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भारत की सांस्कृतिक विविधता की आत्मा उसकी जनजातियों में बसती है, जिन्होंने सदियों से अपनी विशिष्ट परंपराओं, भाषाओं और जीवनशैली से देश की पहचान को समृद्ध किया है। विशेष रूप से गोंड और संथाल जनजातियाँ न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रही हैं, बल्कि आज भी अपने गहरे प्रकृति-संलग्न जीवन दर्शन से हमें सिखाती हैं कि जड़ों से जुड़े रहना क्या होता है। झारखंड, मध्य भारत से लेकर पूर्वोत्तर के आदिवासी गांवों तक इनकी उपस्थिति भारत की सामाजिक संरचना को एक अनूठा आयाम देती है। इनकी लोककथाएँ, नृत्य, हस्तशिल्प और पर्व हमें सांस्कृतिक विरासत की जीवंत झलक प्रदान करते हैं। आधुनिकता की दौड़ में जब सब कुछ तेजी से बदल रहा है, तब इन जनजातियों की पहचान, संघर्ष और परंपराओं को समझना पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी हो गया है। ये समुदाय केवल सांस्कृतिक प्रतीक नहीं, बल्कि जीवित धरोहर हैं जिन्हें संरक्षित करना हमारा सामाजिक दायित्व है। इस लेख में हम गोंड और संथाल जनजातियों के इतिहास, भाषा और सांस्कृतिक विरासत का विश्लेषण करेंगे। साथ ही इनकी सामाजिक संरचना, पारंपरिक शिल्प और जीवनशैली को समझेंगे। लेख के दूसरे भाग में हम गरीबी, ऋणग्रस्तता, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी प्रमुख चुनौतियों पर भी चर्चा करेंगे, जिनका सामना ये समुदाय आज कर रहे हैं। आइए, इन विषयों के माध्यम से भारत की जनजातीय आत्मा को समझने का प्रयास करें।
इस लेख भारत की दो प्रमुख जनजातियों — गोंड और संथाल — के ऐतिहासिक, भाषाई और सांस्कृतिक पक्षों की गहराई से पड़ताल करता है। सबसे पहले, हम जानेंगे गोंड जनजाति का इतिहास, भाषा और सांस्कृतिक विरासत, जिसमें उनके गढ़ों, धार्मिक विश्वासों और परंपराओं की चर्चा की गई है। फिर, हम देखेंगे संथाल समुदाय की उत्पत्ति, सामाजिक ढांचे और उनकी अद्वितीय शिल्पकला को। तीसरा भाग दोनों जनजातियों की पारंपरिक जीवनशैली और आर्थिक व्यवस्था को उजागर करता है। चौथे हिस्से में जनजातीय क्षेत्रों में व्याप्त गरीबी और साहूकारी प्रथा से उत्पन्न ऋण संकट पर ध्यान दिया गया है। अंत में, जनजातीय स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा की स्थिति की गंभीर चुनौतियों और उनमें आवश्यक सुधारों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है।
गोंड जनजाति का इतिहास, भाषा और सांस्कृतिक विरासत
गोंड जनजाति भारत की सबसे पुरानी और प्रमुख आदिवासी जनजातियों में से एक है। इनका निवास क्षेत्र मुख्यतः मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश तक फैला हुआ है। गोंड स्वयं को ‘कोई’ या ‘कोइतूर’ कहते हैं। नौवीं से तेरहवीं शताब्दी के बीच गोंड गोंडवाना क्षेत्र में बस गए और चौदहवीं शताब्दी में उन्होंने गढ़-मंडला, देवगढ़, चंदा और खेरला जैसे राज्यों पर शासन किया। उनके शासन में कई किले, झीलें, मंदिर और तालाब बनाए गए जो आज भी उनके गौरवशाली अतीत की गवाही देते हैं।
