जौनपुर क्या आप जानते हैं कोरियाई परंपराओं में कैसे बसी हैं भारतीय धर्मों की छाप?

विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
28-06-2025 09:21 AM
जौनपुर क्या आप जानते हैं कोरियाई परंपराओं में कैसे बसी हैं भारतीय धर्मों की छाप?

प्राचीन काल से ही भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता ने एशिया के अनेक देशों पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है। इन्हीं में एक महत्वपूर्ण देश है कोरिया, जहाँ भारत का सांस्कृतिक प्रभाव अत्यंत सजीव और स्थायी रूप में दिखाई देता है। विशेषकर बौद्ध धर्म के माध्यम से भारत के धार्मिक और दार्शनिक विचार कोरियाई भूमि तक पहुँचे, और वहाँ की सांस्कृतिक चेतना में रच-बस गए। कोरिया ने न केवल भारतीय धर्म और दर्शन को आत्मसात किया, बल्कि कला, साहित्य, भाषा, और जीवन मूल्यों को भी अपनी परंपराओं में समाहित किया। कोरियाई समाज की धार्मिक प्रथाओं, भाषाई संरचना और लोक परंपराओं में आज भी भारतीय सांस्कृतिक विरासत की स्पष्ट झलक देखी जा सकती है।

इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि भारतीय संस्कृति ने कोरियाई इतिहास को किस प्रकार प्रभावित किया, और यह प्रभाव कैसे समय के साथ स्थायित्व और गहराई प्राप्त करता गया। हम यह भी देखेंगे कि कोरियाई भाषा विकास, धार्मिक संस्थाओं, और लोक परंपराओं में भारतीय उपस्थिति किन रूपों में आज भी विद्यमान है — एक ऐसे सांस्कृतिक सेतु के रूप में, जिसने दो महान सभ्यताओं को आत्मिक रूप से जोड़ रखा है।

चित्र में बोधिसत्व मैत्रेय का चित्रण है।

भारतीय धर्म और संस्कृति का कोरिया में प्रवेश: बौद्ध धर्म की भूमिका

भारतीय धर्म और संस्कृति का कोरिया में प्रवेश बौद्ध धर्म के माध्यम से हुआ, जिसने दोनों सभ्यताओं को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक सूत्र में बांध दिया। बौद्ध धर्म की यह यात्रा मूलतः भारत से आरंभ हुई और चीन के रास्ते कोरिया तक पहुँची — एक ऐसी यात्रा जो न केवल धार्मिक आस्था, बल्कि ज्ञान, दर्शन, साहित्य और चिकित्सा जैसे विविध क्षेत्रों की रोशनी लेकर आई। लगभग 65 ईस्वी में जब बौद्ध धर्म चीन पहुँचा, तो वह एक नई चेतना का वाहक बन गया, जिसने पूर्वी एशिया के अन्य भागों — विशेषकर कोरिया और जापान — में अपनी गूंज छोड़ी। 374 ईस्वी में भारत से एक बौद्ध भिक्षु कोरिया पहुँचे और वहाँ बौद्ध धर्म की नींव रखी। यह केवल आध्यात्मिक शिक्षा का प्रचार नहीं था, बल्कि भारतीय संस्कृति, कला, विज्ञान और दर्शन का कोरियाई समाज में गहन प्रवेश था।

673 ईस्वी में कोरियाई विद्वान आइ चेंग (I Ching) नालंदा विश्वविद्यालय पहुँचे, जहाँ उन्होंने लगभग एक दशक तक अध्ययन किया। वे वहाँ से संस्कृत ग्रंथों का विशाल संग्रह लेकर लौटे, जिससे कोरियाई धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं को एक नई दिशा मिली। उनका यह अभियान भारत-कोरिया सांस्कृतिक संबंधों का अमिट प्रतीक बन गया। इस संपर्क का प्रभाव कोरियाई समाज में कई स्तरों पर देखा गया — धार्मिक रीति-नीति से लेकर शिक्षा प्रणाली, मंदिर स्थापत्य, ध्यान परंपराएं और दर्शन शास्त्र तक। कोरियाई बौद्ध भिक्षुओं ने भारतीय ग्रंथों और पद्धतियों का गहन अध्ययन कर अपने स्थानीय धर्म साहित्य को समृद्ध किया। इस तरह, भारतीय तत्त्वमीमांसा और बौद्ध चिंतन कोरिया की सांस्कृतिक चेतना में गहराई से समाहित हो गया।

