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                                            रमज़ान के पवित्र माह का अंतिम दिन और ईद का अवसर हो, तो देश भर की मस्जिदों में नमाज़ के लिए हज़ारों का जमावड़ा लगना स्वभाविक है, विशेषकर जामा मस्जिदों में। हमारे लखनऊ शहर की मस्जिदों में भी इस समय भीड़ें एकत्रित हो जाती हैं, किंतु एक समय ऐसा भी था जब शहर की सबसे बड़ी जामा मस्जिद में नमाज़ अदा नहीं की जाती थी। औपनिवेशिक काल के दौरान जुम्मे की नमाज़ जामा मस्जिद से तहसीन की मस्जिद में स्थानांतरित कर दी गयी थी।
छोटे इमामबाड़े के पश्चिम दिशा में स्थित जामी मस्जिद का निर्माण अवध के तीसरे शासक मोहम्मद अली शाह (1837-1842) ने शुरू (1839 में) करवाया था। मुहम्मद शाह ने इस मस्जिद का निर्माण इस उद्देश्य से किया था कि यह मस्जिद शिया मुस्लिमों के लिए नमाज़ की सबसे बड़ी जामा मस्जिद होगी तथा यह आकार में दिल्ली की जामा मस्जिद से भी बड़ी होगी। लेकिन इसके पूरा होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी तथा बाद में (1845 में) उनकी पत्नी ने इसे पूरा करवाया। इन्होंने इस मस्जिद का निर्माण ‘लखौरी’ की ईंटों से करवाया, जिसमें चूने का प्लास्टर (Plaster) किया गया तथा इसे रंगीन प्लास्टर से सजाया गया। इसके मेहराब और गुंबद में खूबसूरत नक्काशी की गयी। 1842-1857 तक यह शिया मुस्लिमों के लिए नमाज़ की सबसे बड़ी मस्जिद रही।
1842 में जब मस्जिद को आंशिक रूप से तैयार किया गया तो पहली नमाज़ के लिए मोहम्मद अली शाह ने शिया समुदाय के मुख्य मौलवी सुल्तान-उल-उलेमा, सैय्यद मोहम्मद को आमंत्रित किया। किंतु इन्होंने विवादित भूमि पर बनी मस्जिद पर नमाज़ अदा करने से मना कर दिया। उन्होंने फिर समझाया कि असल में जिस ज़मीन पर मस्जिद बनी थी, उसके एक हिस्से के मालिक को भूमि की राशि का भुगतान नहीं किया गया था। फ़िक़ह-ए-जाफ़री (शिया न्यायशास्त्र) के अनुसार विवादित भूमि पर मस्जिद नहीं बनाई जा सकती। मोहम्मद अली शाह के गहन अनुरोध के बाद सुल्तान-उल-उलेमा को नमाज़ के लिए तैयार किया गया। इसके बाद 1842 में इस मस्जिद में शुक्रवार की नमाज़ अदा करने के लिए पहली सभा आयोजित की गई थी। इससे पहले यह सभा नवाब असफ़-उद-दौला द्वारा निर्मित असफी मस्जिद (बड़ा इमामबाड़ा परिसर में) में आयोजित की जाती थी।
1857 में स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने के बाद अंग्रेजों द्वारा हुसैनाबाद और नदी के पास के अन्य क्षेत्रों के निवासियों को ये स्थान खाली करने के लिए मजबूर किया गया तथा उन्हें सुरक्षा के लिए शहर के अन्य हिस्सों में पलायन करना पड़ा था। जिस कारण जुम्मे की नमाज़ जामा मस्जिद से तहसीन मस्जिद में स्थानांतरित कर दी गयी।
तहसीन मस्जिद का निर्माण तहसीन अली खान नाम के एक ख्वाजासरा ने करवाया था। यह अपनी वफादारी के कारण नवाब एवं उनकी बेगम के विश्वसनीय पात्र बन गये तथा महल में उच्च औदा हासिल किया। इनके पास संपत्ति के नाम पर एक सराय और एक मस्जिद थी। इस मस्जिद का निर्माण इन्होंने बड़ा इमामबाड़ा के निर्माण के दौरान निकले अवशेषों के माध्यम से किया, इन अवशेषों को प्राप्त करने के लिए इन्होंने असफ-उद-दौला से विशेष अनुमति ली। यह मस्जिद आगे चलकर तहसीन की मस्जिद के रूप में जानी गयी। कोई वारिस न होने के कारण इनकी संपत्ति को जॉन बैली को सौंप दिया गया। जॉन बैली ने इनकी इच्छानुसार इनकी कब्र पर एक मकबरा भी बनवाया, जिसे बाद में इमामबाड़ा में बदल दिया गया।
यह मस्जिद आज अतिक्रमण का शिकार हो रही है। इसके अलावा, जिस गली में मस्जिद स्थित है, वह काफी संकरी है तथा ऐसे अंदरूनी हिस्से में होने के कारण आगंतुकों के लिए इसे ढूंढना मुश्किल हो जाता है। जिस कारण आज यह मस्जिद सक्रिय नहीं है।
संदर्भ:
1.http://lucknow.me/Jama-Masjid.html
2.https://en.wikipedia.org/wiki/Jama_Masjid,_Lucknow
3.https://lucknowobserver.com/tehsin-ki-masjid/