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लखनऊवासियों के लिए पानी सिर्फ एक ज़रूरत नहीं, बल्कि जीवन, कृषि और संस्कृति का मूल स्रोत रहा है। जब हम सिंचाई की बात करते हैं, तो ‘गंगा नहर प्रणाली’ जैसी ऐतिहासिक परियोजना की चर्चा किए बिना यह पूरी नहीं होती। हरिद्वार और रुड़की जैसे उत्तराखंड के नगरों से शुरू होकर यह नहर उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों — जिनमें लखनऊ भी शामिल है — तक सिंचाई और जल आपूर्ति की एक सशक्त धारा बनकर बहती है। 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों के शासनकाल में जब उत्तर भारत भयंकर अकाल और जल संकट की गिरफ्त में था, तब गंगा नहर ने जीवनदायिनी बनकर खेतों को पानी और समाज को आश्वासन दिया। यह केवल एक तकनीकी उपलब्धि नहीं थी, बल्कि यह धार्मिक संवेदनाओं का सम्मान करते हुए, नवाचार और प्रशासनिक समझ का उत्कृष्ट उदाहरण भी बनी। आज लखनऊ की उपजाऊ ज़मीनों में जो हरियाली लहराती है, उसमें कहीं न कहीं इस नहर का भी योगदान छिपा है। गंगा के पवित्र जल को हरिद्वार में बाँधों और नियंत्रित संरचनाओं के माध्यम से मोड़कर, इस नहर को उत्तर भारत की सबसे बड़ी सार्वजनिक जल परियोजनाओं में स्थान मिला। यह परियोजना आज भी लखनऊ समेत अनेक जिलों के किसानों की रीढ़ बनी हुई है। यह नहर सिर्फ जल प्रवाह नहीं, बल्कि समय के साथ बहती सांस्कृतिक और तकनीकी विरासत का प्रतीक है।
इस लेख में हम देखेंगे कि गंगा नहर प्रणाली का निर्माण कैसे 1837-38 के अकाल के बाद शुरू हुआ और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे 1854 तक पूरा किया। हम पढ़ेंगे कि इंजीनियर प्रोबी थॉमस कॉटली ने किस प्रकार जटिल तकनीकों से सुपर-पैसेज जैसी संरचनाएँ बनाईं। हम जानेंगे कि यह नहर हरिद्वार से शुरू होकर 898 मील तक फैली है और हजारों वर्ग किमी भूमि को सिंचित करती है। हम देखेंगे कि गंगा जल की पवित्रता को लेकर धार्मिक विरोध हुआ और किस तरह समाधान निकाला गया। अंत में, हम पढ़ेंगे कि इस परियोजना ने भारत में सिविल इंजीनियरिंग शिक्षा की नींव कैसे रखी और रूड़की इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना में इसकी क्या भूमिका रही।
गंगा नहर प्रणाली का ऐतिहासिक निर्माण और औपनिवेशिक संदर्भ
गंगा नहर प्रणाली की योजना 1837-38 के भयानक अकाल के बाद बनाई गई, जब उत्तर-पश्चिम भारत में मानसून विफल रहा और लगभग 80,000 लोग भूख से मारे गए। यह अकाल ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए एक चेतावनी बन गया। इसके बाद तय हुआ कि एक ऐसी स्थायी जल व्यवस्था होनी चाहिए जो मानसून पर निर्भर न हो। इस उद्देश्य से गंगा और यमुना नदियों के बीच एक विशाल नहर प्रणाली की योजना बनाई गई। 1842 में इस परियोजना पर कार्य आरंभ हुआ और 1854 में यह पूर्ण हुई। यह नहर हरिद्वार से शुरू होकर लगभग 898 मील तक फैली हुई है। इसके निर्माण में उस समय लगभग 2 करोड़ रुपए खर्च हुए जो उस युग के लिए एक असाधारण राशि थी। यह नहर प्रणाली विश्व की सबसे बड़ी मानव निर्मित सिंचाई व्यवस्था बन गई थी। ब्रिटिश शासनकाल में यह परियोजना तकनीकी और प्रशासनिक दृष्टि से एक बड़ी उपलब्धि मानी गई। इस नहर परियोजना का मूल उद्देश्य केवल सिंचाई नहीं था, बल्कि यह एक सामाजिक और राजनीतिक समाधान भी था। इसे औपनिवेशिक शासन के प्रशासनिक स्थायित्व और राजस्व वृद्धि के लिए एक रणनीतिक उपकरण के रूप में भी देखा गया। परियोजना की सफलता ने भारत में अन्य सिंचाई योजनाओं को प्रेरणा दी और यह ‘राज्य और जल’ के रिश्ते का एक ऐतिहासिक बिंदु बन गई। आज भी इसका ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व अकाल-प्रभावित क्षेत्रों के लिए एक सीख का स्रोत है।
इंजीनियर प्रोबी थॉमस कॉटली और उनकी इंजीनियरिंग दृष्टि