गोंडों की भाषा ‘गोंडी’ है, जो द्रविड़ भाषाओं से संबंधित है। हालांकि उत्तरी क्षेत्रों में हिंदी और मराठी तथा दक्षिणी क्षेत्रों में फारसी जैसे प्रभाव भी दिखते हैं। इनकी धार्मिक मान्यताएँ प्रकृति आधारित हैं। वे पृथ्वी, जल और वायु को देवतुल्य मानते हैं और प्रत्येक प्राकृतिक तत्व में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारते हैं। 'फरसा कलम' इनकी प्रमुख पूज्य वस्तु है, जो एक प्रतीकात्मक हथियार की तरह पूजा जाता है। केसलापुर जथरा और मड़ई इनके प्रमुख पर्व हैं जहाँ नागोबा देवता की पूजा और पारंपरिक गुसाडी नृत्य किए जाते हैं। गोंडों की परंपराएँ न केवल धार्मिक विश्वासों से जुड़ी हैं, बल्कि इनकी सामाजिक एकता का भी प्रतीक हैं।
संथाल जनजाति की उत्पत्ति, सामाजिक ढांचा और शिल्पकला
संथाल जनजाति भारत की तीसरी सबसे बड़ी अनुसूचित जनजाति है जो मुख्य रूप से झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में निवास करती है। इनकी भाषा ‘संथाली’ है, जो ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार की मुंडारी शाखा से संबंधित है। माना जाता है कि संथाल लोग चंपा साम्राज्य (कंबोडिया) से आए थे और धीरे-धीरे पूर्वी भारत में बसे। संथाल समाज पितृसत्तात्मक होता है और यह 12 प्रमुख कुलों और 164 उपकुलों में बंटा होता है। प्रत्येक गांव में एक पवित्र उपवन होता है, जहाँ ‘बोंगा’ देवताओं की पूजा होती है। पुजारी को 'नैके' कहा जाता है, जो धार्मिक अनुष्ठानों का संचालन करता है। संथालों में ओझाओं की भी मान्यता होती है, जो इलाज और तांत्रिक उपायों से जुड़ी होती है। शिल्प की दृष्टि से संथाल लकड़ी की नक्काशी, चटाई बुनाई और साल के पत्तों से बने बर्तन बनाने में पारंगत हैं। वे अपने उत्पादों को आदिवासी बाजारों में नकद या वस्तु विनिमय के ज़रिए बेचते हैं। खेती, पशुपालन और हस्तशिल्प संथालों की जीविका के प्रमुख साधन हैं। उनकी संगीत परंपरा, विशेष रूप से ‘धमसा’ और ‘मादल’ वाद्ययंत्रों के साथ, उत्सवों में मुख्य भूमिका निभाती है। संथाल परगना विद्रोह (1855) भी इनके इतिहास की वीरगाथा का प्रतीक है, जिसमें सिद्धू-कान्हू जैसे नेता शामिल थे।
गोंड और संथाल जनजातियों की जीवनशैली और आर्थिक व्यवस्था
गोंड और संथाल जनजातियों की जीवनशैली में प्रकृति का गहरा प्रभाव है। गोंडों का मुख्य आहार कोदो-कुटकी जैसे मोटे अनाज हैं, जबकि संथाल चावल और मांसाहारी भोजन को प्राथमिकता देते हैं। दोनों समुदायों में पशुपालन प्रचलित है और ये अपने पारंपरिक त्योहारों में उत्सवपूर्वक भाग लेते हैं।
गोंडों का गुसाडी नृत्य और संथालों का डांस संगीत इनकी सांस्कृतिक पहचान हैं। वे अपनी वेशभूषा और वाद्ययंत्रों को खुद तैयार करते हैं। जीवन के हर पहलू में सामुदायिक सहयोग और परंपरा की भूमिका होती है। गोंडों में फरसा और लोहे की वस्तुएं पूजनीय हैं, वहीं संथाल बोंगा देवताओं के लिए बलि देते हैं।
इनकी जीविका मुख्य रूप से जंगल, कृषि और पारंपरिक हस्तशिल्प पर आधारित है। वर्ष भर का उनका समय प्राकृतिक चक्र, खेती के मौसम और धार्मिक त्योहारों से निर्धारित होता है। जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों और जल स्रोतों के साथ उनका व्यवहार अत्यंत सम्मानजनक और संरक्षक के रूप में होता है।
