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हमारा लखनऊ शहर किसी भी सुपर ज्वालामुखी से, दरअसल दूर है। हालांकि, इनके पिछले विस्फ़ोटों के कारण हुए जलवायु परिवर्तन ने, विश्व स्तर पर मौसम पैटर्न को प्रभावित किया है। यह कहते हुए जान लें कि, टोबा सुपर ज्वालामुखी (Toba supervolcano) विस्फ़ोट लगभग 74,000 साल पहले हुआ था। यह अब इंडोनेशिया (Indonesia) में टोबा झील है। इसे, वर्तमान युग में सबसे शक्तिशाली और सबसे बड़ा ज्ञात ज्वालामुखी विस्फ़ोट माना जाता है, जिसका ज्वालामुखी विस्फ़ोटक सूचकांक (Volcanic Explosivity Index), 8 था। तो आज देखें कि, सुपर ज्वालामुखी क्या है, और यह नियमित ज्वालामुखियों से कैसे अलग है। फिर, हम सुपर ज्वालामुखी को परिभाषित करने वाली, कुछ प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालेंगे। उसके बाद, हमें पता चलेगा कि, ज्वालामुखी विस्फ़ोट कैसे मापा जाता है, और उनकी विस्फ़ोटक शक्ति में कौन से कारक योगदान देते हैं। इसके अलावा, हम इस बारे में बात करेंगे कि, ज्वालामुखी गतिविधि ने पृथ्वी पर डायनासौर के प्रभुत्व में महत्वपूर्ण भूमिका कैसे निभाई है। अंत में, हम मानव इतिहास में सबसे बड़े ज्वालामुखी विस्फ़ोट के प्रभाव का पता लगाएंगे।
सुपर ज्वालामुखी क्या है?
सुपर ज्वालामुखी ऐसी ज्वालामुखी है, जो 1,000 घन किलोमीटर (240 घन मील) से अधिक उत्सर्ग मात्रा के साथ, विस्फ़ोट करने में सक्षम होती है। यह सामान्य ज्वालामुखी विस्फ़ोटों की तुलना में हज़ारों गुना बड़ा होता है। संयुक्त या कोम्पोज़िट ज्वालामुखियों (Composite volcanoes) के विपरीत, जिनकी ढलानें खड़ी होती है, सुपर ज्वालामुखी, आम तौर पर ज़मीन में विशाल गड्ढा है। इन गड्ढों को कैल्डेरा (Caldera) कहा जाता है, और ये इतने बड़े हैं कि, उन्हें अंतरिक्ष से भी देखा जा सकता है। उनकी पहचान इंडोनेशिया, न्यूज़ीलैंड (New Zealand), दक्षिण अमेरिका (South America) और यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) में ग्लेन कोए (Glen Coe) में की गई है।
किसी सुपर ज्वालामुखी के लक्षण:
ये पहाड़ नहीं हैं, बल्कि, पृथ्वी की पर्पटी के भीतर गड्ढे हैं। वे पृथ्वी की पर्पटी में, एक बड़े छिद्र या वेंट (Vent) के माध्यम से उठने वाले मैग्मा (Magma) के स्तंभ के साथ शुरू होते हैं। इस छिद्र में मैग्मा अटक जाता है और हज़ारों वर्षों तक, आस–पास की चट्टानों को पिघला देता है। इन वर्षों में, यहां दबाव बढ़ता है। जब अंततः विस्फ़ोट होता है, तो यह मैग्मा भंडार या स्तंभ और उसके ऊपर की भूमि को नीचे गिरा देता है, जिससे एक कैल्डेरा बन जाता है।
ज्वालामुखीय विस्फ़ोट कैसे मापा जाता है ?
‘कोई विस्फ़ोट कितना प्रभावी है’, इसे ‘ज्वालामुखी विस्फ़ोटक सूचकांक’ के रूप में जाना जाता है। ज्वालामुखी विस्फ़ोटक सूचकांक, शून्य (0) से आठ (8) तक गैर-विस्फ़ोटक से लेकर, भारी विस्फ़ोट तक होता है। शून्य स्तर पर, अपेक्षाकृत धीमा, हालांकि फिर भी घातक, हवाईयन विस्फ़ोट (Hawaiian eruption) शामिल है। इन विस्फ़ोटों के परिणामस्वरूप, अक्सर 1,100 डिग्री सेल्सियस तापमान के लावा फ़व्वारे निकलते हैं, जो 100 मीटर प्रति सेकंड की गति तक पहुंच सकते हैं। वे कुछ सौ मीटर की ऊंचाइयों तक बढ़ सकते हैं, और आस–पास के परिदृश्य पर फैलने वाले तीव्र लावा प्रवाह का निर्माण करते हैं। यह लावा प्रवाह, अपने रास्ते में मौजूद सभी चीज़ें नष्ट कर देता है। एक तरफ़, इस प्रक्रिया में इस लावा से नई भूमि भी बनती है।
फिर इस सूचकांक पर, स्ट्रोम्बोलियन विस्फ़ोट (Strombolian eruptions) आता हैं। ये विस्फ़ोट, कम अवधि में घटित होते हैं और आग के फ़व्वारे उत्पन्न करते हैं। ये फ़व्वारे, सैकड़ों मीटर की ऊंचाई तक पहुंचते हैं, तथा राख, ज्वालामुखी बम और बैलिस्टिक ब्लॉकों(Ballistic blocks) को बाहर फ़ेंकते हैं।
सूचकांक क्रमांक आठ पर, भारी विस्फ़ोटक – प्लिनियन विस्फ़ोट (Plinian eruptions) होते हैं, जो उनके विस्फ़ोटक द्रव्यमान के लिए जाने जाते हैं। मैग्मा और ज्वालामुखी गैसों के साथ, यह द्रव्यमान, वायुमंडल में 55 किलोमीटर की ऊंचाई तक यात्रा कर सकता है।
पृथ्वी पर ज्वालामुखी विस्फ़ोटों ने, डायनासौरों के जीवन को कैसे आसान बनाया?
