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मेरठवासियों, जब भी हम अपनी सांस्कृतिक पहचान और वैचारिक विरासत की बात करते हैं, तो सबसे पहले वे ग्रंथ हमारे मन में आते हैं जिन्होंने भारत की आत्मा को गढ़ा - वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत और योग सूत्र। ये सब जिस भाषा में रचे गए, वह है संस्कृत, एक ऐसी भाषा जो केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि हमारी सोच, भावना और आस्था का स्तंभ रही है। विश्व संस्कृत दिवस, जो हर साल श्रावण पूर्णिमा के दिन (रक्षाबंधन के अवसर पर) मनाया जाता है, हमें इस प्राचीन भाषा की गरिमा, गहराई और योगदान को फिर से याद दिलाता है। यह दिन न केवल संस्कृत प्रेमियों के लिए उत्सव है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी यह समझाने का अवसर है कि हमारी जड़ें कितनी समृद्ध और वैज्ञानिक रही हैं। मेरठ जैसे शहर, जहाँ प्राचीन काल से ही विद्या, अध्यात्म और विद्वता का प्रवाह रहा है, संस्कृत की परंपरा में मौन नहीं, बल्कि गर्व से गूंजते रहे हैं। यहाँ के मंदिरों, विद्यालयों, पांडित्य परंपराओं और गुरुकुलों में आज भी संस्कृत की ध्वनि सुनाई देती है, भले ही धीरे, लेकिन निरंतर। विश्व संस्कृत दिवस के इस विशेष अवसर पर आइए हम मिलकर इस भाषा की ऐतिहासिक यात्रा, साहित्यिक गहराई, धार्मिक महत्व, आधुनिक चुनौतियाँ और उसकी भाषाई छाया को गहराई से समझें, और मेरठ को एक बार फिर से संस्कृत के नवजीवन का केंद्र बनाएं।
इस लेख में हम संस्कृत की उत्पत्ति और वैदिक काल में उसके विकास को समझने का प्रयास करेंगे। आगे चलकर हम संस्कृत साहित्य की भव्यता और धर्म-दर्शन में इसकी भूमिका पर रोशनी डालेंगे। आधुनिक भारत में संस्कृत की स्थिति और उसके सामने आने वाली चुनौतियों पर भी चर्चा की जाएगी। इसके बाद यह देखा जाएगा कि संस्कृत ने अन्य भारतीय भाषाओं को किस प्रकार आकार दिया है।
संस्कृत की उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
संस्कृत भाषा की जड़ें प्रोटो-इंडो-यूरोपीय (Proto-Indo-European) भाषा परिवार में हैं, जिसका उद्गम लगभग 3500–2500 ईसा पूर्व के मध्य एशिया में हुआ माना जाता है। यही वह बिंदु था जहाँ से भाषाओं का प्रसार आरंभ हुआ और आर्य जनों का आगमन भारतीय उपमहाद्वीप में हुआ। गंगा-यमुना दोआब का इलाका, जिसमें मेरठ भी शामिल है, आर्य संस्कृति और भाषा के विकास में विशेष रूप से महत्वपूर्ण रहा है। वैदिक संस्कृत, जो ऋग्वेद जैसी प्राचीन रचनाओं में प्रयुक्त हुई, इस भाषा का प्रारंभिक रूप थी। इसकी व्याकरणिक संरचना और ध्वनि-प्रणाली में अत्यंत परिष्कार था। बाद में पाणिनि जैसे विद्वानों ने इस भाषा को और अधिक सुव्यवस्थित कर शास्त्रीय संस्कृत का रूप दिया। मेरठ, जो प्राचीन काल में विद्या, तप और संवाद का केंद्र रहा है, संभवतः वैदिक अध्ययन और धार्मिक संवाद का एक प्रमुख स्थान रहा होगा। संस्कृत के माध्यम से ही उस काल की ज्ञान परंपरा पीढ़ियों तक चली, और आज भी उसके कुछ अवशेष इस नगर के मंदिरों, पाठशालाओं और परंपराओं में देखे जा सकते हैं।
संस्कृत साहित्य का विकास और योगदान
