
गंगा और यमुना नदियों के दोआब में बसा मेरठ शहर, भले ही समुद्र से सैकड़ों किलोमीटर दूर हो, लेकिन इसकी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य कहीं न कहीं समुद्र की गहराइयों में छिपा हुआ है। यह सुनकर आपको आश्चर्य हो सकता है, लेकिन यह संबंध जुड़ा है प्रवाल भित्तियों से, जिन्हें पृथ्वी के सबसे समृद्ध और नाजुक पारिस्थितिक तंत्रों में गिना जाता है।
भारत में प्रवाल भित्तियाँ मुख्य रूप से अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप और मन्नार की खाड़ी जैसे क्षेत्रों में पाई जाती हैं। ये चट्टानें सिर्फ़ समुद्री जीवों के लिए घर नहीं हैं, बल्कि देश की समुद्री अर्थव्यवस्था, मत्स्य उद्योग और तटीय सुरक्षा की मज़बूत आधारशिला भी हैं। प्रवाल भित्तियाँ (Coral Reefs) समुद्री पारिस्थितिकी को संतुलित रखने का काम करती हैं, जिसका प्रभाव पूरे वैश्विक पर्यावरण पर पड़ता है। लेकिन दुख की बात यह है कि आज ये प्रवाल भित्तियाँ गंभीर संकटों का सामना कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन, समुद्र के बढ़ते तापमान, प्रदूषण और मानवीय हस्तक्षेप के कारण इनका प्राकृतिक स्वरूप तेज़ी से नष्ट हो रहा है। समुद्र अधिक अम्लीय होते जा रहे हैं, जिससे प्रवाल विरंजन की घटनाएं बढ़ रही हैं और साथ ही समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन पैदा हो रहा है। यह सिर्फ़ समुद्र तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके प्रभाव धरती के भीतर तक महसूस किए जा रहे हैं।
मेरठ जैसे आंतरिक शहर भी अब इन वैश्विक पारिस्थितिक संकटों से अछूते नहीं हैं। यहां के मौसम में असामान्यता, वर्षा के चक्र में अस्थिरता और खेती की उत्पादकता में गिरावट जैसे बदलाव स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। इन परिवर्तनों को नियंत्रित करने में प्रवाल भित्तियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये जलवायु संतुलन बनाए रखने में मदद करती हैं।
इसलिए जब हम सतत विकास की बात करते हैं, तो यह केवल अपने आस-पास सफ़ाई रखने या पेड़ लगाने तक सीमित नहीं रह जाता। मेरठ के नागरिकों को यह समझने की आवश्यकता है कि उनकी रोज़मर्रा की आदतें, जैसे प्लास्टिक का कम इस्तेमाल करना, जल संरक्षण को अपनाना, और पर्यावरणीय नीतियों का समर्थन करना आदि सीधे तौर पर उन प्रवाल भित्तियों को बचाने में मदद कर सकती हैं जो हमारी पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र को स्थिर बनाए रखती हैं।
आज के इस लेख में हम सबसे पहले प्रवाल भित्तियों के बारे में विस्तार से जानेंगे। साथ ही यह समझेंगे कि भारत में इनका पारिस्थितिक महत्व क्या है, ये किन-किन खतरों का सामना कर रही हैं! आगे हम यह भी जानेंगे कि इनकी रक्षा के लिए हम व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से क्या प्रयास कर सकते हैं।
कोरल रीफ़ (प्रवाल भित्तियाँ) भारत के सबसे पुराने और जीवंत पारिस्थितिकी तंत्रों में से एक मानी जाती हैं। ये रीफ़ मुख्य रूप से गर्म और उष्णकटिबंधीय जलवायु वाले हिंद महासागर के क्षेत्रों में पाई जाती हैं। भारत के समुद्री क्षेत्र में कोरल रीफ़ की एक विस्तृत और सक्रिय प्रणाली विकसित हुई है।
भारत में चार प्रमुख स्थानों पर कोरल रीफ़ पाई जाती हैं:
इनके अतिरिक्त, मालवन क्षेत्र (महाराष्ट्र) में भी कोरल रीफ़ की उपस्थिति देखी गई है।
हालांकि भारत की तटरेखा लगभग 7,517 किलोमीटर लंबी है, फिर भी देश में कोरल रीफ़ का विस्तार बहुत सीमित है। इसका मुख्य कारण भारत की उपोष्णकटिबंधीय जलवायु है, जो कोरल रीफ़ के विकास के लिए हर स्थान पर अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं प्रदान करती।
कोरल रीफ़ पृथ्वी के सबसे जैविक रूप से समृद्ध और उत्पादक पारिस्थितिकी तंत्रों में गिने जाते हैं। ये न केवल समुद्री जैव विविधता को आश्रय प्रदान करते हैं, बल्कि तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोगों की आजीविका और जीवन शैली के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
इनका संरक्षण न केवल समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए, बल्कि पूरे पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है।
कोरल रीफ़ से अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए:
हालांकि, वर्तमान में कोरल रीफ़ कई गंभीर खतरों का सामना कर रहे हैं। इनमें अत्यधिक मछली पकड़ना, तटीय क्षेत्रों का अनियंत्रित विकास, कृषि से बहने वाला रासायनिक अपवाह और जहाजरानी से जुड़ी गतिविधियाँ शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, जलवायु परिवर्तन भी एक गंभीर और उभरता हुआ खतरा बन चुका है, जो पहले से मौजूद समस्याओं को और अधिक गंभीर बना देता है। विशेष रूप से समुद्री तापमान में वृद्धि से कोरल रीफ़ को भारी नुकसान हुआ है। अधिक तापमान के कारण कोरल "ब्लीचिंग" नामक प्रक्रिया से गुज़रते हैं, जिसमें वे अपने सहजीवी शैवाल (zooxanthellae) को खो देते हैं। ये शैवाल न केवल कोरल को उसका रंग प्रदान करते हैं, बल्कि उसकी ऊर्जा का मुख्य स्रोत भी होते हैं। जब ये शैवाल खत्म हो जाते हैं, तो कोरल का सफ़ेद कंकाल दिखाई देने लगता है और समय के साथ वे मर सकते हैं।
