नालंदा से निकली रौशनी: जब भारत ने किताबों से दुनिया को किया रोशन

छोटे राज्य 300 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक
18-08-2025 09:29 AM
नालंदा से निकली रौशनी: जब भारत ने किताबों से दुनिया को किया रोशन

भारत की भूमि पर जब भी ज्ञान और विचार की बात होती है, नालंदा विश्वविद्यालय का नाम सबसे पहले उभरता है, वह प्राचीन बौद्ध शिक्षा केंद्र जहाँ एशिया भर से छात्र ज्ञान की खोज में आया करते थे। नालंदा केवल एक ईंटों की संरचना नहीं था, बल्कि एक ऐसी बौद्धिक परंपरा का प्रतीक था जहाँ दर्शन, गणित, चिकित्सा, खगोलशास्त्र और व्याकरण पर गहन विमर्श होता था। यह वह युग था जब भारत ‘विचारों का निर्यातक’ था, जहाँ ग्रंथों को केवल संग्रहित नहीं किया जाता था, उन्हें जिया जाता था। आज जब हम रामपुर जैसे नगर को देखते हैं - जो उत्तर भारत की सांस्कृतिक और शैक्षिक पहचान में अपना विशिष्ट स्थान रखता है - तो वहाँ की रज़ा लाइब्रेरी एक नई पीढ़ी के लिए उस प्राचीन परंपरा की स्मृति बन जाती है। भले ही रज़ा लाइब्रेरी नालंदा की तरह बौद्ध विश्वविद्यालय न रही हो, लेकिन वहाँ रखे गए दुर्लभ ग्रंथ, पांडुलिपियाँ, फारसी-उर्दू-अरबी साहित्य और तवारीखें उसी भारत की गवाही देती हैं, जहाँ किताबें केवल ज्ञान का माध्यम नहीं थीं - वे विचारों के पुल हुआ करती थीं। नालंदा में जहाँ बौद्ध भिक्षु शास्त्रार्थ करते थे, वहीं रामपुर में सूफियों, विद्वानों और शायरों ने ज्ञान को ज़बान दी - चाहे वह संस्कृत हो, फारसी, अरबी या उर्दू। दोनों स्थान हमें यह याद दिलाते हैं कि भारत की असली ताकत उसकी विविध परंपराओं में नहीं, बल्कि उन परंपराओं के बीच संवाद की क्षमता में है। रामपुर में रज़ा लाइब्रेरी की शांत दीवारों के पीछे भी एक नालंदा छुपा है, जहाँ किताबें सिर्फ़ पढ़ी नहीं जातीं, महसूस की जाती हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था कितनी संगठित थी। फिर, हम देखेंगे कि नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों का निर्माण किन शासकों ने किया और क्यों किया गया। इसके बाद हम गुप्त युग की धार्मिक सहिष्णुता और शिक्षा नीति की बात करेंगे। अंत में, हम समझेंगे कि विज्ञान और खगोलशास्त्र में इस युग ने कैसे ऐतिहासिक योगदान दिए।

गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था और सांस्कृतिक दृष्टि
गुप्त सम्राटों ने भारत के इतिहास में वह अध्याय रचा, जहाँ राज्य की स्थिरता केवल तलवार से नहीं, बल्कि विचारशील प्रशासनिक नीतियों से बनी। उन्होंने धर्मशास्त्रों - विशेषतः मनु, याज्ञवल्क्य और नारद - के सिद्धांतों को व्यवहार में उतारते हुए एक ऐसा विकेन्द्रीकृत प्रशासनिक ढांचा तैयार किया, जो राज्य के हर कोने तक पहुँचता था। यह ढांचा न तो केवल शासक के नियंत्रण पर टिका था, न ही केवल दंड नीति पर - बल्कि सामाजिक भागीदारी और दार्शनिक सोच इसकी नींव में थी। प्रांतों और नगरों को स्थानीय स्वायत्तता दी गई, लेकिन पूरे साम्राज्य की एकता बनाए रखने के लिए केंद्रीय और प्रांतीय सत्ता के बीच संतुलन स्थापित किया गया। शासकीय जिम्मेदारियाँ स्पष्ट रूप से विभाजित थीं, जिससे न केवल प्रशासनिक गति बनी रही, बल्कि प्रजा का विश्वास भी राज्य में मजबूत हुआ। इस ढाँचे में व्यापारियों, कारीगरों, नगरवासियों और यहां तक कि शिक्षकों की भी भूमिका थी - यही कारण है कि नालंदा जैसे नगर और विश्वविद्यालय केवल राजनीतिक अनुदान पर नहीं, बल्कि स्थानीय भागीदारी पर भी निर्भर थे। इस प्रशासनिक व्यवस्था में सांस्कृतिक सोच भी समाहित थी, जहाँ राज्य के नीति-निर्माण में शिक्षा, साहित्य और धर्म के योगदान को एक दिशा दी गई। शासन केवल सत्ता नहीं, संस्कृति का वाहक भी बना।