संस्कृत साहित्य भारतीय ज्ञान की रीढ़ रहा है। चारों वेद - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद - केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि भाषाई और साहित्यिक उत्कृष्टता के प्रतीक हैं। उपनिषदों में आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष जैसे गहन दार्शनिक विषयों को अत्यंत सूक्ष्मता से विश्लेषित किया गया है। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य भारतीय आत्मा की कथाएँ हैं, जिनसे भारतवर्ष का नैतिक और सांस्कृतिक ढांचा निर्मित हुआ। कालिदास, भास, अश्वघोष जैसे महान कवियों और नाटककारों ने न केवल सौंदर्यशास्त्र बल्कि समाज, राजनीति और प्रेम जैसे विषयों पर भी गहराई से लिखा। पुरुषार्थ सिद्धांत - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - को इन ग्रंथों में जीवन का मार्गदर्शक बताया गया है। मेरठ जैसे सांस्कृतिक केंद्रों में इन रचनाओं का पाठ और स्मरण मंदिरों, घरों और त्यौहारों में आज भी होता है। ये काव्य, नाटक और ग्रंथ केवल पढ़ने के लिए नहीं, जीने के लिए लिखे गए थे, यही उनकी कालातीतता है।
संस्कृत का धर्म और दर्शन में महत्व
संस्कृत केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की आध्यात्मिक चेतना की आवाज़ रही है। वेदों के मंत्र, पुराणों की कथाएँ, उपनिषदों के विचार और शास्त्रों की विवेचना, सब संस्कृत में ही रचे गए हैं। यही नहीं, बौद्ध धर्म की महायान शाखा में, और जैन धर्म के अनेक शास्त्रों में भी संस्कृत का प्रयोग किया गया। यहाँ तक कि सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ, ‘गुरु ग्रंथ साहिब’, में भी संस्कृत के श्लोक और पद मिलते हैं। योग, वेदांत, सांख्य और न्याय जैसे दार्शनिक स्कूलों की मूल भाषा भी संस्कृत ही रही है। मेरठ जैसे नगरों में आज भी मंदिरों में गूंजते वैदिक मंत्र, संस्कृत के अमर स्वरूप का प्रमाण हैं। यहां के कुछ गुरुकुलों और आश्रमों में आज भी संस्कृत में अध्ययन और संवाद की परंपरा जीवित है, जो यह दर्शाती है कि यह भाषा केवल अतीत की नहीं, वर्तमान की भी जीवंत अनुभूति है।
संस्कृत का आधुनिक महत्व और संकट
आज भारत में एक विरोधाभासी स्थिति है, जहां संस्कृत को ‘देववाणी’ माना जाता है, वहीं इसे बोलने वालों की संख्या 1% से भी कम रह गई है। उत्तराखंड जैसे कुछ राज्यों ने इसे राजभाषा का दर्जा ज़रूर दिया है, लेकिन वास्तविक व्यवहार में इसकी उपस्थिति बहुत सीमित है। संस्कृत में उपलब्ध लाखों पांडुलिपियाँ आज भी उपेक्षा की स्थिति में हैं। उनका डिजिटलीकरण (digitalization) और संरक्षण धीमी गति से हो रहा है। शिक्षा व्यवस्था में भी संस्कृत को एक वैकल्पिक विषय के रूप में सीमित कर दिया गया है, जबकि इसकी क्षमता विज्ञान, तकनीक, चिकित्सा और खगोलशास्त्र तक फैली हुई है। मेरठ जैसे शहरों में कुछ शास्त्रीय संस्थाएं इस दिशा में काम कर रही हैं, जैसे संस्कृत महाविद्यालय, वेद विद्यालय और मंदिर समितियाँ, लेकिन इन्हें व्यापक सामाजिक समर्थन, तकनीकी संसाधनों और युवा भागीदारी की आवश्यकता है। यदि यह भाषा पुनः जनमानस से जुड़े, तो यह केवल भाषा नहीं, सांस्कृतिक पुनर्जागरण बन जाएगी।
संस्कृत और अन्य भाषाओं पर प्रभाव
संस्कृत की ध्वनियाँ केवल भारत तक सीमित नहीं रहीं। हिंदी, मराठी, बंगाली, तमिल, गुजराती — सभी भारतीय भाषाएं संस्कृत की शब्दावली, व्याकरण और अभिव्यक्ति शैली से प्रभावित रही हैं। संस्कृत शब्दों ने अंग्रेज़ी जैसी भाषाओं में भी प्रवेश किया है, जैसे कर्म (Karma), गुरु (Guru), निर्वाण (Nirvana), अवतार (Avatar)। दक्षिण-पूर्व एशिया की भाषाओं, थाई (Thai), बाली (Bali), खमेर (Khmer) आदि में संस्कृत की गूंज सुनाई देती है, जो इस भाषा के सांस्कृतिक साम्राज्य की सीमा को दर्शाता है। मेरठ जैसे बहुभाषी शहरों में यह प्रभाव रोज़मर्रा की भाषा में भी देखा जा सकता है, धार्मिक विधियों, श्लोकों, स्कूलों की प्रार्थनाओं और यहां तक कि नामकरण तक में। संस्कृत की यह भाषाई शक्ति आज भी अनेक स्तरों पर जीवित है, भले ही हम इसे महसूस न करते हों।
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