इसके अलावा, वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) गैस के बढ़ते उत्सर्जन से दुनिया के महासागर धीरे-धीरे ज्यादा खारे और अम्लीय होते जा रहे हैं। इससे कोरल का वृद्धि दर धीमी हो जाता है और उनके ढांचे का पुनर्निर्माण मुश्किल हो जाता है।
इन सभी खतरों को देखते हुए, कोरल रीफ़ के सतत संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता अब पहले से कहीं अधिक हो गई है। यदि समय रहते प्रभावी कदम नहीं उठाए गए, तो समुद्री जैव विविधता और मानव समुदायों के लिए इनका मूल्यवान पारिस्थितिक योगदान संकट में पड़ सकता है।
इसलिए आज के समय में कोरल रीफ़ (प्रवाल भित्तियों) के संरक्षण की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। इसका कारण यह है कि ये न सिर्फ़ समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, बल्कि मानव जीवन और आजीविका के लिए भी अत्यंत आवश्यक हैं।
प्रवाल भित्तियाँ समुद्र के भीतर जीवन के लिए एक समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करती हैं। ये:
उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया की ग्रेट बैरियर रीफ़ में 400 से अधिक प्रवाल प्रजातियाँ, 1,500 प्रकार की मछलियाँ और 4,000 से अधिक मोलस्क प्रजातियाँ पाई जाती हैं। यहाँ विश्व की सात में से छह समुद्री कछुओं की प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं।
दक्षिण-पूर्व एशिया में स्थित कोरल ट्राएंगल, जो इंडोनेशिया, मलेशिया, फ़िलीपींस और पापुआ न्यू गिनी तक फैला है, को पृथ्वी का सबसे जैविक रूप से समृद्ध समुद्री क्षेत्र माना जाता है। यह क्षेत्र प्रवालों और उनसे जुड़े जीवन रूपों के संरक्षण में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
प्रवाल भित्तियों का आर्थिक और सामाजिक महत्व भी बहुत ज़्यादा है! प्रवाल भित्तियों का अनुमानित वैश्विक आर्थिक मूल्य प्रति वर्ष लगभग £6 ट्रिलियन है। इससे मछली पकड़ने, पर्यटन उद्योग और तटीय सुरक्षा में इनके योगदान का पता चलता है। दुनिया भर में 50 करोड़ से अधिक लोग भोजन, रोजगार और सुरक्षा के लिए इन पर निर्भर हैं।
ये भित्तियाँ समुद्री लहरों की 97% तक ऊर्जा को कम कर सकती हैं, जिससे तटीय इलाकों को सुनामी जैसे खतरों से सुरक्षा मिलती है।
पारिस्थितिकी तंत्र में प्रवाल भित्तियाँ:
कोरल रीफ़, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का एक अत्यंत महत्वपूर्ण भाग हैं, जिनकी रक्षा और पुनरुद्धार के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। यह दृष्टिकोण स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तरों पर समन्वित प्रयासों पर आधारित होता है।
इस दिशा में चार प्रमुख रणनीतियाँ अपनाई जाती हैं:
1. कोरल आवास की गुणवत्ता में सुधार: कोरल रीफ़ के लिए उपयुक्त वातावरण सुनिश्चित करने के लिए अनुसंधान और विकास कार्य किए जाते हैं। इसका उद्देश्य उन आक्रामक प्रजातियों को नियंत्रित करना है जो कोरल से स्थान और संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं। इन गतिविधियों से कोरल के लिए एक सुरक्षित और अनुकूल निवास स्थान तैयार होता है।
2. कोरल और उनके आवास की रक्षा: संवेदनशील और जोखिमग्रस्त क्षेत्रों की पहचान कर कोरल रीफ़ को क्षति से बचाने के उपाय किए जाते हैं। आपातकालीन परिस्थितियों में तुरंत प्रतिक्रिया दी जाती है, और दुर्घटनाओं (जैसे जहाज़ों की टक्कर) से हुए नुकसान की भरपाई के उपाय किए जाते हैं। ये सभी प्रयास, कोरल रीफ़ को दीर्घकालिक क्षति से बचाते हैं।
3. कोरल की सहनशीलता और लचीलापन बढ़ाना: कोरल प्रजातियों को जलवायु परिवर्तन और अन्य पर्यावरणीय खतरों के प्रति अधिक सहनशील बनाने के लिए आधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है। कोरल लार्वा की मृत्यु दर को कम करने और पारिस्थितिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में पुनर्स्थापन (restoration) के लिए स्थानीय व अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों की स्थापना की जा रही है।
4. कोरल का स्वास्थ्य और जीवन क्षमता सुधारना: कोरल रोगों को फैलने से रोकने और इन्हें खाने वाले जीवों के प्रभाव को कम करने के लिए नवीन तकनीकों का विकास किया जा रहा है। इन उपायों से कोरल की जीवन दर में वृद्धि होती है और प्रमुख रीफ़ क्षेत्रों में उनका संरक्षण सुनिश्चित होता है।
इन संयुक्त प्रयासों के माध्यम से कोरल रीफ़ को न केवल वर्तमान खतरों से बचाया जा सकता है, बल्कि उन्हें आने वाले समय में और भी अधिक मज़बूत और टिकाऊ बनाया जा सकता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में अंडमान द्वीप समूह में कोरल रीफ का स्रोत : Wikimedia
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