लगभग 250 मिलियन वर्षों पहले शुरू हुई – ट्राइसिक काल (Triassic Period) के दौरान, ‘व्यापक विलुप्ति (Mass extinction)’ के बाद सबसे बड़े पारिस्थितिक परिवर्तन का समय था। जबकि डायनासौर इस समय अवधि में ही उभरे थे, तब वे अलग थे। तब वे पतले थे, तथा सरीसृपों जैसे दिखते थे। लेकिन इस समय अवधि के दौरान ही, इनका व्यापक विकास हुआ। इस दौरान, वे टाइरानोसौरस रेक्स (Tyrannosaurus rex) या ट्राइसेराटॉप्स (Triceratops) जैसे विशाल जानवर बन गए, जो पूरे पृथ्वी पर मौजूद पारिस्थितिक तंत्रों पर प्रभुत्व में थे।
वैज्ञानिकों के अनुसार, ट्राइसिक अवधि के दौरान, 2 मिलियन वर्षों तक, कार्नियन प्लुवियल चरण (Carnian Pluvial Episode) चला, जब डायनासौरों का विकास हुआ। उस समय चरण के दौरान, 234 मिलियन से 232 मिलियन साल पहले, पृथ्वी ने वैश्विक तापमान, आर्द्रता और वर्षा में वृद्धि का अनुभव किया था। शोधकर्ताओं ने उत्तरी चीन (China) में स्थित एक झील से, तलछट और पौधों के जीवाश्म साक्ष्य का विश्लेषण किया है, और कार्नियन प्लुवियल चरण के परिवर्तनों के साथ, चार तीव्र ज्वालामुखी गतिविधियों का संबंध पाया है।
एक नवीनतम अध्ययन, पारा या मर्क्यूरी (Mercury) की मौजूदगी के चार अलग-अलग चरणों के साथ, इस काल के समय को जोड़ता है। पारा, ज्वालामुखी गतिविधि का एक अच्छी तरह से स्थापित संकेतक है। इससे कार्बन चक्र बदलाव के साथ-साथ वर्षा में भी बदलाव हुए थे, जिसके कारण भूमि पर और झील में स्थानीय वनस्पति परिवर्तन हुए।
मानव इतिहास में सबसे बड़े ज्वालामुखी विस्फ़ोट ने दुनिया को कैसे बदल दिया है ?
ज्वालामुखी द्वारा उत्सर्जित सामग्री से प्रकाश, वर्षा और तापमान में काफ़ी कमी होती है। एक ज्वालामुखी विस्फ़ोट से उत्सर्जित सल्फेट्स (Sulphates), उस विस्फ़ोट के बाद 6 साल तक ग्रीनलैंड (Greenland) में एक बर्फ़ छादन पर पाए गए हैं। अनुमान है कि, इस कारण पृथ्वी का कुल तापमान, एक दशक में 10 डिग्री सेल्सियस से कम हो सकता है। इस प्रकार बनी ठंडी जलवायु के कारण, वैश्विक पारिस्थितिक तंत्रों पर उस समय भी गंभीर तनाव पड़ा होगा। तब पृथ्वी पर मौजूद अधिकांश वनस्पतियों की मृत्यु हो गई होगी। फिर, अधिक सूर्य की रोशनी, ज़मीन को गर्म करने के बजाय परिलक्षित होगी, और इससे हमारा ग्रह ठंडा हो गया होगा।
हालांकि, विस्फ़ोट के बाद, 1000 वर्षों तक शीतलन का सबूत मौजूद है, हमें यह पता नहीं है कि, क्या यह शीतलन केवल विस्फ़ोट के कारण ही हुआ था। हो सकता है कि, पृथ्वी वैसे भी एक शीतलन घटना ( स्टेडियल (Stadial) या ग्लेशियल(Glacial)) के कगार पर थी। अतः हो सकता है कि, इस विस्फ़ोट के कारण हुए शीतलन ने, पृथ्वी को एक हिमनद अवधि में बढ़ने में मदद की। सूर्य का अधिक से अधिक प्रकाश ज़मीन को गर्म करने के बजाय, परिलक्षित हुआ, और इसी कारण हमारा ग्रह ठंडा होता गया। अगर टोबा या इसके समान कोई अन्य ज्वालामुखी अब फूटता है, तो आने वाली अल्पावधि (1-10 वर्ष) में समान परिणाम होंगे। परंतु, अब पृथ्वी किसी ग्लेशियल काल में नहीं जाएगी।
धन्यवाद!
संदर्भ
मुख्य चित्र में ज्वालामुखी विस्फोट का स्रोत : Wikimedia
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