रामपुरवासियों, आपकी धरती सिर्फ नवाबी तहज़ीब की नहीं, बल्कि हज़ारों वर्षों पुराने इतिहास की भी साक्षी है। रामपुर के पास स्थित अहिच्छत्र का प्राचीन स्थल इस बात का प्रमाण है कि इस क्षेत्र ने मौर्यकाल के बाद के राजनीतिक उतार-चढ़ाव, गुप्त साम्राज्य की समृद्धि, प्रतिहारों की शक्ति, और प्रारंभिक नगरों के विकास - सबको अपनी आँखों से देखा है। यह वही भूमि है जहाँ कभी कुषाणों की सत्ता थी, जहाँ गुप्तकालीन मंदिरों की छाप दिखाई देती है, और जहाँ सदियों तक विकसित होती कला, मूर्तिकला और मृण्मूर्तियों ने एक अनोखी सांस्कृतिक पहचान बनाई। रामपुर और अहिच्छत्र का यह ऐतिहासिक सफर केवल पुरानी ईंटों का ढेर नहीं, बल्कि इंडिया की सबसे बड़ी सभ्यताओं के विकसित होते कदमों का जीवंत दस्तावेज है।
आज के इस लेख में हम संक्षेप में समझेंगे कि मौर्यकाल के बाद उत्तर भारत की बदलती राजनीति में रामपुर-अहिच्छत्र क्षेत्र कैसे शुंग, कुषाण और सातवाहन जैसे वंशों से प्रभावित हुआ। फिर जानेंगे कि गुप्त साम्राज्य के स्वर्ण युग ने यहाँ की कला, स्थापत्य और संस्कृति को कैसी नई ऊँचाइयाँ दीं। इसके बाद गुप्त पतन के बाद उभरे छोटे राज्यों और गुर्जर–प्रतिहार साम्राज्य की भूमिका पर भी नज़र डालेंगे। साथ ही अहिच्छत्र के पुरातात्विक महत्व - गेरू रंग के बर्तनों से लेकर पीजीडब्ल्यू (PGW), एनबीपीडब्ल्यू (NBPW) आदि की विकसित संस्कृतियों - को भी समझेंगे। अंत में पीजीडब्ल्यू कला के चरणों, यहाँ मिली मृण्मूर्तियों और कनिंघम से लेकर आधुनिक एएसआई के शोध तक के मुख्य निष्कर्ष जानेंगे, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि रामपुर की धरती कितनी प्राचीन और विरासत से भरपूर रही है।
मौर्यकाल के बाद उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति और रामपुर क्षेत्र का संदर्भ
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत एक बार फिर क्षेत्रीय सत्ता संघर्षों में उलझ गया था। विशाल साम्राज्य के विखंडन के बाद शुंगों ने पाटलिपुत्र के कोर क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित किया, जबकि उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत में कुषाणों तथा सातवाहनों का प्रभाव तेजी से उभरने लगा। विशेष रूप से कुषाण साम्राज्य, जिसने मध्य एशिया से लेकर गंगा घाटी तक व्यापक भूभाग पर शासन किया, उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिरता व सांस्कृतिक समृद्धि में निर्णायक भूमिका निभाता है। कुषाणों का नियंत्रण बनारस तक फैला हुआ था, जिसके कारण आज का रामपुर, बरेली, शाहजहाँपुर और अहिच्छत्र का पूरा क्षेत्र उनके प्रशासनिक प्रभाव में आता था। अहिच्छत्र में खुदाई से प्राप्त स्वर्ण-रत्न जड़ित सिक्के, विशिष्ट मिट्टी के पात्र, सीलें और स्थापत्य अवशेष स्पष्ट संकेत देते हैं कि यह नगर कुषाण काल में व्यापार एवं सैन्य दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। इस अवधि की वस्तुएँ रोम, मध्य एशिया और भारत के बीच हो रहे व्यापारिक आदान - प्रदान को भी दर्शाती हैं, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि रामपुर - अहिच्छत्र मार्ग प्राचीन व्यापार पथों का एक अहम हिस्सा रहा होगा।