गुप्त वंश के प्रमुख शासक और नालंदा का निर्माण
गुप्त वंश के उत्थान की कहानी केवल सामरिक विजय की नहीं, बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रनिर्माण की भी है। चंद्रगुप्त प्रथम ने इस वंश की नींव रखी, और समुद्रगुप्त ने अपनी विशाल विजयों से उसे अखिल भारतीय पहचान दिलाई। उनके विजयों के दायरे में केवल भूगोल नहीं, बल्कि विचार और प्रतिष्ठा भी शामिल थी। किंतु जब हम नालंदा विश्वविद्यालय की बात करते हैं, तो सबसे पहले नाम आता है कुमारगुप्त प्रथम का - जिन्होंने इस ज्ञान केंद्र की स्थापना की और इसे एक व्यवस्थित संस्था का स्वरूप दिया। नालंदा का निर्माण मात्र एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं था, यह भारत को बौद्धिक नेतृत्व देने की एक दूरदर्शी राष्ट्रनीति थी। यह योजना दर्शाती है कि गुप्त शासक भारत को विचार और शिक्षा की दृष्टि से भी केंद्र में लाना चाहते थे। इसके बाद नरसिंहगुप्त बालादित्य ने इसके विस्तार में योगदान दिया, उन्होंने एक विशाल संघराम, भव्य विहार और पुस्तकालयों का निर्माण कराया।

धार्मिक सहिष्णुता और शिक्षा का विस्तार
गुप्त शासक अपने धर्म - वैदिक परंपरा - के प्रति समर्पित थे, लेकिन उनकी नीति में धार्मिक कट्टरता का स्थान नहीं था। उन्होंने धर्म को निजी आस्था तक सीमित रखते हुए राज्य को बहुधार्मिक और बहुशिक्षात्मक दृष्टिकोण से संचालित किया। यही कारण है कि उन्होंने बौद्धों और जैनों को भी खुलकर संरक्षण दिया, और शिक्षा को किसी एक धर्म की परिधि में नहीं बाँधा। नालंदा महायान बौद्ध परंपरा के अंतर्गत शुरू हुआ, लेकिन वहाँ के पाठ्यक्रम में केवल बौद्ध दर्शन नहीं था - वहाँ व्याकरण, तर्कशास्त्र, आयुर्वेद, गणित, खगोलशास्त्र, संगीत और चित्रकला तक का अध्ययन होता था। इसने नालंदा को एक ऐसा मंच बनाया जहाँ अलग-अलग परंपराओं के छात्र और विद्वान साथ बैठकर विचार-विनिमय कर सकते थे। यहाँ विद्वानों को विचारों की टकराहट से डराया नहीं गया, बल्कि उन्हें संवाद के लिए प्रोत्साहित किया गया। यह सहिष्णुता केवल धार्मिक नहीं थी, बल्कि बौद्धिक भी थी। इस दृष्टिकोण ने नालंदा को सिर्फ़ धार्मिक संस्था नहीं, बल्कि एक अंतरसंवादात्मक विश्वविद्यालय में बदल दिया - जहाँ विविध दृष्टिकोणों को समझने और स्वीकारने की परंपरा थी। यही समावेशिता उसे कालजयी बनाती है।

सिक्कों और शिलालेखों के माध्यम से गुप्त युग की समृद्धि
गुप्त काल की अर्थव्यवस्था जितनी सशक्त थी, उतनी ही उसकी सांस्कृतिक परछाईं उनके सिक्कों और अभिलेखों में भी दिखाई देती है। उनके स्वर्ण दीनार - जो आज भी संग्रहालयों की शान हैं - पर अंकित चित्र और प्रतीक केवल मुद्रा नहीं, संस्कृति के वाहक थे। मुद्रा पर बने अश्वमेध यज्ञ के दृश्य, गरुड़ ध्वज, और संस्कृत की शुद्ध लिपि में लिखी गई पंक्तियाँ इस बात की साक्षी हैं कि शासक केवल धन नहीं, बल्कि विचार और परंपरा भी प्रसारित करना चाहते थे। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति जैसे शिलालेख हमें उनके केवल युद्धों की जानकारी नहीं देते, बल्कि उस काल के शासकीय आदर्श, सांस्कृतिक सौंदर्यबोध और नीति को भी उजागर करते हैं। यह प्रशस्तियाँ केवल आत्मप्रशंसा नहीं, बल्कि ऐतिहासिक दस्तावेज़ हैं जो उस युग के दृष्टिकोण, भाषा और भावनात्मक दृष्टिकोण को भी सामने लाती हैं।

विज्ञान, गणित और खगोलशास्त्र में अग्रणी योगदान
गुप्त युग की सबसे बड़ी देन उसकी बौद्धिक चेतना थी। यह युग भावनाओं या धार्मिक कृत्यों तक सीमित नहीं था, यह तर्क, गणना और खोज की भूमि था। इसी युग में आर्यभट्ट ने पृथ्वी की गोलाई, पाई का मान, और खगोलीय घटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या दी। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि ग्रहण कोई दैवी प्रकोप नहीं, बल्कि खगोलीय स्थिति का परिणाम है। यह वैज्ञानिक सोच उस युग की बौद्धिक स्वतंत्रता को दर्शाती है। वराहमिहिर ने पंचसिद्धांतिका जैसे ग्रंथों से खगोल और मौसम विज्ञान को दिशा दी, और हस्तायुर्वेद जैसे ग्रंथों से चिकित्सा को भी एक वैज्ञानिक रूप दिया। ये ग्रंथ केवल शास्त्र नहीं, प्रयोग और अनुभव के आधार पर लिखे गए थे। इन सभी विषयों का अध्ययन नालंदा में होता था, यही कारण है कि यह विश्वविद्यालय केवल धार्मिक केंद्र नहीं, बल्कि बौद्धिक प्रयोगशाला भी था।

संदर्भ-

https://short-link.me/1a4s4 
https://short-link.me/1a4sa 

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