आदिवासी क्षेत्रों में गरीबी और ऋणग्रस्तता की स्थिति
भारत के अधिकांश जनजातीय समुदाय गहरे आर्थिक संकट में जी रहे हैं। उनका पारंपरिक कृषि ज्ञान आधुनिक तकनीक से मेल नहीं खाता, जिससे उत्पादन सीमित रहता है। इससे उनकी आय न्यूनतम रहती है और वे लगातार गरीबी के दुष्चक्र में फंसे रहते हैं। इस स्थिति का सबसे बड़ा कारण साहूकारों की उधारी व्यवस्था है, जिसमें आदिवासी उच्च ब्याज दरों पर ऋण लेकर अपनी ज़मीन गिरवी रखते हैं। औपचारिक बैंकिंग व्यवस्था की अनुपलब्धता ने उन्हें साहूकारों पर निर्भर कर दिया है। ब्रिटिश शासनकाल से शुरू हुआ भूमि हरण और संसाधनों की लूट आज भी चल रही है, जिससे विस्थापन और सामाजिक असुरक्षा बढ़ी है। ऐसे में जनजातियों को आर्थिक रूप से सशक्त करने के लिए ग्राम स्तर पर सहकारी संस्थाओं और लघु ऋण योजनाओं की अत्यधिक आवश्यकता है।
जनजातीय स्वास्थ्य और पोषण की गंभीर चुनौतियाँ
आदिवासी इलाकों में कुपोषण, संक्रामक रोग और स्वच्छ जल की कमी एक बड़ी स्वास्थ्य चुनौती है। विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्रों की जनजातियों में आयोडीन की कमी से घेंघा जैसे रोग आम हैं। संथाल क्षेत्रों में भी डायरिया, मलेरिया और तपेदिक जैसी बीमारियाँ व्यापक रूप से फैली हुई हैं।
गोंड और संथाल समुदाय पारंपरिक उपचार पद्धतियों पर निर्भर रहते हैं, जिसमें जड़ी-बूटियों और ओझाओं का प्रमुख योगदान होता है। हालांकि आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपलब्धता ने इनके स्वास्थ्य सूचकांकों को प्रभावित किया है। शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर भी इन समुदायों में उच्च पाई जाती है। कुपोषण, साफ पानी की अनुपलब्धता और पोषण शिक्षा की कमी के कारण बच्चों और महिलाओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता अत्यंत कमजोर होती है। स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच बढ़ाकर और परंपरागत ज्ञान को आधुनिक चिकित्सा से जोड़कर समाधान निकाला जा सकता है।
शिक्षा में पिछड़ापन और शैक्षिक बदलाव की आवश्यकता
जनजातीय समुदायों में शिक्षा की स्थिति अत्यंत चिंताजनक रही है। गरीबी, दूर-दराज की बसावट, भाषायी अवरोध और सांस्कृतिक मिथक शिक्षा को बाधित करते हैं। संथाल और गोंड दोनों समुदायों में परंपरागत रूप से औपचारिक शिक्षा को महत्व नहीं दिया जाता था। अधिकांश गाँवों में स्कूल की दूरी अधिक होती है और शिक्षक वहाँ नहीं जाना चाहते। बच्चों को घरेलू कार्यों में लगाना ज़्यादा व्यावहारिक माना जाता है। हालांकि हाल के वर्षों में आरक्षण और सरकार द्वारा चलाए गए मिशनों ने कुछ हद तक सुधार लाया है।
जनजातियों के लिए विशेष पाठ्यक्रम, मातृभाषा में शिक्षा, और छात्रावास जैसी योजनाओं से शिक्षा का स्तर धीरे-धीरे सुधर रहा है। परंतु इस सुधार की गति तेज़ करने के लिए, जनजातीय संस्कृति के प्रति संवेदनशील और समावेशी शैक्षणिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2ten9y6n
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