गुप्त साम्राज्य का स्वर्ण युग और अहिच्छत्र–रामपुर क्षेत्र पर उसका प्रभाव
गुप्त काल भारतीय संस्कृति, कला, शिक्षा और प्रशासन के विकास का श्रेष्ठतम युग माना जाता है। इस समय के मंदिरों की पिरामिडनुमा व्यवस्था, पत्थर पर की गई नक्काशी, देव-प्रतिमाओं का कोमल सौंदर्य और उच्च स्तर की स्वर्ण मुद्राएँ - इन सभी में एक अद्भुत परिष्कार दिखाई देता है। रामपुर - अहिच्छत्र क्षेत्र भी गुप्तों के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। यहाँ पाए गए देवालय अवशेषों में शिखर निर्माण, नक्काशीदार स्तंभ, और धार्मिक मूर्तियों की विशिष्ट गुप्तकालीन शैली के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। अहिच्छत्र से प्राप्त गंगा - यमुना की प्रसिद्ध मिट्टी की मूर्तियाँ, जिनका भावाभिनय और कलात्मक प्रस्तुति दुनिया में अद्वितीय मानी जाती है, गुप्तकालीन कला की उच्चतम उपलब्धियों में से एक हैं। समुद्रगुप्त की सैन्य - कूटनीति और चंद्रगुप्त द्वितीय की सांस्कृतिक नीतियों ने इस क्षेत्र के व्यापार, मंदिर - निर्माण और कला-परंपरा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। गुप्त काल की स्वर्ण मुद्राएँ आज भी ब्रिटिश म्यूज़ियम सहित कई संग्रहालयों में विश्व-धरोहर के रूप में संरक्षित हैं। इन मुद्राओं पर अंकित राजसी परिधान, देव - प्रतिमाएँ और संस्कृत लिपियाँ उच्चस्तरीय धातुकला व सौंदर्यशास्त्र का प्रतीक हैं।
गुप्तों के बाद उत्पन्न छोटे राज्यों का उदय और गुर्जर–प्रतिहार साम्राज्य की स्थापना
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत - विशेषकर गंगा - यमुना दोआब - राजनीतिक रूप से फिर से विभाजित हो गया। कई स्थानीय वंशों और गणराज्यों का उदय हुआ, जिनमें से कुछ अल्पकालिक और कुछ विस्तारित शासन स्थापित करने में सफल हुए। 7वीं शताब्दी में गुर्जर - प्रतिहार साम्राज्य का तेज़ी से उभार हुआ, जिसने उत्तर भारत को एकीकृत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रतिहार राजा मिहिरभोज ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर पूरे उत्तर भारत पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित किया। रामपुर, बरेली, बदायूँ और आसपास के अधिकांश नगर प्रतिहारों के अधीन रहे। इस समय मंदिर-निर्माण और नगर - व्यवस्था में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इस काल के मंदिरों में नागरा शैली, पाषाण स्तंभों पर कलात्मक नक्काशी, और भित्तिचित्रों में धार्मिक व सामाजिक जीवन का चित्रण देखने को मिलता है। प्रतिहार शासन ने कला, संस्कृति और सैन्य संरचना में वह स्थिरता प्रदान की जिसने बाद में चंदेल, गहलोत, और पाल जैसे राजवंशों को भी प्रभावित किया।
अहिच्छत्र का पुरातात्विक महत्व और प्रारंभिक शहरी विकास
