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लखनऊ, तहज़ीब और नज़ाकत का शहर, जहाँ की गलियाँ न सिर्फ़ अपनी खुशबू और नवाबी रौनक के लिए जानी जाती हैं, बल्कि यहाँ की मेहनतकश महिलाओं की लगन और संघर्ष की कहानियों के लिए भी मशहूर हैं। आज यह शहर हर क्षेत्र में महिलाओं की सक्रियता का गवाह है। चाहे बैंक हों, स्कूल और कॉलेज, अस्पताल, मीडिया दफ्तर या निजी कंपनियाँ, लखनऊ की महिलाएँ सुबह से शाम तक अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं। कई बार वे उनसे बेहतर प्रदर्शन भी करती हैं। लेकिन महीने के अंत में जब वेतन पर्ची हाथ में आती है, तो उसमें लिखा आंकड़ा अक्सर छोटा रह जाता है। सवाल उठता है कि जब काम बराबर है, तो वेतन में फर्क क्यों है? यही सवाल हमें उस महत्वपूर्ण कानून की ओर ले जाता है जिसे भारत सरकार ने 1976 में लागू किया था। यह है समान पारिश्रमिक अधिनियम (Equal Remuneration Act), जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि मेहनत का मूल्य लिंग के आधार पर नहीं बल्कि काम के आधार पर तय हो।
आज हम जानेंगे कि यह कानून आखिर कहता क्या है, इसका उद्देश्य क्या था। साथ ही देखेंगे कि शहर की महिलाएँ बराबर मेहनत करने के बावजूद समान वेतन क्यों नहीं पा रहीं, इसके पीछे कौन से सामाजिक और व्यवस्थागत कारण हैं, और अंत में यह भी समझेंगे कि सरकार, समाज और स्वयं महिलाएँ इस असमानता को मिटाने के लिए क्या ठोस कदम उठा सकती हैं।
समान पारिश्रमिक अधिनियम क्या कहता है
समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 भारत का एक ऐतिहासिक कानून है, जो यह सुनिश्चित करता है कि किसी व्यक्ति को केवल उसके लिंग के कारण कम वेतन न दिया जाए। यह अधिनियम कहता है कि “समान कार्य के लिए समान वेतन” हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। इसका अर्थ है कि यदि कोई महिला वही कार्य करती है जो पुरुष करता है, तो उसे भी समान वेतन मिलना चाहिए। यह अधिनियम कार्यस्थलों पर निष्पक्ष अवसर, समान व्यवहार और सम्मानजनक माहौल प्रदान करने की दिशा में एक बड़ा कदम था।
महिलाओं की स्थिति
महिलाएँ आज हर क्षेत्र में आगे हैं। प्रशासन, शिक्षा, बैंकिंग और निजी उद्यमों में वे अपनी प्रतिभा से पहचान बना रही हैं। फिर भी वेतन असमानता की समस्या अब भी गहराई से जमी हुई है। कई बार महिलाएँ वही जिम्मेदारी निभाती हैं, वही काम करती हैं, पर उनका वेतन कम रहता है। यह केवल नीतिगत नहीं बल्कि मानसिकता से जुड़ी समस्या है। कई नियोक्ता अब भी यह मानते हैं कि पुरुष परिवार के मुख्य कमाने वाले हैं, जबकि महिलाएँ सहायक भूमिका निभाती हैं। यह सोच वेतन निर्धारण को प्रभावित करती है और समान मेहनत का पूरा मूल्य नहीं मिल पाता। कई पेशेवर महिलाएँ कहती हैं कि उन्हें अक्सर अपनी काबिलियत साबित करने में अपने पुरुष साथियों से ज़्यादा समय और प्रयास लगाना पड़ता है।
सरकारी प्रयास और कानूनी दायरा
भारत सरकार ने इस असमानता को मिटाने के लिए कई कदम उठाए हैं। वेतन संहिता (Code on Wages) 2019 ने वेतन से जुड़े नियमों को सरल बनाया और सुनिश्चित किया कि अनुबंध, आकस्मिक या अस्थायी कर्मचारियों को भी समान वेतन का अधिकार मिले। इसके साथ ही न्यूनतम वेतन अधिनिय (Minimum Wages Act) 1948 यह तय करता है कि हर श्रमिक को उसके कौशल और कार्य के अनुसार उचित वेतन मिले। समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 में कई महत्वपूर्ण प्रावधान हैं जो इस भेदभाव को समाप्त करने में सहायक हैं। धारा 4 कहती है कि किसी भी व्यक्ति को, चाहे वह पुरुष हो या महिला, यदि वह समान कार्य कर रहा है, तो उसे समान वेतन दिया जाएगा। धारा 5 यह सुनिश्चित करती है कि नियोक्ता वेतन, पदोन्नति, प्रशिक्षण या अन्य लाभों में किसी भी तरह का लिंग आधारित भेदभाव नहीं कर सकते। धारा 10 के तहत यदि कोई नियोक्ता इस अधिनियम का उल्लंघन करता है, तो उसे तीन महीने से एक वर्ष तक की सज़ा या 10,000 से 20,000 रुपये तक का जुर्माना, या दोनों दंड दिए जा सकते हैं।
इन प्रावधानों का उद्देश्य केवल दंड देना नहीं है, बल्कि एक ऐसा माहौल बनाना है जहाँ किसी को अपने लिंग के कारण कम या ज़्यादा नहीं आंका जाए। लखनऊ की महिलाओं के लिए यह अधिनियम एक कानूनी ढाल की तरह है, जो उन्हें समानता की दिशा में आगे बढ़ने का अवसर देता है। कानून तभी प्रभावी होता है जब उसका पालन सख्ती से हो। राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी संस्थाएँ और कंपनियाँ इस अधिनियम का पालन करें, जिसके लिए नियमित जांच और पारदर्शी रिपोर्टिंग प्रणाली की आवश्यकता है। साथ ही समाज में यह मानसिकता भी बदलनी होगी कि महिलाएँ केवल पूरक आय (Side Income) के लिए काम करती हैं। लखनऊ की महिलाएँ अब हर क्षेत्र में अग्रणी हैं और शहर के विकास की रीढ़ हैं। इसलिए संस्थानों को न केवल कानूनी रूप से, बल्कि नैतिक रूप से भी यह स्वीकार करना चाहिए कि समान कार्य का समान वेतन देना केवल एक नियम नहीं, बल्कि न्याय का मूल सिद्धांत है।
कार्यस्थल में समानता और सम्मान
यह कानून केवल वेतन समानता तक सीमित नहीं है, बल्कि कार्यस्थल पर समान अवसर, सुरक्षा और सम्मान की भावना को भी मज़बूत करता है। यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी महिला को उसके लिंग के कारण नौकरी से नहीं निकाला जाए या पदोन्नति में भेदभाव न हो। लखनऊ के कई दफ्तरों और संस्थानों में महिलाएँ नेतृत्व के पदों पर हैं, फिर भी वास्तविक समानता तब ही आएगी जब हर स्तर पर यह सोच विकसित हो कि योग्यता और मेहनत ही वेतन का आधार है, न कि लिंग।
संदर्भ
https://tinyurl.com/8ah23vwd
https://tinyurl.com/yet6dpwm
https://tinyurl.com/4pun9zsa
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