और कला का संगम
वृंदावन की रासलीला एक ऐसी सांस्कृतिक परंपरा है, जो भक्ति को कला के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाती है। यहाँ के रसमंडली समूह, जिनके कलाकारों को रसधारी कहा जाता है, वर्षभर भागवत पुराण के प्रसंगों का अभ्यास करते हैं। इन प्रस्तुतियों में संगीत, नृत्य, अभिनय और भाव - सभी का अद्भुत संतुलन होता है। मंच आमतौर पर गोल आकार का बनाया जाता है, जो जीवन और प्रेम की अनंतता का प्रतीक माना जाता है। रासलीला के समय पूरा वातावरण भक्ति से सराबोर हो जाता है - पृष्ठभूमि में मृदंग की लय, झांझ की झंकार और संगीतमय संवाद दर्शकों को अध्यात्मिक अनुभूति कराते हैं। कहा जाता है कि जो व्यक्ति मन से रासलीला का श्रवण करता है, वह श्रीकृष्ण की शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है। यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि वह पवित्र क्षण है जब कला, संस्कृति और श्रद्धा एकाकार हो जाते हैं।

मणिपुर की रासलीला – नृत्य रूप में आध्यात्मिकता की अभिव्यक्ति
भारत के पूर्वोत्तर में स्थित मणिपुर ने रासलीला को एक अद्वितीय नृत्य रूप में पिरोया है। 18वीं शताब्दी में राजा भाग्यचंद्र, जिन्हें निंगथउ चिंग-थांग खोंबा भी कहा जाता है, ने इस नृत्य शैली को विकसित किया था। मणिपुरी रासलीला अपनी कोमलता, लयबद्धता और सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है। इसमें नर्तक और नर्तकियाँ पारंपरिक परिधान पहनते हैं - राधा और गोपियों की पोशाकें सुंदर जरी, रेशम और जरीदार घेरों से सजी होती हैं। इस नृत्य की हर मुद्रा और भाव भक्ति से ओतप्रोत होता है। कलाकारों के चेहरे पर शांति, उनकी गतियों में सौम्यता और उनकी आंखों में भक्ति का प्रकाश झलकता है। यह केवल नृत्य नहीं, बल्कि ध्यान का एक रूप है, जहाँ हर लय के साथ आत्मा ईश्वर के समीप पहुंचती है। मणिपुरी रासलीला यह सिखाती है कि जब भक्ति कला बनती है, तो वह केवल मनोरंजन नहीं रह जाती - वह साधना बन जाती है।
शास्त्रीय नृत्यों में रासलीला का प्रभाव
रासलीला की गूंज केवल मथुरा या वृंदावन तक सीमित नहीं रही। यह कथा भारत के विभिन्न शास्त्रीय नृत्य रूपों में रच-बस गई है। भरतनाट्यम, कथक, ओडिसी, मणिपुरी और कुचिपुड़ी जैसे नृत्य रूपों में राधा-कृष्ण की प्रेमकथा भाव, संगीत और मुद्रा के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। विशेष रूप से कथक नृत्य, जो उत्तर भारत की शान है, रासलीला से गहराई से जुड़ा हुआ है। कथक के हर चक्कर में, हर ठुमरी की ताल में और हर भावाभिव्यक्ति में श्रीकृष्ण की रासलीला की झलक मिलती है। कलाकार जब मंच पर “कृष्ण मुरारी” का अभिनय करते हैं, तो दर्शक स्वयं को उस दिव्य नृत्य का हिस्सा महसूस करने लगते हैं। यही कारण है कि रासलीला ने भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपरा को भावनात्मक गहराई और आध्यात्मिक ऊँचाई प्रदान की है।

आधुनिक भारत में रासलीला का विस्तार और पुनर्जीवन
आज के समय में रासलीला केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं रही, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा बन चुकी है। मथुरा और वृंदावन में प्रतिवर्ष होने वाले रासलीला उत्सव हजारों श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं। यहाँ के मंदिरों में दीप, संगीत और भक्ति का ऐसा संगम होता है जो हर दर्शक को आंतरिक शांति का अनुभव कराता है। रासलीला के पुनर्जीवन में रवींद्रनाथ टैगोर का विशेष योगदान रहा, जिन्होंने 1917 में मणिपुरी रासलीला देखकर इसे शांतिनिकेतन के विश्व-भारती विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया। यह कदम न केवल रासलीला को राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाला था, बल्कि उसने इसे आधुनिक कला मंचों तक पहुँचाया। आज रासलीला का प्रदर्शन लंदन (London, UK), न्यूयॉर्क (New York, USA) और टोक्यो (Tokyo, Japan) जैसे शहरों में भी किया जाता है - यह संदेश देते हुए कि प्रेम और भक्ति की यह धारा युगों और सीमाओं से परे है।
संदर्भ
https://bit.ly/3olYZaU
https://bit.ly/3olYZaU
https://tinyurl.com/3vetxf5h
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