समय - सीमा 261
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                                            सन 1850 के आस-पास लखनऊ उर्दू भाषा प्रकाशन के अव्वल स्थानों में से एक था। लखनऊ का नवल किशोर प्रेस एंड बुक डिपो, एशिया का सबसे पुराना मुद्रण और प्रकाशन व्यवसाय माना जाता है। इस छापखाने से तक़रीबन 5000 से भी अधिक किताबें मुद्रित और प्रकाशित की गयी हैं। पुर्तगाल के इसाई धर्म-प्रचारक भारत में पहली बार मुद्रण-कला और यन्त्र लाये थे क्यूंकि उन्हें अपने धर्म-प्रचार के लिए बाइबल की छपाई करने की जरुरत थी। इसी के साथ वे बहुत सी शिक्षा की क़िताबें भी छापते थे। गोवा में सन 1556 में पहली बार मुद्रण यंत्र की स्थापना हुई जिसके बाद भारत के तटीय शहरों (जहाँ पर व्यापार आदि बड़े पैमाने पर होता था तथा इन शहरों में विदेशी लोग व्यापार आदि की वजह से बड़ी संख्या में थे) में मुद्रणकला में उन्नति हुई और बहुत से मुद्रणालय उभर के आये। इस काल में 15-16वीं शती से लेकर 19-20वीं शती तक भारत में मुद्रण कला में बहुत से उतार चढ़ाव आये और इस क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई। इनमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य था भारतीय भषाओं में मुद्रण की शुरुआत।
धर्म प्रचारकों को यह बात समझ आ गयी थी कि धर्म प्रचार के लिए उन्हें भारतीय भाषाओं में संवाद करना बहुत ही महत्वपूर्ण था, उस समय उन्होंने स्थानीय भाषा में व्याकरण, भाषा, शास्त्र आदि की बहुत सी क़िताबें छपवाई तथा अखबार एवं पत्रिकाएं भी छपवाना शुरू किया। विलियम कैर्री, पंचानन करमाकर, नोबिली, विनस्लो झाईगेनबल्ग आदि ने भारत की विभिन्न भाषाओँ में धार्मिक, शास्त्रीय साहित्य तथा रोजाना की जानकारी और प्रचार प्रसार के लिए अखबार तथा मासिक, साप्ताहिक निकाले। रेवेरंड (Reverend) झाईगेनबल्ग जो एक डेनिश धर्म-प्रचारक थे ऐसे पहले इंसान थे जिन्होंने तमिल दिनदर्शिका, जर्मन भजनों को तमिल में प्रस्तुत किया तथा उन्होंने ही पहली बार तमिल भाषा में धर्मोपदेश दिया और तमिल कहानियों को जर्मन भाषा में अनुवादित किया। सेरामपोर मिशन मुद्रणालय, कलकत्ता यह ब्रितानी धर्म-प्रचारक विलियम कैर्री द्वारा स्थापित किया गया था और यहाँ से बंगाली और अन्य भाषाओं में बहुत सी क़िताबें, मासिक और साप्ताहिक प्रकाशित हुये हैं। गोवा से ट्रांकेबार तक और फिर वहाँ से कलकत्ता और देश के बाकी हिस्सों तक मुद्रण कला को पहुँचाने का और भारतीय भाषाओँ में मुद्रणकला को प्रस्थापित करने का कार्य इन डेनिश, पुर्तगाली और ब्रितानी धर्म-प्रचारकों की देन है।
18वीं शती के मध्य से भारत में उर्दू जुबान बहुत इस्तेमाल होने लगी, उसके पहले फारसी ही आधिकारिक कामकाजी भाषा थी। ब्रितानी शासकों ने सत्ता हथिया लेने के बाद उर्दू को यह दर्ज़ा दे दिया क्यूंकि फारसी भाषा उन्हें मुग़लों के आधिपत्य की याद दिलाती थी। घिअसुद्दीन हैदर के काल में लखनऊ में पहला मुद्रणालय स्थापित किया गया, यहाँ से बहुत सी उर्दू क़िताबें प्रकाशित हुईं। लखनऊ में लखनऊ अखबार (सन 1847), अखबार-ए-लखनऊ (सन 1851), तिलिस्म-ए-लखनऊ (1855) तथा अवध अख़बार (1875) यह अखबार काफी प्रसिद्ध थे। लखनऊ अखबार को लखनऊ का सबसे पहला उर्दू अखबार माना जाता है, उर्दू में सबसे पहला अखबार था जम-ए-जहाँ-नुमा। तिलिस्म-ए-लखनऊ में ब्रितानी शासन के खिलाफ खबरें रहती थी, जब ब्रितानी शासन ने वाजिद अली शाह और उनके परिवार को राज गद्दी से हटाया तब उनके बुरे बर्ताव का तिलिस्म में चित्रण किया गया था। सहर-ए-समरी यह अखबार भी तिलिस्म-ए-लखनऊ की तरह ब्रितानी शासन के खिलाफ लिखता था।
1. http://indecohotels.com/printing%20industry%20india.html
2. https://navrangindia.blogspot.in/2016/09/indias-first-printing-press-and-rev.html
3. http://en.banglapedia.org/index.php?title=Serampore_Mission_Press
4. https://en.wikipedia.org/wiki/Serampore_Mission_Press
5. https://en.wikipedia.org/wiki/Munshi_Newal_Kishore
6. http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/52428/7/07_chapter%202.pdf
7. http://www.milligazette.com/news/1196-birth-of-urdu-journalism-in-the-indian-subcontinent-news
8. http://prarang.in/Lucknow/180123798