कोरियाई भाषा और लिपि का विकास: हांगुल की उत्पत्ति और संस्कृत से प्रेरणा

कोरिया में बौद्ध धर्म के प्रचार के समय सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी—स्थानीय भाषा में इसकी अभिव्यक्ति। उस काल में कोरिया के पास अपनी कोई मानकीकृत राष्ट्रीय लिपि नहीं थी, जिससे पाली और संस्कृत में लिखे बौद्ध ग्रंथों को पढ़ना और समझना सामान्य जनता के लिए लगभग असंभव था। यह बौद्ध धर्म के प्रसार की राह में एक बड़ा भाषाई अवरोध था।

लेकिन 1446 ईस्वी में कोरियाई इतिहास में एक क्रांतिकारी मोड़ आया, जब यी वंश के महान सम्राट सेजोंग ने हांगुल लिपि का निर्माण करवाया। यह लिपि न केवल कोरियाई भाषा को उसकी खुद की एक विशिष्ट पहचान देने वाला कदम था, बल्कि यह कोरियाई समाज को ज्ञान, धर्म और शिक्षा के एक नए युग में ले जाने वाला माध्यम भी बना।

हांगुल की रचना को केवल तकनीकी उपलब्धि नहीं, बल्कि सांस्कृतिक जागरण की चिंगारी माना जाता है। विद्वानों के बीच इस बात पर व्यापक सहमति है कि हांगुल के निर्माण में संस्कृत वर्णमाला से प्रेरणा ली गई थी। माना जाता है कि इसके मूल 28 अक्षरों की संरचना और ध्वनि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भारतीय व्याकरण और ध्वनिविज्ञान के सिद्धांतों से प्रेरित थी। यह इस बात का संकेत है कि उस समय कोरिया में भारतीय भाषा-विज्ञान का अध्ययन गंभीर रूप से हो रहा था।

हांगुल लिपि के आगमन के साथ ही बौद्ध धर्मग्रंथों का कोरियाई भाषा में अनुवाद संभव हो सका। इससे बौद्ध विचार, जो अब तक केवल विद्वानों और भिक्षुओं तक सीमित थे, समाज के आम नागरिकों तक भी पहुँचने लगे। यही नहीं, इस लिपि ने कोरियाई साहित्य, शिक्षा और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को भी नई ऊर्जा दी।

हांगुल ने कोरियाई समाज में ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त किया, और इस प्रक्रिया में भारतीय बौद्ध दर्शन को एक सशक्त माध्यम मिला। इस प्रकार, एक भारतीय भाषाई परंपरा से प्रेरित कोरियाई लिपि ने न केवल सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता को जन्म दिया, बल्कि भारत और कोरिया के बीच आध्यात्मिक और भाषाई संबंधों को भी और गहरा किया।

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इस तस्वीर में हैडोंग योंगगुंगसा मंदिर दिख रहा है, जो दक्षिण कोरिया के बुसान शहर में समुद्र किनारे बना एक अनोखा बौद्ध मंदिर है।

डायजांग-ग्युंग हस्तलिपि और कोरियाई साहित्य में भारतीय बौद्ध प्रभाव

कोर्यो वंश के दौरान कोरियाई साहित्य और संस्कृति में एक ऐतिहासिक उपलब्धि सामने आई—डायजांग-ग्युंग (Daejang-gyung) की रचना। यह हस्तलिपि कोरिया के बौद्ध धर्म के इतिहास में न केवल एक धार्मिक ग्रंथ संग्रह थी, बल्कि एक सांस्कृतिक धरोहर भी थी, जिसने भारत के गहरे बौद्ध दर्शन और ज्ञान को संरक्षित कर आगे की पीढ़ियों तक पहुँचाया। डायजांग-ग्युंग मूल रूप से संस्कृत में लिखे गए बौद्ध धर्मग्रंथों का संग्रह था, जिसे बाद में चीनी और मंगोलियाई भाषाओं में भी अनूदित किया गया। यह महज़ अनुवाद का कार्य नहीं था, बल्कि भारतीय दार्शनिक परंपराओं को कोरियाई बौद्ध चेतना में आत्मसात करने का एक सशक्त प्रयास भी था। इस ग्रंथ संग्रह ने बौद्ध धर्म की गूढ़ शिक्षाओं को कोरियाई जनता के लिए सुलभ बनाया और भारतीय विचारों को एक स्थानीय अभिव्यक्ति दी।

