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मेरठवासियों, जब कभी आप अपने दादाजी की पुरानी अलमारी से खादी का एक झब्बा, कुर्ता या धोती निकालते हैं, तो क्या आपने महसूस किया है कि ये केवल कपड़े नहीं हैं, ये हमारी आज़ादी की सुगंध, संघर्ष की गवाही और आत्मनिर्भरता की प्रतिध्वनि हैं? मेरठ की खादी यात्रा एक आंदोलन से लेकर एक उद्योग और फिर एक वैश्विक पहचान तक पहुंची है। इसने स्वराज की कल्पना से लेकर आज के उद्यमशील भारत तक का सफर तय किया है। हर कदम पर सामाजिक चेतना, आर्थिक स्वावलंबन और सांस्कृतिक गौरव को साथ लेकर। आज जब दुनिया पर्यावरण, टिकाऊपन और सांस्कृतिक प्रामाणिकता की बात करती है, तो खादी और मेरठ दोनों का महत्व और भी बढ़ जाता है। ऐसे में हम सभी मेरठवासियों की जिम्मेदारी है कि हम इस धरोहर को केवल पहनें नहीं, बल्कि गर्व और समझ के साथ आगे बढ़ाएं, ताकि अगली पीढ़ी जान सके कि एक सूत की डोरी कैसे पूरे राष्ट्र की आत्मा को जोड़ सकती है। यहां की गलियों में घूमते चरखे, देवनागरी स्कूल की दीवारों पर लगी खादी की प्रदर्शनी, और बाजारों में विदेशी कपड़ों की होली, ये सब एक जनचेतना का प्रतीक बने।
इस लेख में हम जानने की कोशिश करेंगे कि कैसे मेरठ की धरती पर खादी आंदोलन ने ऐतिहासिक रूप से अपनी जड़ें जमाईं और स्वदेशी चेतना को जन्म दिया। हम मेरठवासियों की उस भागीदारी को भी समझेंगे, जिसने समाज में आत्मनिर्भरता की भावना जगाई। इसके साथ ही आज के दौर में खादी उत्पादन का स्थानीय अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव है, इस पर भी विचार होगा। लेख में उत्तर प्रदेश की राष्ट्रीय खादी भागीदारी में मेरठ की भूमिका और अंत में वैश्विक मंच पर खादी की ब्रांडिंग (branding) में इस शहर के योगदान को भी विश्लेषित किया जाएगा।
मेरठ में खादी उद्योग की ऐतिहासिक जड़ें और स्वदेशी आंदोलन से संबंध
स्वदेशी आंदोलन के दौरान खादी केवल एक कपड़ा नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता, विरोध और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बन गया था। मेरठ, जो पहले से ही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का अग्रदूत रहा था, ने खादी आंदोलन में भी अग्रणी भूमिका निभाई। 1922 में जब महात्मा गांधी ने खादी को ‘स्वराज’ का प्रतीक बताया, तो मेरठ की 65% आबादी ने विदेशी वस्त्रों का त्याग कर खादी को अपनाने का साहसिक निर्णय लिया। देवनागरी स्कूल में छात्रों द्वारा लगाई गई खादी प्रदर्शनी ने न केवल स्कूल परिसर, बल्कि पूरे शहर में जागरूकता फैलाई। पार्वती देवी जैसी सामाजिक कार्यकर्ता महिलाओं ने घर-घर जाकर स्त्रियों को चरखा चलाने के लिए प्रेरित किया और उन्हें आत्मनिर्भर बनने की राह दिखाई। यह वह दौर था जब असहयोग आंदोलन के बाद चरखे की गूंज मेरठ की गलियों में रोज़ सुनाई देती थी, एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति की साक्षात प्रतिध्वनि के रूप में।
मेरठ के खादी आंदोलन में जन भागीदारी और सामाजिक प्रभाव
खादी आंदोलन की आत्मा केवल राजनैतिक नारेबाज़ी में नहीं, बल्कि आम जनता की भागीदारी में बसती थी, और मेरठ इसका सजीव उदाहरण था। शहर और इसके आसपास के क्षेत्रों में ‘चरखा क्लब’ जैसी संस्थाओं की स्थापना हुई जहाँ दैनिक कताई की जाती थी और सामूहिक रूप से चरखे चलाए जाते थे। सरधना, गढ़मुक्तेश्वर और अन्य ग्रामीण इलाकों में खादी प्रचार हेतु जागरूकता सभाएं, कताई प्रतियोगिताएं और प्रदर्शनियां आयोजित की जाती थीं। इन कार्यक्रमों में विदेशी वस्त्रों की होली जलाना केवल एक प्रतीकात्मक कार्य नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद के विरुद्ध सांस्कृतिक विद्रोह बन चुका था। खादी को एक कपड़े से बढ़कर "स्वराज", आत्मगौरव और सामाजिक न्याय का माध्यम माना गया। मेरठ के जनमानस ने इसे केवल राजनीतिक आंदोलन के रूप में नहीं, बल्कि जीवनशैली के रूप में स्वीकार किया, जो हर वर्ग, हर उम्र और हर जाति के लिए समान रूप से प्रासंगिक था।
