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मेरठ की मिट्टी सिर्फ़ इतिहास की कहानियाँ नहीं कहती, बल्कि इसमें भावनाओं, आस्थाओं और रिश्तों की मिठास भी घुली हुई है। इस शहर की धार्मिक संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है वात्सल्य रस, वह भावना जहाँ भक्त भगवान को संतान की तरह अपनाते हैं। यहाँ कृष्ण को केवल पूजा नहीं जाता, बल्कि उन्हें लड्डू गोपाल, बाल गोपाल, नंदलाल जैसे नामों से गोद में खिलाया जाता है, उन्हें झूले में झुलाया जाता है, उनके लिए वस्त्र सिलवाए जाते हैं, और हर दिन उन्हें भोग के रूप में अलग-अलग व्यंजन परोसे जाते हैं। मेरठ के मंदिरों और घरों में यह वात्सल्य रस केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक जीवंत संवेदना है।
ब्रज भूमि से भौगोलिक निकटता के कारण यह क्षेत्र कृष्ण भक्ति की उसी लय में बहता है, जहाँ माखनचोर बालक की शरारतें भी पूजा का हिस्सा हैं और माँ यशोदा की ममता भी भजन बन जाती है।
यहाँ के धार्मिक उत्सव, जैसे झूलन उत्सव, कृष्ण जन्माष्टमी या अन्नकूट, भगवान को एक परिवार के सदस्य की तरह मनाने के अवसर बनते हैं। यहाँ की महिलाओं के गीतों में, लोक कथाओं में, और यहां तक कि बच्चों के खेलों में भी कृष्ण को बेटा, भाई, या मित्र मानकर पुकारा जाता है। मेरठ की यह आध्यात्मिक आत्मीयता ही इसे एक ऐसा सांस्कृतिक केन्द्र बनाती है जहाँ भक्ति में भी माँ की ममता और पिता की चिंता महसूस की जा सकती है। वात्सल्य रस के इस जीवंत स्वरूप ने न केवल लोगों के धार्मिक जीवन को संवारा है, बल्कि यहाँ की कला, संगीत और लोक साहित्य को भी भावनात्मक ऊँचाइयाँ दी हैं। यह भावनात्मक जुड़ाव मेरठ को न केवल भक्ति की भूमि बनाता है, बल्कि एक ऐसा स्थान भी जहाँ श्रद्धा, प्रेम और पारिवारिक आत्मीयता एक साथ झलकती है।
इस लेख में हम मेरठ की धार्मिक और सांस्कृतिक भावना में रचे-बसे वात्सल्य रस को पाँच प्रमुख पहलुओं के माध्यम से समझेंगे। इसमें वात्सल्य रस की परिभाषा और भावात्मक स्वरूप, सूरदास की भक्ति में इसकी भूमिका, कृष्ण और भक्तों के पारलौकिक संबंध, शास्त्रीय ग्रंथों में इसका सिद्धांत, और अंततः आत्मिक प्रेम के रूप में इसका आध्यात्मिक विस्तार शामिल है। यह रस केवल साहित्यिक भाव नहीं, बल्कि मेरठ की श्रद्धा और संवेदना का जीवंत प्रतीक है।
वात्सल्य रस की परिभाषा और भावात्मक स्वरूप
वात्सल्य रस, नवरसों में वह अनुपम रस है जिसमें प्रेम केवल आकर्षण या भावना नहीं, बल्कि गहराई से बहती एक निःस्वार्थ धारा है। यह वह भावना है जहाँ प्रेम करने वाला स्वयं को माता-पिता मानता है और प्रिय पात्र को संतान के रूप में देखता है, निरपेक्ष, निष्कलंक, और पूर्ण रूप से समर्पित। इस रस में स्वार्थ, अपेक्षा या अधिकार की कोई गुंजाइश नहीं होती, केवल ममता, चिंता, सेवा और संरक्षण की सहज लहरें होती हैं। जहाँ पारंपरिक परिवार प्रणाली अब भी जीवित है, वहाँ यह रस केवल भक्ति का विषय नहीं बल्कि जीवन का हिस्सा बन चुका है। विशेषकर मवाना, हस्तिनापुर, परीक्षितगढ़ और खरखौदा जैसे इलाकों के मंदिरों में बालकृष्ण की जो पूजा होती है, वह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, वात्सल्य का जीवंत मंचन है। यहाँ की महिलाएँ बालकृष्ण को गोद में लेती हैं, उन्हें हाथों से झूला झुलाती हैं, सुबह-सुबह उठकर उनके वस्त्र बदलती हैं और उन्हें ताजे दूध से स्नान कराकर मक्खन-मिश्री का भोग लगाती हैं। इन सब क्रियाओं में न पूजा की औपचारिकता है, न ही भय—सिर्फ और सिर्फ एक माँ जैसा भाव है, जो भगवान को भी पुत्र के रूप में देखने में संकोच नहीं करता।
भक्ति साहित्य में वात्सल्य रस: सूरदास की दृष्टि