गंगा नहर प्रणाली को ब्रिटिश इंजीनियर प्रोबी थॉमस कॉटली ने डिज़ाइन और निर्माणित किया। उन्हें जल प्रबंधन और हाइड्रोलिक इंजीनियरिंग का गहरा ज्ञान था। उन्होंने नहर के पहले 20 मील में चार जटिल जल चौराहे (जल निकायों के पारगमन) बनाए, जिनमें ‘सुपर-पैसेज’ की संरचनाएँ विशिष्ट थीं। रेनपुर सुपर-पैसेज 200 फीट चौड़ा, 14 फीट गहरा और 450 फीट लंबा था। इसका तल कंक्रीट स्टॉप से सुसज्जित था, जो हिमालय से बहकर आने वाले पत्थरों को रोकता था। इन स्टॉप्स को हर दो से तीन वर्षों में बदलना पड़ता था। एक और सुपर-पैसेज तो 300 फीट चौड़ा था, जो उस समय की इंजीनियरिंग का चमत्कार था। निर्माण कार्य के दौरान अपनी जरूरत की ईंटें, भट्टियाँ और मोर्टार खुद तैयार किए गए। उनकी दृष्टि और नेतृत्व ने एक असंभव प्रतीत होने वाली परियोजना को साकार किया। कॉटली ने स्थानीय भूगोल, जलधाराओं की प्रवृत्ति, और मौसमी बहाव का गहन अध्ययन किया था। उनके नेतृत्व में पूरी टीम ने एक ऐसी प्रणाली विकसित की जो जल की गति को नियंत्रित करते हुए न्यूनतम हानि के साथ अधिकतम सिंचाई दे सके। वे केवल इंजीनियर नहीं थे, बल्कि एक रणनीतिक योजनाकार भी थे जिन्होंने नहर के साथ-साथ सामाजिक समन्वय पर भी ध्यान दिया। आज कॉटली को भारत के जल इतिहास में एक महान दूरदर्शी के रूप में याद किया जाता है।
नहर का भौगोलिक विस्तार और सिंचाई में भूमिका
गंगा नहर प्रणाली का विस्तार हरिद्वार से लेकर दक्षिण की ओर 898 मील तक फैला हुआ है। यह मुख्य रूप से गंगा और यमुना के बीच स्थित दोआब क्षेत्र की भूमि को सिंचित करती है। वर्तमान में यह नहर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के लगभग 10 जिलों की 9,000 वर्ग किलोमीटर कृषि भूमि को सिंचाई सुविधा देती है। इस प्रणाली ने गेहूं, गन्ना, और धान जैसी फसलों की उत्पादकता को जबरदस्त बढ़ावा दिया है। अनेक उपनहरों और जल निकासी संरचनाओं के माध्यम से यह नहर खेतों तक जल पहुँचाती है। बरसात के मौसम में यह अतिरिक्त जल को नियंत्रित करने में भी सहायक है। इसके अलावा, इस नहर में बाद में जल विद्युत परियोजनाएँ भी जुड़ीं, जो लगभग 33 मेगावाट बिजली उत्पन्न करने में सक्षम हैं। इस जलमार्ग ने पूरे क्षेत्र की आर्थिक और कृषि संरचना को स्थायित्व दिया। नहर के विस्तार ने सूखा-प्रवण क्षेत्रों को कृषि में आत्मनिर्भर बनाया। इस प्रणाली ने न केवल जल उपलब्ध कराया, बल्कि ग्रामीण रोजगार, फसल विविधीकरण और जल नीति निर्माण में भी प्रमुख भूमिका निभाई। आज भी यह नहर एक जीवनरेखा की तरह मानी जाती है, जिसने उत्तर भारत के कृषि-आधारित अर्थतंत्र को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया।
पारंपरिक विश्वास बनाम आधुनिक तकनीक: गंगा जल पर धार्मिक विवाद
गंगा नहर प्रणाली के निर्माण के समय धार्मिक आस्था से संबंधित कई प्रश्न उठे। स्थानीय हिंदू पुजारियों ने गंगा के पवित्र जल को ‘क़ैद’ करने का विरोध किया, क्योंकि वे मानते थे कि गंगा जल का मुक्त बहाव ही उसकी पवित्रता का आधार है। पुजारियों की इस चिंता को गंभीरता से लेते हुए इंजीनियर प्रोबी थॉमस कॉटली ने नहर में एक विशेष ‘बहाव मार्ग’ की व्यवस्था की। इस मार्ग से गंगा का जल बिना अवरोध के बह सके, जिससे उसकी धार्मिक पवित्रता बनी रहे। यह निर्णय उस युग में धार्मिक और तकनीकी संवाद का एक दुर्लभ उदाहरण बना। इस समझौते के बाद परियोजना को स्थानीय समर्थन भी मिला। यह घटना दर्शाती है कि तकनीकी विकास में धार्मिक भावनाओं को सम्मान देना कितना आवश्यक होता है। इस संतुलन से यह भी सिद्ध होता है कि उपनिवेशवादी प्रशासन ने स्थानीय धार्मिक भावनाओं को नजरअंदाज नहीं किया। नहर के निर्माण ने एक ऐसी मिसाल पेश की जहाँ परंपरा और आधुनिकता ने एक साथ कदम से कदम मिलाकर विकास को संभव बनाया। यह उदाहरण भविष्य की परियोजनाओं के लिए एक सांस्कृतिक मार्गदर्शक बन गया।
गंगा नहर और भारत की तकनीकी शिक्षा: रूड़की इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना
गंगा नहर परियोजना के बाद भारत में तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता महसूस की गई, ताकि भविष्य में ऐसे जटिल निर्माण कार्यों के लिए भारतीय इंजीनियर तैयार किए जा सकें। इसी क्रम में 1847 में ‘सिविल इंजीनियरिंग कॉलेज, रूड़की’ की स्थापना हुई। यह कॉलेज बाद में ‘थॉमसन कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनियरिंग’ और स्वतंत्रता के बाद ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रूड़की’ के नाम से जाना गया। यह भारत का पहला इंजीनियरिंग संस्थान था। इसकी स्थापना से देश में आधुनिक इंजीनियरिंग शिक्षा की नींव रखी गई। आज भी यह संस्थान गंगा नहर परियोजना को अपने इतिहास का गौरवपूर्ण अध्याय मानता है। यह सिद्ध करता है कि एक जल परियोजना केवल सिंचाई या ऊर्जा तक सीमित नहीं होती, बल्कि वह समाज, संस्कृति और शिक्षा को भी नया आकार देती है।
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