मेरठ में खादी उत्पादन की वर्तमान स्थिति और आर्थिक योगदान
आधुनिक मेरठ में खादी केवल इतिहास नहीं, बल्कि एक जीवंत आर्थिक प्रणाली है। शहर में लगभग 30,000 से अधिक पावरलूम (power loom) और हथकरघा यूनिट्स (handloom units) संचालित हो रहे हैं, जो न केवल खादी, बल्कि विविध वस्त्र उत्पादों का भी निर्माण करते हैं। यह समूह उत्तर भारत के प्रमुख वस्त्र केंद्रों में गिना जाता है और स्थानीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन चुका है। चरखे और करघे आज भी करोड़ों रुपए का उत्पादन करते हैं और हज़ारों परिवारों की आजीविका का साधन हैं। विशेषकर महिलाओं, बुजुर्गों और पारंपरिक कारीगरों के लिए यह उद्योग रोजगार और गरिमा दोनों प्रदान करता है। नई पीढ़ी के डिज़ाइनर (designer) और उद्यमी भी अब खादी को एक समकालीन और पर्यावरण-संवेदनशील वस्त्र के रूप में पुनर्परिभाषित कर रहे हैं, जिससे इसका बाज़ार लगातार विस्तारित हो रहा है।
उत्तर प्रदेश और मेरठ की खादी में राष्ट्रीय स्तर पर भागीदारी
राष्ट्रीय स्तर पर यदि उत्तर प्रदेश खादी के मानचित्र पर अग्रणी है, तो मेरठ उसकी केंद्रीय धुरी है। यूपी का खादी उत्पादन भारत में लगभग 84% तक का योगदान देता है, जिसमें अकेले मेरठ का हिस्सा बेहद महत्त्वपूर्ण है। राज्य के मध्य क्षेत्र में स्थित मेरठ की खादी संस्थाएं लगभग 60% हिस्सेदारी के साथ न केवल उत्पादन, बल्कि प्रशिक्षण, विपणन और नवाचार में भी देशभर में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। यहाँ उत्पादन केंद्रों से लेकर बिक्री केंद्रों तक एक सुव्यवस्थित नेटवर्क (network) है, जो योजनागत विकास का प्रमाण है। इस नेटवर्क में हजारों चरखे और करघे शामिल हैं, जिनका कार्य केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनरुत्थान का भी प्रतीक है। केंद्र और राज्य सरकार की खादी योजनाओं में मेरठ की सहभागिता और नीतिगत सक्रियता इसे एक आदर्श जिले के रूप में प्रस्तुत करती है।
वैश्विक स्तर पर खादी का निर्यात और ब्रांडिंग
अब खादी केवल भारत की धरोहर नहीं, बल्कि एक वैश्विक ब्रांड बन चुकी है, और इसमें मेरठ की भूमिका बेहद प्रभावशाली रही है। पारंपरिक रूप से "गरीबों का कपड़ा" मानी जाने वाली खादी आज "ग्लोबल फेब्रिक" (Global Fabric) की पहचान पा चुकी है। मेरठ की इकाइयाँ अब सूती, ऊनी और रेशमी खादी का निर्यात कर रही हैं, जो यूरोप (Europe), जापान, अमेरिका और खाड़ी देशों के बाज़ारों में जगह बना रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में मेरठ की खादी ने अपनी गुणवत्ता, शुद्धता और डिज़ाइन नवाचार से खूब सराहना पाई है। 'हाथ से बना, दिल से चुना' जैसे ब्रांडिंग अभियानों ने खादी को एक लग्ज़री (luxury) लेकिन नैतिक फैशन (fashion) विकल्प के रूप में स्थापित किया है। यह केवल आर्थिक अवसर नहीं, बल्कि भारत की सॉफ्ट पावर (soft power) को भी सशक्त करने का माध्यम बनता जा रहा है,और मेरठ इसका गर्वित प्रतिनिधि है।
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