अहिच्छत्र भारत के उन दुर्लभ नगरों में से है जिसमें लगभग 3000 वर्षों तक निरंतर बसावट रही। यह 2000 ईसा पूर्व से लेकर 1100 ईस्वी तक एक जीवंत शहरी केंद्र बना रहा - जो इसकी अद्भुत योजना, संसाधन-संरक्षण प्रणाली और व्यापारिक महत्त्व का प्रमाण है। रामगंगा और गंगा के बीच स्थित होने के बावजूद यहाँ कोई स्थायी जलस्रोत नहीं था, लेकिन नगर की अभिकल्पना इतनी उन्नत थी कि वर्षा - जल संरक्षण, तालाब - प्रणाली और कुओं के माध्यम से जीवन निरंतर चलता रहा। पुरातात्विक खुदाइयों में यहाँ गेरू रंग के बर्तन, पीजीडब्ल्यू, एनबीपीडब्ल्यू, सिक्के, ताम्र - अवशेष, नगर - दीवारें, प्राचीन मार्ग और व्यापार केंद्र मिले हैं। यह क्रमिक विकास स्पष्ट करता है कि अहिच्छत्र न केवल एक धार्मिक - सांस्कृतिक केंद्र था बल्कि एक उन्नत प्राचीन नगर-राज्य भी रहा। इसके विशाल क्षेत्र (लगभग 40 हेक्टेयर) और नगर-दुर्ग संरचना इसे उत्तर भारत के सबसे बड़े प्राचीन बसावट स्थलों में स्थान दिलाती है।

चित्रित भूरे बर्तनों (Painted Grey Ware) की कला और उसका क्रमिक विकास
पीजीडब्ल्यू संस्कृति उत्तर भारत की प्रारंभिक लौह - युगीन सभ्यताओं में से एक है, और अहिच्छत्र इसका एक प्रमुख केंद्र रहा। यहाँ प्राप्त पीजीडब्ल्यू को तीन चरणों - प्रारंभिक, मध्य और अंतिम - में आसानी से विभाजित किया जा सकता है:
अहिच्छत्र की मृण्मूर्तियाँ और टेराकोटा कला
अहिच्छत्र की टेराकोटा कला भारत की प्राचीन मूर्तिकला परंपरा का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यहाँ से प्राप्त मृण्मूर्तियाँ - स्त्री - प्रतिमाएँ, पशु - आकृतियाँ, धार्मिक प्रतीक और शिल्प उपकरण - प्रत्येक में एक विशिष्ट सौंदर्य और तकनीकी दक्षता दिखाई देती है। सबसे प्रसिद्ध हरे - भूरे रंग का हाथी है, जो अपनी स्थिरता, बनावट और अभिव्यक्ति के कारण पुरातत्वविदों के लिए अत्यंत मूल्यवान खोज है। इसके अतिरिक्त, एक पात्र पकड़े बैठी स्त्री की मूर्ति, केला - आकृति धार्मिक वस्तुएँ, और अनेक मानव - रूपांकित टेराकोटा टुकड़े यह दर्शाते हैं कि अहिच्छत्र केवल व्यापारिक नगर ही नहीं था बल्कि एक धार्मिक - सांस्कृतिक कला केंद्र भी था। इन प्रतिमाओं की बनावट, अनुपात और अलंकरण शैली आम लोगों के जीवन, आध्यात्मिक विचारों और दैनिक गतिविधियों का प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है।

अहिच्छत्र में खुदाइयाँ: कनिंघम से लेकर आधुनिक ASI तक
अहिच्छत्र का आधुनिक पुरातात्विक अध्ययन ब्रिटिश काल से प्रारंभ हुआ जब प्रसिद्ध पुरातत्वविद् अलेक्जेंडर कनिंघम (Alexander Cunningham) ने यहाँ पहली व्यवस्थित खुदाई कर इस स्थल को विद्वानों के सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने अहिच्छत्र की पहचान प्राचीन शास्त्रों में उल्लेखित पंचाल राज्य की उत्तरी राजधानी के रूप में की - जो आज भी इतिहासकारों द्वारा स्वीकार की जाती है। पिछले दो दशकों में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के पुरातत्वविद् भूवन विक्रम ने “एक्सप्रेशन ऑफ़ आर्ट ऐट अहिच्छत्र” (Expression of Art at Ahichhatra) नामक विस्तृत शोध किया, जिसमें यहाँ की कला - परंपरा, पीजीडब्ल्यू–एनबीपीडब्ल्यू विकास, नगर-विस्तार और धार्मिक-सांस्कृतिक पहलुओं को गहराई से समझाया गया है। वर्तमान में भी अहिच्छत्र में खुदाइयाँ जारी हैं और हर साल नई-नई कलाकृतियाँ सामने आती हैं - जो इस स्थल को प्राचीन भारतीय इतिहास को समझने का अत्यंत महत्वपूर्ण और जीवंत स्रोत बनाती हैं।
संदर्भ -
https://bit.ly/3xkaiAf
https://bit.ly/32idOQc
https://tinyurl.com/pke8ckef
https://tinyurl.com/yc2j7jbn
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