डायजांग-ग्युंग का प्रभाव केवल धार्मिक ग्रंथों तक सीमित नहीं रहा। कोरियाई कविता, नाटक और साहित्यिक परंपरा में भी भारतीय तत्वमीमांसा, ध्यान, और करुणा आधारित धर्मदृष्टि की स्पष्ट छाया देखने को मिलती है। बौद्ध कथाएँ और भारतीय उपदेशों ने कोरियाई साहित्य को नई दिशा और गहराई प्रदान की। यह भी उल्लेखनीय है कि भारत की धार्मिक कथाएँ, लोककथाएँ और दार्शनिक उपनिषद-सदृश तत्व कोरिया में लोकप्रिय हुए। कोरियाई साहित्यकारों ने भारतीय विचारधारा को केवल ग्रहण नहीं किया, बल्कि उसे अपनी सांस्कृतिक संवेदनाओं के अनुरूप ढालकर एक नयी रचनात्मकता को जन्म दिया।

इस साहित्यिक और दार्शनिक संवाद ने कोरियाई संस्कृति को केवल समृद्ध ही नहीं किया, बल्कि उसे आध्यात्मिक और बौद्धिक गहराई से भी भर दिया। डायजांग-ग्युंग जैसी कृतियाँ आज भी इस बात की साक्षी हैं कि भारत और कोरिया का रिश्ता केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि विचारों और आत्मा का भी रहा है।

कोरिया में भारतीय संस्कृति: लोकगीत, कला, और वास्तुकला पर प्रभाव

भारतीय संस्कृति का प्रभाव कोरियाई लोकजीवन, कला, संगीत और वास्तुकला में गहराई से समाया हुआ है। यह प्रभाव केवल धार्मिक सीमाओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने कोरियाई समाज की आत्मा को छुआ और उसकी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को नए आयाम दिए।

कोरियाई लोकगीतों और पारंपरिक संगीत में भारतीय संगीतशास्त्र की लय, ताल, और रागात्मकता की स्पष्ट छाया देखी जा सकती है। भारत की प्राचीन संगीत परंपरा, जिसमें स्वरों की सूक्ष्मता और ताल की वैज्ञानिकता निहित है, ने कोरियाई ध्वनि-शिल्प को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया। यह सांगीतिक संवाद दोनों सभ्यताओं के बीच एक आत्मीय पुल जैसा बन गया, जहाँ भावनाओं की भाषा ने भौगोलिक सीमाएं पार कीं। कला के क्षेत्र में कोरियाई बौद्ध चित्रकला और मूर्तिकला में भारतीय शैली की स्पष्ट झलक मिलती है। भारतीय मूर्तिकला की कोमलता, भाव-प्रधान मुद्रा, और धार्मिक प्रतीकों की अभिव्यक्ति कोरियाई मंदिरों में भी उतनी ही निष्ठा से दोहराई गई। विशेषकर बोधिसत्व और ध्यानस्थ बुद्ध की मूर्तियों में गुप्तकालीन भारतीय शिल्प का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

स्थापत्य की बात करें तो, कोरियाई मंदिरों और स्तूपों में भारतीय मंडल, धर्मचक्र, और कल्पवृक्ष जैसे प्रतीकों का समावेश हुआ। कोरियाई शाही महलों और धार्मिक स्थलों की दीवारों और आंगनों में भारतीय कला की प्राकृतिक और आध्यात्मिक सौंदर्य दृष्टि सजीव हो उठती है। 

कोरियाई लोककथाओं में अयोध्या का उल्लेख भारत और कोरिया के प्राचीन सांस्कृतिक संबंधों का एक अनूठा प्रमाण है। कोरियाई ग्रंथ सैमगुक युसा के अनुसार, अयोध्या की राजकुमारी सुरीरत्ना (हिओ ह्वांग-ओक) ने कोरिया के राजा किम सुरो से विवाह किया और करक वंश की रानी बनीं।

यह कथा ऐतिहासिक और पौराणिक दोनों रूपों में देखी जाती है, लेकिन कोरिया में इसे सांस्कृतिक गौरव के रूप में अपनाया गया है। आज भी कई कोरियाई अपने पूर्वजों को अयोध्या से जोड़ते हैं और भारत से एक आत्मीय संबंध महसूस करते हैं। इस कथा के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि भारत और कोरिया के बीच प्राचीनकाल से न केवल व्यापारिक बल्कि पारिवारिक और सांस्कृतिक संबंध भी रहे हैं। 

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