भक्ति साहित्य में अगर वात्सल्य रस को कोई स्वर मिला है तो वह सूरदास की बांसुरी से निकला है। सूरदास, जिनकी दृष्टि भले ही नेत्रों से रहित थी, लेकिन जिनका अंतरदृष्टि संसार के सबसे कोमल भावों को छूती थी, ने अपने काव्य में वात्सल्य रस को जो स्वरूप दिया, वह आज भी अमर है। उनके पदों में यशोदा और बालकृष्ण के बीच के प्रेम की अनुभूति इतनी गहरी है कि वह पढ़ने वाले को सिर्फ रस में नहीं, माँ की गोद में ले जाकर बैठा देती है। कभी कन्हैया माखन चुराते हैं, कभी यशोदा की डाँट से डरकर भागते हैं, तो कभी नन्हें हाथों से बंसी उठाने की कोशिश करते हैं। इन दृश्यों में ईश्वर नहीं, एक नटखट बच्चा नज़र आता है। मेरठ के भजन मंडलों में आज भी सूरदास के ये पद गाए जाते हैं, चैत्र और श्रावण के मेलों में, जन्माष्टमी की रातों में, या रामलीला में कृष्णलीला के मंचन में। सूरदास की कविता सिर्फ़ कविता नहीं, बल्कि मातृत्व की प्रार्थना बन जाती है, जहाँ हर गायक यशोदा की भावना से भरकर गाता है। मेरठ की स्त्रियाँ आज भी जब बाल गोपाल को पलने में झुलाती हैं, तो उनके शब्दों में सूरदास की आत्मा उतर आती है।
श्रीकृष्ण और भक्तों के संबंध में वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति
श्रीकृष्ण को केवल आराध्य देव नहीं, बल्कि एक बालक के रूप में देखने का भाव ही वात्सल्य रस की आत्मा है। इस रस में भक्त ईश्वर को अपने पुत्र के रूप में देखता है — उसे सुलाता है, जगाता है, खिलाता है, डाँटता भी है, और सबसे ज़्यादा, उसे प्रेम करता है। मेरठ के गाँवों और कस्बों में यह रस किसी दर्शनशास्त्र या ग्रंथ की बात नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन में बहने वाली नदी की तरह है। जन्माष्टमी के समय यहाँ घर-घर में नंदलाल के लिए झूला सजता है। महिलाएँ लोरी गाती हैं, "सो जा लाला सो जा…"—और उनकी आँखों में एक माँ की वही चिंता झलकती है जो अपने बच्चे को रात में सोते देखती है। गली के मंदिरों में छोटे-छोटे झूले सजते हैं, जिनमें कृष्ण नहीं, पूरे मोहल्ले का लाडला बालक झूलता है। यह भावना न केवल स्त्रियों में बल्कि पुरुषों में भी होती है, बड़े-बुज़ुर्ग कृष्ण की आरती करते हुए उसी लगाव से भर उठते हैं जैसे कोई पिता अपने बच्चे के माथे पर हाथ फेरता है। यहाँ कृष्ण डर का देव नहीं, बल्कि अपने भक्तों की गोद में मुस्कराता पुत्र है।
शास्त्रीय ग्रंथों में वात्सल्य रस का उल्लेख और सिद्धांत
शास्त्रों में वात्सल्य रस को एक गंभीर और स्थायी भाव के रूप में स्वीकार किया गया है। भक्ति-रसामृत-सिंधु, जो भक्ति रस के सबसे प्रतिष्ठित ग्रंथों में से एक है, उसमें वात्सल्य रति को उस अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ भक्त भगवान को पुत्र मानकर प्रेम करता है। यह रति, यानी प्रेम की स्थिति, सबसे शुद्ध मानी जाती है क्योंकि इसमें अपेक्षा नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का ऐसा विस्तार मिलता है, जो न केवल कथा का हिस्सा हैं, बल्कि एक गहरी भावनात्मक यात्रा भी हैं। यशोदा की ममता, नंद बाबा की चिंता, और गोपियों की देखभाल— एक ऐसा ईश्वर जो अपने भक्तों पर निर्भर है, और यही वात्सल्य की पराकाष्ठा है। मेरठ के धार्मिक शिक्षण केंद्रों, आश्रमों और कथा आयोजनों में इन शास्त्रों की व्याख्या आज भी होती है। वहाँ बैठकर जब कोई वृंदावन से आए संत वात्सल्य रति का पाठ करते हैं, तो वह केवल व्याख्यान नहीं होता, बल्कि आत्मा से आत्मा को जोड़ने वाली संप्रेषणीय ऊर्जा होती है।
पारलौकिक प्रेम की अवधारणा और इसका आध्यात्मिक स्वरूप
वात्सल्य रस अंततः केवल सांसारिक रिश्तों की नकल नहीं है, यह एक पारलौकिक प्रेम है, एक ऐसा प्रेम जो मृत्यु, शरीर, दूरी, समय, और भावना की सीमाओं से परे होता है। यह वह प्रेम है जिसमें ‘तू’ और ‘मैं’ का भेद मिट जाता है। यह प्रेम न संतान की प्राप्ति के लिए है, न कृपा की आशा में यह प्रेम केवल प्रेम के लिए होता है। मेरठ की भजन परंपरा में ऐसे भाव भरे गीत अक्सर गूंजते हैं। यह वह स्थिति है जहाँ भक्त भगवान को पुत्र मानता है, पर वह पुत्र भी अब ईश्वर नहीं, उसका ही अंश बन जाता है। जब यह प्रेम होता है, तब कोई तर्क नहीं बचता, कोई डर नहीं बचता सिर्फ एक मौन, शांत, और दिव्य अनुभूति बचती है। यही वात्सल्य रस का सबसे ऊँचा, सबसे निर्मल और सबसे सच्चा रूप है।
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